शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

मृत्यु क्या है


जब किसी की बीमारी बढ़ जाती है, और वह समझ लेता है कि अब बचने की आशा नहीं, तो सब ओर से हटकर उसका जी यह सोचने लगता है कि मृत्यु क्या है? मरने के पीछे क्या होगा? इसी देह तक क्या सब कुछ था, या आगे भी कुछ और है? एक दिन अचानक मेरे जी में भी ये बातें उठीं, और सबसे पहले मैं यह सोचने लगा कि मृत्यु क्या है, पर ज्यों यह बात जी में आयी, त्यों गीता के ये बचन याद आये-ऽऽजैसे जीव के इस देह के लिए लड़कपन, जवानी और बुढ़ापा है, उसी तरह उसके लिए दूसरी देह को पाना (मरना) है, जो लोग धीरज वाले हैं, उनको इससे घबराहट नहीं होती-

यथा देही शरीरेऽस्मिन , कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तर प्राप्तिधीरस्तत्र न मुह्यति।

जैसे पुराने कपड़े को उतार कर मनुष्य दूसरे नये कपड़े को पहनता है उसी तरह से पुरानी देह छोड़कर जीव दूसरी नयी देह में चला जाता है।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि र्गृीति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संजाति नवानि देही।

गीता के इन वचनों के साथ भागवत की बात भी याद पड़ी, उसमें वासुदेव जी ने कंस को समझाते हुए कहा है कि, जब मनुष्य मर जाता है तो जीव अपनी करनी के मुताबिक बेबसों की तरह दूसरी देह को पाकर अपनी पुरानी देह को छोड़ देता है-

देहे पंचत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवश:।
देहान्तरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यज्यते वपु : । 

जैसे तृण जलौका चलने के समय जब एक पाँव रख लेता है, तब दूसरा पाँव उठाता है, उसी प्रकार करनी के अनुसार जीव की भी गति है।

ब्रजस्तिष्ठ न्यदैकेन यथैवैकेन गच्छति।
यथा तृण जलौकैवं देही कर्म गतिं गत : ।

इन कई एक पंक्तियों के पढ़ने से यह बात समझ में आ गयी होगी, कि मृत्यु क्या है? जैसा गीता और भागवत ने हमको बतलाया है, उससे पाया जाता है कि मृत्यु और कुछ नहीं एक प्रकार का परिवर्तन है।

डॉक्टर लूइस फ्रान्स के एक बहुत बड़े और प्रसिद्ध विद्वान हैं, उन्होंने फ्रान्सीसी भाषा में मृत्यु के बारे में एक पुस्तक लिखी है। उसका अनुवाद फ्रान्सीसी से अंगरेजी और अंगरेजी से उर्दू में हुआ है। उर्दू किताब का नाम अल्हयात बाद लममात है। उसके चौथे बाब में मौत के बारे में जो कुछ लिखा है, वह यह बात है ऽऽमौत जिन्दगी की सबसे पिछली मंजिल नहीं है, बल्कि एक तबदीली है, हम मरते नहीं, बल्कि सूरत बदलते हैं। मौत के परदे गिरना किसी बुरी हालत में पहुँचना या सदमा उठाना नहीं है, बल्कि आदमी के भाग्य का जो तमाशागाह है, यह उसका एक बहुत बड़ा असर डालने वाला सीन है। 

साँस चलने की तकलीफ बरबाद हो जाने या मिट जाने की अवस्था नहीं है, बल्कि एक ऐसी दर्दनाक हालत है, जो कभी नहीं टलती, न नेचर के कानून में हर तब्दीली के साथ मौजूद रहती है। सब लोग मानते हैं कि कीड़े मकोड़ों के सर्द और हिलने डुलने वाले बदामा को अपना बाहिरी लिबास चाक करना पड़ता है, जिसमें कि वह सुन्दर रंगवाली चमकीली तितली की सूरत में दिखलाई पड़े। 

जब तुम तितली को उसी घर देखो, जब वह अपने थोड़े दिन ठहरनेवाले ढकने से बाहर निकलती है, तो तुमको उस कैद करनेवाली जंजीर के तोड़ने से काँपती और हाँफती हुई दिखलाई पड़ेगी। उसको आराम की जरूरत है, जिसमें वह अपनी ताकत को आकाश में उड़ने के लिए इकट्ठा करे क्योंकि नेचर ने उसको इस हवा में उड़ने के लिए ही बनाया है। यही हमारी मौत की तकलीफ का नमूना है। हमको इस तरह की हर एक तकलीफ को सह लेना जरूरी है, जिसमें हम इस मिट्टी के घरौंदे छोड़कर उन अनजान लोकों में सैर के लिए तैयार हों, जो इस तरह देह छोड़ने के बाद हमारे सामने आते हैं।

कबीर साहब एक दोहे में कहते हैं कि ऽऽमरने से सारी दुनिया डरती है पर मेरे मन में आनन्द है, क्योंकि पूरा और सच्चा आनन्द मरने से ही मिलता है-

मरने ते सब जग डरे , मेरे मन आनन्द।
मरने ही ते पाइये , पूरन परमानन्द। 

कबीर साहब के स्वर में स्वर मिलाकर एक फारसी का कवि कहता है ऽऽदौड़ना, चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना, और मरना यह दर्जे हैं, और इनके इतना ही हर ठहरने में आनन्द होता हैऽऽ। कवि का भाव यह है कि जब वह दौड़ता रहता है, और थक जाता है, तो चलने लगता है, क्यों? इसलिए कि दौड़ने से चलने में आनन्द है। जब किसी को चलने में थकान होती है, तब खड़ा हो जाता है, क्योंकि चलने से खड़े होने में कम मिहनत पड़ती है। 

इसलिए चलने से खड़े होने में आनन्द मिलता है। जब हम खड़े नहीं रह सकते, पैर दुखने लगते हैं, या जी नहीं चाहता कि खड़े रहें, तब हम बैठ जाते हैं, क्यों कि खड़े रहने से बैठने में आनन्द होता है। यही बात बैठे न रह सकने पर सोने में है। और जब हमने देख लिया कि दौड़ने से चलने में, चलने से खड़े होने में, खड़े रहने से बैठने में, और बैठने से सोने में आनन्द है, तो हमको यह मानना पड़ेगा, कि सोने से मरने में भी आनन्द है। क्योंकि जो बात अनुभव और युग से सिद्ध है, उसमें फिर कोई तर्क-वितर्क करने का स्थान नहीं रह जाता।

गीता और भागवत में जो कुछ मौत के विषय में लिखा है, उसमें यद्यपि खुली तौर पर यह नहीं कहा गया है, कि मौत भी आनन्द का साधन है। परन्तु यदि उन वचनों पर विचार किया जावेगा तो ज्ञात हो जावेगा कि कबीर साहब और फारसी के कवि ने जो कुछ कहा है, वह सर्वथा उसी की छाया है, क्योंकि जब हम पुराना कपड़ा उतारकर नया पहनेंगे, या पुरानी न काम देने योग्य देह छोड़कर नयी और काम की देह पावेंगे, तो यह कभी सम्भव नहीं है, कि हमको आनन्द न होवे। डॉक्टर लूइस ने भी इस बात को पूरी तरह से मान लिया है। इसलिए मौत क्या ठहरी। एक ऐसी दशा जिसमें आनन्द का अनुभव होता है।

कुछ लोग ऐसे हैं, जो जीव नहीं मानते, उनका बिचार है कि जैसे पान, सोपारी, खैर और चूना जब एक परिमित परिमाण में मिलते हैं, तो लाली अपने आप पैदा हो जाती है, उसी प्रकार पाँच तत्तव जब परिमित परिमाण में मिलते हैं, तो जीवन अपने आप बन जाता है। लाली पान सोपारी खैर, चूना से अलग कोई वस्तु नहीं है। वह एक छिपी दशा में पान, सोपारी, खैर, चूना में पहले ही से मौजूद रहती है, जब यह सब इकट्ठे होते हैं, तो वह उन्हीं में से प्रकट हो जाती है, कहीं अलग से नहीं आती, यही दशा पाँच तत्तव और जीव की भी है। जो लोग इस विचार के हैं, वे यह नहीं मानते कि जीव ज्यों एक देह को छोड़ता है, त्यों दूसरी देह में चला जाता है, वे कहते हैं कि जीव जब कोई अलग है ही नहीं, तो उसका आना जाना कैसा? 

जब तक देह में पाँच तत्तव इस ढंग से मिले रहते हैं, कि यह चल फिर सकती है, खा पी सकती है, सोच विचार सकती है, तभी तक जीवन है, अर्थात जीवन एक ऐसी अवस्था है, जो पाँच तत्तवों के ठीक-ठीक मिले रहने से होती है, जब पाँच तत्तवों का यह ढंग बिगड़ जाता है, और वह घट बढ़ जाते हैं, उस घड़ी उसकी वह पहली अवस्था नहीं रह जाती, जिसको हम जीवन कहते हैं, और इसी को हम लोग अपनी बोलचाल में मृत्यु कहकर पुकारते हैं। अर्थात मौत एक ऐसी अवस्था है, जो कि जीवन का उलटा है, और ऐसी दशा में किसी जीव को मानने की आवश्यकता नहीं रहती।

आप एक घड़ी को लीजिए और उसके कल पुर्जों को देखिए, जब तक कल पुरजे अपनी जगह पर ठीक-ठीक काम देते हैं, तब तक घड़ी चलती रहती है, उसकी सुइयाँ घूमती रहती हैं और घड़ी का सारा काम होता रहता है। पर जो इन कल पुरजों में कुछ भी अन्तर हुआ, और अपनी जगह पर ठीक-ठीक काम देने से वे चूके, तो समझिए घड़ी बिगड़ी और उसका सारा काम मिट्टी हुआ। इससे यह न समझना चाहिए कि कल पुरजों के सिवा उसमें कोई शक्ति ऐसी और थी जो घड़ी को चलाती थी, और उसका सारा काम पूरा करती थी, और उस शक्ति के निकल जाने से घड़ी बिगड़ी, और उसका कुल काम रुक गया। वरन उसके कल पुरजों का अपनी जगह पर रहना और उनका ठीक-ठीक काम देना ही उसकी शक्ति थी, सिवा इस शक्ति के उसमें और कोई शक्ति नहीं थी। 

यही दशा जीवन की है, इस तरह के विचार के लोग यही बतलाते हैं, वे कहते हैं कि ठीक घड़ी के कल पुरजों की दशा इस देह के कल पुरजों की भी है, जब तक पाँच तत्तव ठीक-ठीक अपनी जगह पर काम देते हैं, तब तक ये भी ठीक-ठीक चलते हैं, देह भी अपना सब काम ठीक-ठीक करती है, जहाँ पाँच तत्तव का सामंजस्य बिगड़ा, वहाँ देह के कल पुरजे भी बिगड़े और देह भी अपने समस्त कामों से रहित हुई। पर इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि देह में जीव नाम की कोई दूसरी शक्ति मौजूद थी और वह निकलकर किसी दूसरी जगह चली गयी, और इसी से देह का सारा काम बन्द हो गया, और आदमी मर गया। कई एक दूसरे धर्म वालों का विचार भी मृत्यु के बारे में ठीक ऐसा ही, या इससे कुछ मिलता-जुलता हुआ है, इससे उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी।

इस तरह के लोगों ने जैसा मृत्यु को बतलाया है, उससे भी मौत कोई डरावनी वस्तु नहीं ज्ञात होती। पाँच तत्वों के किसी परिमित परिमाण से मिलने पर एक पुतला बना था, वह पुतला उन तत्तवों के उस अवस्था को छोड़ देने से बिगड़ गया, उसका सब सामान फिर अपने मुख्य रूप में हो गया, हवा हवा में, मिट्टी मिट्टी में, आकाश आकाश में, पानी पानी में, और तेज तेज में मिल गया। फिर अब और चाहिए क्या? बँद समुद्र बन गयी, तेज सूर्य हो गया, परमाणु पृथ्वी हुआ, अंश अखिल बना, इससे बढ़कर और कौन आनन्द की बात होगी?

मंदिर जाने का वैज्ञानिक महत्व--


  1. - वैदिक पद्धति के अनुसार मंदिर वहां बनाना चाहिए जहां से पृथ्वी की चुम्बकीय तरंगे घनी हो कर जाती है.
  2. - इन मंदिरों में गर्भ गृह में देवता की मूर्ती ऐसी जगह पर स्थापित की जाती है.
  3. - इस मूर्ती के नीचे ताम्बे के पत्र रखे जाते है जो यह तरंगे अवशोषित करते है.
  4. - इस प्रकार जो व्यक्ति रोज़ मंदिर जा कर इस मूर्ती की घडी के चलने की दिशा में प्रदक्षिणा करता है वह इस एनर्जी को अवशोषित कर लेता है.
  5. - यह एक धीमी प्रक्रिया है और नियमित करने से व्यक्ति की सकारात्मक शक्ति का विकास होता है.
  6. - मंदिर तीन तरफ से बंद रहता है जिससे ऊर्जा का असर बढ़ता है.
  7. - मूर्ती के सामने प्रज्वलित दीप उष्मा की ऊर्जा का वितरण करता है.
  8. - घंटानाद से मन्त्र उच्चार से ध्वनी बनती है जो ध्यान केन्द्रित करती है.
  9. - समूह में मंत्रोच्चार करने से व्यक्तिगत समस्याएँ भूल जाती है.
  10. - फूलों , कर्पुर और धुप की सुगंध से तनाव से मुक्ति हो कर मानसिक शान्ति मिलती है.
  11. - तीर्थ जल मंत्रोच्चार से उपचारित होता है. चुम्बकीय ऊर्जा के घनत्व वाले स्थान में स्थित ताम्रपत्र को स्पर्श करता है और यह तुलसी कपूर मिश्रित होता है. इस प्रकार यह दिव्य औषधि बन जाता है.
  12. - तीर्थ लेते समय वयुमुद्रा बना ली जाती है. देने वाला भी मन्त्र उच्चारित करता है, फिर पिने के बाद हाथों को शिखा यानी सहस्त्रार , आँखों पर स्पर्श करते है.
  13. - मंदिर में जाते समय वस्त्र यानी सिर्फ रेशमी पहनने का चालान इसीसे शुरू हुआ क्योंकि ये उस ऊर्जा के अवशोषण में सहायक होते है.
  14. - मंदिर जाते समय महिलाओं को गहने पहनने चाहिए. धातु के बने ये गहने ऊर्जा अवशोषित कर उस स्थान और चक्र को पहुंचाते है जैसे गले , कलाई , सिर आदि .
  15. - नए गहनों और वस्तुओं को भी मंदिर की मूर्ती के चरणों से स्पर्श कराकर फिर उपयोग में लाने का रिवाज है जो अब हम समझ सकते है की क्यों है .
  16. - मंदिर का कलश पिरामिड आकृति का होता है जो ब्रम्हांडीय ऊर्जा तरंगों को अवशोषित कर उसके नीचे बैठने वालों को लाभ पहुंचाता है.
  17. - हर एक सामान्य व्यक्ति को उच्च वैज्ञानिक कारण समझ में आये ऐसा आवश्यक नहीं इसलिए हमारे सभी रीती रिवाज धर्म और बड़ों के आदेश के रूप में निभाये जाते है.

॥ जीव क्या साथ लाता - क्या ले जाता है ? ॥

तीन शरीर माने गए हैं । 

  1. स्थूल - जिस समय यह जीव जाग्रत अवस्था में रहता है , उस समय इसकी सिथ्ती स्थूल शरीर में रहती है । तब इसका संबंध पांच प्राणों सहित २४ तत्वों से रहता है । पांच महाभूत - 1 आकाश , 2.वायु , 3. अग्नि , 4. जल और 5. पृथ्वी । पांच ज्ञानेन्द्रियाँ - 1. कान , 2. त्वचा , 3. आँख , 4. जीभ , और 5. नाक । पांच कर्मेन्द्रियाँ - 1. वाणी , 2. हाथ , 3. पैर , 4. उपस्थ और 5. गुदा । पांच विषय - 1. शब्द , 2. स्पर्श , 3. रूप, 4. रस, और 5. गंध । मन , बुद्धि , अहंकार और मूल प्रकृति यही चौबीस तत्व हैं । प्राणवायु के अलग मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह वायु तत्व में शामिल है । भेद बतलाने के लिए ही प्राण ,अपान , समान , व्यान , उदान नामक वायु के पांच रूप माने गए हैं ।
  2. सूक्ष्म - स्वप्नावस्था में जीव की सिथती सूक्ष्म शरीर में रहती है । इसमें १७ तत्व माने गए हैं । पांच प्राण , पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , पांच विषय तथा मन और बुद्धि । इस सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत तीन कोष माने गए हैं - प्राणमय , मनोमय , और विज्ञानमय । पांच कोशों में स्थूल शरीर ऽ अन्नमय ऽ कोष है । प्राणमय कोष में पांच प्राण हैं । उसके अंदर मनोमय कोष है , इसमें मन और इन्द्रियाँ हैं । उसके अंदर विज्ञानमय [ बुद्धि रुपी ] कोष है , इसमें बुद्धि और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं , यही सत्रह तत्व हैं । स्वप्न में इस सूक्ष्म रूप का अभिमानी जीव ही पूर्वकाल में देखे - सुने पदार्थों को अपने अंदर सूक्ष्म रूप से देखता है ।
  3. कारण - जब इसकी सिथति कारण शरीर में होती है , तब अव्याकृत माया प्रकृति रुपी एक तत्व से इसका संबंध रहता है । इसीसे उस जीव को किसी बात का ज्ञान नहीं रहता । इसी गाढ निद्रावस्था को सुषुप्ति कहते हैं । माया सहित ब्रह्म में लय होने के कारण उस समय जीव का संबंध सुख से होता है । इसलिए इसीको ऽ आनंदमय ऽ कोष कहते हैं । इसीसे इस अवस्था से जागने पर यह कहता है की ऽ मैं बहुत सुख से सोया ऽ , उसे और किसी बात का ज्ञान नहीं रहता , यही अज्ञान है , इस अज्ञान का नाम ही माया - प्रकृति है । ऽ सुख से सोया ऽ इससे सिद्ध होता है की उसे आनंद का अनुभव था । परन्तु अज्ञान में रहने के कारण , सुख रूप ब्रह्म में सिथत होने पर भी जीव को ज्यों -का त्यों लौट आना पड़ता है । स्थूल शरीर से निकलकर जब यह जीव बाहर जाता है , तब प्राणमय कोश वाला सत्रह तत्वों का सूक्ष्म शरीर इसमें से निकलकर अन्य शरीर में जाता है । भगवान ने कहा है - इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमई माया में सिथत पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है । जैसे गंध के स्थान से वायु गंध को ग्रहण करके ले जाता है , वैसे ही देहादी का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है , उससे मन सहित इन इन्द्रियों को ग्रहण करके , फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है , उसमें जाता है । प्राणवायु ही उसका शरीर है , उसके साथ प्रधानता से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और छठा मन [ अंत:कर्ण ] जाता है, इसीका विस्तार सत्रह तत्व है । यही सत्तरह तत्वों का शरीर शुभ- असुभ कर्मों के संस्कार के सहित जीव के साथ जाता है । 
  4. प्रलय -काल में जीवों के सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में , संस्कारों सहित मिल जाते हैं और सृष्टि के आदि में उसीके द्वारा पुन: इनकी रचना हो जाती है। महाप्रलय में ब्रह्मा सहित सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के शांत होने पर , शांत हो जाते हैं , उस समय एक मूल प्रकृति रहती है , जिसको अव्याकृत माया कहते हैं । उसी महाकारन में जीवों के समस्त कारण -शरीर संस्कारों सहित लीन हो जाते हैं । तब महासर्ग [ सृष्टि के आदि में ] में स्वयम भगवान पुन: सृष्टि की रचना करते हैं । अर्थात परमात्मारूप अधिष्ठाता के अधीन प्रकृति ही चराचर सहित इस जगत को रचती है , इसी तरह यह संसार आवागमन रूप चक्र में घूमता रहता है, महाप्रलय में पुरुष और उसकी शक्तिरूपा प्रकृति , यह दो ही व्स्तुवें रह जाती हैं , उस समय जीवों का प्रकृति सहित पुरुष में लय हूवा रहता है और सृष्टि के आदि में उनका पुन्रुथान होता है । 

मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम


श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियाँ थीं। प्रत्येक पत्नी से उन्होंने  दस दस पुत्र प्राप्त किये थे। इस प्रकार उनके समस्त पुत्रों की गिनती एक लाख इकसठ हजार अस्सी थी। उनके सभी पुत्रों का नाम बताना तो संभव नहीं है लेकिन उनकी आठ मुख्य रानियों के पुत्रों के नाम नीचे दिए हैं।
  1. रुक्मिणी: प्रधुम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू।
  2. सत्यभामा: भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।
  3. जाम्बवंती: साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु।
  4. सत्या: वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुन्ति।
  5. कालिंदी: श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक।
  6. लक्ष्मणा: प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित।
  7. मित्रविन्दा: वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि।
  8. भद्रा: संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।

कालचक्र

पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के नाभि कमल से उत्पन ब्रम्हा की आयु १०० दिव्य वर्ष मानी गयी है. पितामह ब्रम्हा के प्रथम ५० वर्षों को पूर्वार्ध एवं अगले ५० वर्षों को उत्तरार्ध कहते हैं. 

सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग को मिलकर एक महायुग कहते हैं. ऐसे १००० महायुगों का ब्रम्हा का एक दिन होता है. इसी प्रकार १००० महायुगों का ब्रम्हा की एक रात्रि होती है. अर्थात परमपिता ब्रम्हा का एक पूरा दिन २००० महायुगों का होता है. 

ब्रम्हा के १००० दिनों का भगवान विष्णु की एक घटी होती है. भगवान विष्णु की १२००००० (बारह लाख) घाटियों की भगवान शिव की आधी कला होती है. महादेव की १००००००००० (एक अरब) अर्ध्कला व्यतीत होने पर १ ब्रम्हाक्ष होता है.

अभी ब्रम्हा के उत्तरार्ध का पहला वर्ष चल रहा है (ब्रम्हा का ५१ वा वर्ष). 

ब्रम्हा के एक दिन में १४ मनु शाषण करते हैं:
1. स्वयंभू 2. स्वरोचिष 3. उत्तम 4. तामस  5. रैवत 6. चाक्षुष 7. वैवस्वत  8. सावर्णि  9. दक्ष  10. सावर्णि 
11. ब्रम्हा  सावर्णि 12.धर्म  सावर्णि  13.रूद्र  सावर्णि  14. देव  सावर्णि 15. इन्द्र सावर्णि
इस प्रकार ब्रम्हा के द्वितीय परार्ध (५१ वे) वर्ष के प्रथम दिन के छः मनु व्यतीत हो गए है और सातवे वैवस्वत मनु का अठाईसवा (२८) युग चल रहा है. इकहत्तर (७१) महायुगों का एक मनु होता है. १४ मनुओं का १ कल्प कहा जाता है जो की ब्रम्हा का एक दिन होता है. आदि में ब्रम्हा कल्प और अंत में पद्मा कल्प होता है. इस प्रकार कुल ३२ कल्प होते हैं. ब्रम्हा के परार्ध में रथन्तर तथा उत्तरार्ध में श्वेतवराह कल्प होता है. इस समय श्वेतवराह कल्प चल रहा है. इस प्रकार ब्रम्हा के १ दिन (कल्प) ४०००३२००००००० (चार लाख बतीस "करोड़") मानव वर्ष के बराबर है जिसमे १४ मवंतर होते है. चार युगों का एक महायुग होता है:

सतयुग: सतयुग का काल १७२८००० (सत्रह लाख अठाईस हजार) वर्षों का होता है. इस युग में चार अमानवीय अवतार हुए. मत्स्यावतार, कुर्मावतार, वराहावतार एवं नरिसिंघवातर. सतयुग में पाप ० भाग तथा पुण्य २० भाग था. मनुष्यों की आयु १००००० वर्ष, उचाई २१ हाथ, पात्र स्वर्णमय, द्रव्य रत्नमय तथा ब्रम्हांडगत प्राण था. पुष्कर तीर्थ, स्त्रियाँ पद्मिनी तथा पतिव्रता थी. सूर्यग्रहण ३२००० तथा चंद्रग्रहण ५००० बार होते थे. सारे वर्ण अपने धर्म में लीन रहते थे. ब्राम्हण ४ वेद पढने वाले थे.
त्रेतायुग: त्रेतायुग का काल १२९६००० (बारह लाख छियान्व्वे हजार) वर्षों का होता है. इस युग में तीन मानवीय अवतार हुए. वामन, परशुराम एवं राम. त्रेता में पाप ५ भाग एवं पुण्य १५ भाग होता था. मनुष्यों की आयु १०००० वर्ष, उचाई १४ हाथ, पात्र चांदी के, द्रव्य स्वर्ण तथा अस्थिगत प्राण था. नैमिषारण्य तीर्थ, स्त्रियाँ पतिव्रता होती थी.  सूर्यग्रहण ३२०० तथा चंद्रग्रहण ५०० बार होते थे. सारे वर्ण अपने अपने कार्य में रत थे. ब्राम्हण ३ वेद पढने वाले थे.
द्वापर युग: द्वापर युग का काल ८६४००० (आठ लाख चौसठ हजार) वर्षों का होता है. इस युग में २ मानवीय अवतार हुए. कृष्ण एवं बुद्ध. इस युग में पाप १० भाग एवं पुण्य १० भाग का होता था. मनुष्यों की आयु १००० वर्ष, उचाई ७ हाथ, पात्र ताम्र, द्रव्य चांदी तथा त्वचागत प्राण था. स्त्रियाँ शंखिनी होती थी. सूर्यग्रहण ३२० तथा चंद्रग्रहण ५० हुए. वर्ण व्यवस्था दूषित थी तथा ब्राम्हण २ वेद पढने वाले थे.
कलियुग: कलियुग का काल ४३२००० (चार लाख ३२ हजार) वर्षों का होता है. इस युग में एक अवतार संभल देश, गोड़ ब्राम्हण विष्णु यश के घर कल्कि नाम से होगा. इस युग में पाप १५ भाग एवं पुण्य ५ भाग होगा. मनुष्यों की आयु १०० वर्ष, उचाई ३.५ हाथ, पात्र मिटटी, द्रव्य ताम्र, मुद्रा लौह, गंगा तीर्थ तथा अन्नमय प्राण होगा. कलियुग के अंत में गंगा पृथ्वी से लीन हो जाएगी तथा भगवान विष्णु धरती का त्याग कर देंगे. सभी वर्ण अपने कर्म से रहित होंगे तथा ब्राम्हण केवल एक वेद पढने वाले होंगे अर्थात ज्ञान का लोप हो जाएगा.