मंगलवार, 9 जनवरी 2018

महर्षि अत्रि

वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं। सम्पूर्ण ऋग्वेद दस मण्डलों में प्रविभक्त है। प्रत्येक मण्डल के मन्त्रों के ऋषि अलग-अलग हैं। उनमें से ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि हैं। इसीलिये यह मण्डल 'आत्रेय मण्डल' कहलाता है। इस मण्डल में 87 सूक्त हैं। जिनमें महर्षि अत्रि द्वारा विशेष रूप से अग्नि, इन्द्र, मरूत, विश्वेदेव तथा सविता आदि देवों की महनीय स्तुतियाँ ग्रथित हैं। इन्द्र तथा अग्निदेवता के महनीय कर्मों का वर्णन है। अत्रि ब्रह्मा के पुत्र थे जो उनके नेत्रों से उत्पन्न हुए थे। ये सोम के पिता थे जो इनके नेत्र से आविर्भूत हुए थे। इन्होंने कर्दम की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था।

इन दोनों के पुत्र दत्तात्रेय थे। इन्होंने अलर्क, प्रह्लाद आदि को अन्वीक्षकी की शिक्षा दी थी। भीष्म जब शर-शैय्या पर पड़े थे, उस समय ये उनसे मिलने गये थे। परीक्षित जब प्रायोपवेश का अभ्यास कर रहे थे, तो ये उन्हें देखने गये थे। पुत्रोत्पत्ति के लिए इन्होंने ऋक्ष पर्वत पर पत्नी के साथ तप किया था। इन्होंने त्रिमूर्तियों की प्रार्थना की थी जिनसे त्रिदेवों के अशं रूप में दत्त (विष्णु) दुर्वासा (शिव) और सोम (ब्रह्मा) उत्पन्न हुए थे।

इन्होंने दो बार पृथु को घोड़े चुराकर भागते हुए इन्द्र को दिखाया था तथा हत्या करने को कहा था। ये वैवस्वत युग के मुनि थे। मन्त्रकार के रूप में इन्होंने उत्तानपाद को अपने पुत्र के रूप में ग्रहण किया था। इनके ब्रह्मावादिनी नाम की कन्या थी। परशुराम जब ध्यानावस्थित रूप में थे उस समय ये उनके पास गये थे। इन्होंने श्राद्ध द्वारा पितरों की अराधना की थी और सोम की राजक्ष्मा रोग से मुक्त किया था। ब्रह्मा के द्वारा सृष्टि की रचना के लिए नियुक्त किये जाने पर इन्होंने 'अनुत्तम' तक किया था जब कि शिव इनसे मिले थे। सोम के राजसूय यज्ञ में इन्होंने होता का कार्य किया था।

त्रिपुर के विनाश के लिए इन्होंने शिव की आराधना की थी। बनवास के समय राम अत्रि के आश्रम भी गये थे। जहां अनुसूया ने माता सीता को उपदेश दिया।

वैदिक मन्त्रद्रष्टा
पुराणों में इनके आविर्भाव का तथा उदात्त चरित्र का बड़ा ही सुन्दर वर्णन हुआ है। वहाँ के वर्णन के अनुसार महर्षि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस-पुत्र हैं और उनके चक्षु भाग से इनका प्रादुर्भाव हुआ।

सप्तर्षियों में महर्षि अत्रि का परिगणन है। साथ ही इन्हें 'प्रजापति' भी कहा गया है। महर्षि अत्रि की पत्नी अनुसूया जी हैं, जो कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री हैं। देवी अनुसूया पतिव्रताओं की आदर्शभूता और महान् दिव्यतेज से सम्पन्न हैं। महर्षि अत्रि जहाँ ज्ञान, तपस्या, सदाचार, भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के मूर्तिमान स्वरूप हैं; वहीं देवी अनुसूया पतिव्रता धर्म एवं शील की मूर्तिमती विग्रह हैं।

भगवान श्री राम अपने भक्त महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया की भक्ति को सफल करने स्वयं उनके आश्रम पर पधारे। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया। उन्होंने अपने पतिव्रत के बल पर शैव्या ब्राह्माणी के मृत पति को जीवित कराया तथा बाधित सूर्य को उदित कराकर संसार का कल्याण किया। देवी अनुसूया का नाम ही बड़े महत्त्व का है। अनुसूया नाम है परदोष-दर्शन का –गुणों में भी दोष-बुद्धि का और जो इन विकारों से रहित हो, वही 'अनुसूया' है।

इसी प्रकार महर्षि अत्रि भी 'अ+त्रि' हैं अर्थात् वे तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस)- से अतीत है- गुणातीत हैं। इस प्रकार महर्षि अत्रि-दम्पति एवं विध अपने नामानुरूप जीवन यापन करते हुए सदाचार परायण हो चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। अत्रि पत्नी अनुसूया के तपोबल से ही भागीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और 'मंदाकिनी' नाम से प्रसिद्ध हुई।

सृष्टि के प्रारम्भ में जब इन दम्पति को ब्रह्मा जी ने सृष्टिवर्धन की आज्ञा दी तो इन्होंने उस ओर उन्मुख न हो तपस्या का ही आश्रय लिया। इनकी तपस्या से ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने प्रसन्न होकर इन्हें दर्शन दिया और दम्पति की प्रार्थना पर इनका पुत्र बनना स्वीकार किया। अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में आविर्भूत हुए।

वेदों में उपर्युक्त वृत्तान्त यथावत नहीं मिलता है, कहीं-कहीं नामों में अन्तर भी है। ऋग्वेद- में 'अत्रि: सांख्य:' कहा गया है। वेदों में यह स्पष्ट रूप से वर्णन है कि महर्षि अत्रि को अश्विनीकुमारों की कृपा प्राप्त थी। एक बार जब ये समाधिस्थ थे, तब दैत्यों ने इन्हें उठाकर शतद्वार यन्त्र में डाल दिया और आग लगाकर इन्हें जलाने का प्रयत्न किया, किंतु अत्रि को उसका कुछ भी ज्ञान नहीं था। उस समय अश्विनीकुमारों ने वहाँ पहुँचकर इन्हें बचाया।

ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 51वें तथा 112वें सूक्त में यह कथा आयी है। ऋग्वेद के दशम मण्डल में महर्षि अत्रि के दीर्घ तपस्या के अनुष्ठान का वर्णन आया है और बताया गया है कि यज्ञ तथा तप आदि करते-करते जब अत्रि वृद्ध हो गये, तब अश्विनीकुमारों ने इन्हें नवयौवन प्रदान किया।

ऋग्वेद के पंचम मण्डल में अत्रि के वसूयु, सप्तवध्रि नामक अनेक पुत्रों का वृत्तान्त आया है, जो अनेक मन्त्रों के द्रष्टा ऋषि रहे हैं। इसी प्रकार अत्रि के गोत्रज आत्रेयगण ऋग्वेद के बहुत से मन्त्रों के द्रष्टा हैं।

ऋग्वेद के पंचम 'आत्रेय मण्डल' का 'कल्याण सूक्त' ऋग्वेदीय 'स्वस्ति-सूक्त' है, वह महर्षि अत्रि की ऋतम्भरा प्रज्ञा से ही हमें प्राप्त हो सका है यह सूक्त 'कल्याण-सूक्त', 'मंगल-सूक्त' तथा 'श्रेय-सूक्त' भी कहलाता है। जो आज भी प्रत्येक मांगलिक कार्यों, शुभ संस्कारों तथा पूजा, अनुष्ठानों में स्वस्ति-प्राप्ति, कल्याण-प्राप्ति, अभ्युदय-प्राप्ति, भगवत्कृपा-प्राप्ति तथा अमंगल के विनाश के लिये सस्वर पठित होता है।

इस मांगलिक सूक्त में अश्विनी, भग, अदिति, पूषा, द्यावा, पृथिवी, बृहस्पति, आदित्य, वैश्वानर, सविता तथा मित्रा वरुण और सूर्य-चंद्रमा आदि देवताओं से प्राणिमात्र के लिये स्वस्ति की प्रार्थना की गयी है। इससे महर्षि अत्रि के उदात्त-भाव तथा लोक-कल्याण की भावना का किंचित स्थापना होता है।
इसी प्रकार महर्षि अत्रि ने मण्डल की पूर्णता में भी सविता देव से यही प्रार्थना की है कि 'हे सविता देव! आप हमारे सम्पूर्ण दु:खों को-अनिष्टों को, शोक-कष्टों को दूर कर दें और हमारे लिये जो हितकर हो, कल्याणकारी हो, उसे उपलब्ध करायें'।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि महर्षि अत्रि की भावना अत्यन्त ही कल्याणकारी थी और उनमें त्याग, तपस्या, शौच, संतोष, अपरिग्रह, अनासक्ति तथा विश्व कल्याण की पराकष्ठा विद्यमान थी।
एक ओर जहाँ उन्होंने वैदिक ऋचाओं का दर्शन किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी प्रजा को सदाचार और धर्माचरणपूर्वक एक उत्तम जीवनचर्या में प्रवृत्त होने के लिये प्रेरित किया है तथा कर्तव्या-कर्तव्य का निर्देश दिया है।

इन शिक्षोपदेशों को उन्होंने अपने द्वारा निर्मित आत्रेय धर्मशास्त्र में उपनिबद्ध किया है। वहाँ इन्होंने वेदों के सूक्तों तथा मन्त्रों की अत्यन्त महिमा बतायी है। अत्रिस्मृति का छठा अध्याय वेदमन्त्रों की महिमा में ही पर्यवसित है। वहाँ अघमर्षण के मन्त्र, सूर्योपस्थान का यह 'उदु त्यं जातवेदसं0 मन्त्र, पावमानी ऋचाएँ, शतरुद्रिय, गो-सूक्त, अश्व-सूक्त एवं इन्द्र-सूक्त आदि का निर्देश कर उनकी महिमा और पाठ का फल बताया गया है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि महर्षि अत्रि की वेद मन्त्रों पर कितनी दृढ़ निष्ठा थी। महर्षि अत्रि का कहना है कि वैदिक मन्त्रों के अधिकारपूर्वक जप से सभी प्रकार के पाप-क्लेशों का विनाश हो जाता है। पाठ कर्ता पवित्र हो जाता है, उसे जन्मान्तरीय ज्ञान हो जाता है- जाति-स्मरता प्राप्त हो जाती है और वह जो चाहता है, वह प्राप्त कर लेता है।

अपनी स्मृति के अन्तिम 9वें अध्याय में महर्षि अत्रि ने बहुत सुन्दर बात बताते हुए कहा है कि यदि विद्वेष भाव से वैरपूर्वक भी दमघोष के पुत्र शिशुपाल की तरह भगवान का स्मरण किया जाय तो उद्धार होने में कोई संदेह नहीं; फिर यदि तत्परायण होकर अनन्य भाव से भगवदाश्रय ग्रहण कर लिया जाय तो परम कल्याण में क्या संदेह?

इस प्रकार महर्षि अत्रि ने अपने द्वारा द्रष्ट मन्त्रों में, अपने धर्मसूत्रों में अथवा अपने सदाचरण से यही बात बतायी है कि व्यक्ति को सत्कर्म का ही अनुष्ठान करना चाहिये।

मरीचि ऋषि

ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में से एक मरीचि की उत्पत्ति ब्रह्माजी के नेत्र से हुई थी। इनकी पत्नी कला कर्दम की कन्या हैं। दक्ष के यज्ञ में इन्होंने भी शंकर भगवान का अपमान किया था। जिसके कारण वीर भद्र ने इन्हे भस्म कर डाला।

मरीचि के अनुसार मानसिक व्याधि चार प्रकार की होती है- भोग्य, गोप्य, प्रत्यक्ष और अज्ञात। इन्होंने ही भृगु को दण्ड नीति की शिक्षा दी है। ये सुमेरु के एक शिखर पर निवास करते हैं और महाभारत में इन्हें चित्रशिखण्डी कहा गया है।

ब्रह्मा ने पुष्करक्षेत्र में जो यज्ञ किया था उसमें ये अच्छावाक् पद पर नियुक्त हुए थे। दस हजार श्लोकों से युक्त ब्रह्मपुराण का दान सबसे पहले ब्रह्मा ने इन्हीं को किया था।

मरीचि ने कला नाम की स्त्री से विवाह किया और उनसे उन्हें कश्यप नामक एक पुत्र मिला। कश्यप की माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और ऋषि कपिल देव की बहन थी।

ब्रह्मा के पोते और मरीचि के पुत्र कश्यप ने ब्रह्मा के दूसरे पुत्र दक्ष की 13 पुत्रियों से विवाह किया।
मुख्यतः इन्हीं कन्याओं से सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए।

शनिवार, 6 जनवरी 2018

राजा कुबेर

कुबेर महर्षि पुलस्त्य के पुत्र महामुनि विश्रवा के पुत्र थे। विश्रवा की पत्नी इलविला के गर्भ से कुबेर का जन्म हुआ था, जबकि उनकी दूसरी पत्नी कैकसी के गर्भ से रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा का जन्म हुआ था। इस प्रकार कुबेर रावण के भाई थे।

•भगवान ब्रह्मा ने इन्हें समस्त सम्पत्ति का स्वामी बनाया।

•ये तप करके उत्तर दिशा के लोकपाल हुए।

•कैलाश के समीप इनकी अलकापुरी है।

•श्वेतवर्ण, तुन्दिल शरीर, अष्टदन्त एवं तीन चरणों वाले, गदाधारी कुबेर अपनी सत्तर योजन विस्तीर्ण वैश्रवणी सभा में विराजते हैं।

•इनके पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव भगवान श्री कृष्णचन्द्र द्वारा नारद जी के शाप से मुक्त होकर इनके समीप स्थित रहते हैं।

•इनके अनुचर यक्ष निरन्तर इनकी सेवा करते हैं।
•प्राचीन ग्रीक भी प्लूटो नाम से धनाधीश को मानते थे।

•पृथ्वी में जितना कोष है, सबके अधिपति कुबेर हैं।

•इनकी कृपा से ही मनुष्य को भू गर्भ स्थित निधि प्राप्त होती है।

•निधि-विद्या में निधि सजीव मानी गयी है, जो स्वत: स्थानान्तरित होती है।

•पुण्यात्मा योग्य शासक के समय में मणि-रत्नादि स्वत: प्रकट होते हैं। आज तो अधिकांश मणि, रत्न लुप्त हो गये। कोई स्वत:प्रकाश रत्न विश्व में नहीं, आज का मानव उनको उपभोग्य जो मानता है। यज्ञ-दान के अवशेष का उपभोग हो, यह वृत्ति लुप्त हो गयी।

•कुबेर जी मनुष्य के अधिकार के अनुरूप कोष का प्रादुर्भाव या तिरोभाव कर देते हैं।

•भगवान शंकर ने इन्हें अपना नित्य सखा स्वीकार किया है।

•प्रत्येक यज्ञान्त में इन वैश्रवण राजाधिराज को पुष्पांजलि दी जाती है।

भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कुबेर ने हिमालय पर्वत पर तप किया। तप के अंतराल में शिव तथा पार्वती दिखायी पड़े। कुबेर ने अत्यंत सात्त्विक भाव से पार्वती की ओर बायें नेत्र से देखा। पार्वती के दिव्य तेज से वह नेत्र भस्म होकर पीला पड़ गया। कुबेर वहां से उठकर दूसरे स्थान पर चला गया। वह घोर तप या तो शिव ने किया था या फिर कुबेर ने किया, अन्य कोई भी देवता उसे पूर्ण रूप से संपन्न नहीं कर पाया था। कुबेर से प्रसन्न होकर शिव ने कहा-'तुमने मुझे तपस्या से जीत लिया है। तुम्हारा एक नेत्र पार्वती के तेज से नष्ट हो गया, अत: तुम 'एकाक्षीपिंगल' कहलाओगे।

कुबेर ने रावण के अनेक अत्याचारों के विषय में जाना तो अपने एक दूत को रावण के पास भेजा। दूत ने कुबेर का संदेश दिया कि रावण अधर्म के क्रूर कार्यों को छोड़ दे। रावण के नंदनवन उजाड़ने के कारण सब देवता उसके शत्रु बन गये हैं। रावण ने क्रुद्ध होकर उस दूत को अपनी खड्ग से काटकर राक्षसों को भक्षणार्थ दे दिया। कुबेर का यह सब जानकर बहुत बुरा लगा। रावण तथा राक्षसों का कुबेर तथा यक्षों से युद्ध हुआ। यक्ष बल से लड़ते थे और राक्षस माया से, अत: राक्षस विजयी हुए। रावण ने माया से अनेक रूप धारण किये तथा कुबेर के सिर पर प्रहार करके उसे घायल कर दिया और बलात उसका पुष्पक विमान ले लिया।

विश्रवा की दो पत्नियां थीं। पुत्रों में कुबेर सबसे बड़े थे। शेष रावण, कुंभकर्ण और विभीषण सौतेले भाई थे। उन्होंने अपनी माँ से प्रेरणा पाकर कुबेर का पुष्पक विमान लेकर लंका पुरी तथा समस्त संपत्ति छीन ली। कुबेर अपने पितामह के पास गये। उनकी प्रेरणा से कुबेर ने शिवाराधना की। फलस्वरूप उन्हें 'धनपाल' की पदवी, पत्नी और पुत्र का लाभ हुआ। गौतमी के तट का वह स्थल धनदतीर्थ नाम से विख्यात है।

अंगद

अंगद बालि के पुत्र थे। बालि इनसे सर्वाधिक प्रेम करता था। ये परम बुद्धिमान, अपने पिता के समान बलशाली तथा भगवान श्रीराम के परम भक्त थे। अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी और सर्वस्व हरण करने के अपराध में भगवान श्रीराम के हाथों बालि की मृत्यु हुई। मरते समय बालि ने भगवान राम को ईश्वर के रूप में पहचाना और अपने पुत्र अंगद को उनके चरणों में सेवक के रूप में समर्पित कर दिया। प्रभु राम ने बालि की अन्तिम इच्छा का सम्मान करते हुए अंगद को स्वीकार किया। सुग्रीव को किष्किंधा का राज्य मिला और अंगद युवराज बनाये गये।

शूर्पनखा

शूर्पणखा एक प्रसिद्ध पौराणिक चरित्र है,

जो लंका के राजा रावण की बहन थी। शूर्पवत् नखानि यस्या सा शूर्पणखा अर्थात- "जिसके नख सूप के समान हों।" 

रामायण के अनुसार

शूर्पणखा लंका के राजा रावण की बहन तथा दानवों के राजा कालका के पुत्र विद्युज्जिह्व की पत्नी थी। समस्त संसार पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से रावण ने अनेक युद्ध किये, अनेक दैत्यों को मारा। उन्हीं दैत्यों में विद्युज्जिह्व भी मारा गया। शूर्पणखा बहुत दु:खी हुई। रावण ने उसे आश्वस्त करते हुए अपने भाई खर के पास रहने के लिए भेज दिया। वह दंडकारण्य में रहने लगी।