शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

॥ जीव क्या साथ लाता - क्या ले जाता है ? ॥

तीन शरीर माने गए हैं । 

  1. स्थूल - जिस समय यह जीव जाग्रत अवस्था में रहता है , उस समय इसकी सिथ्ती स्थूल शरीर में रहती है । तब इसका संबंध पांच प्राणों सहित २४ तत्वों से रहता है । पांच महाभूत - 1 आकाश , 2.वायु , 3. अग्नि , 4. जल और 5. पृथ्वी । पांच ज्ञानेन्द्रियाँ - 1. कान , 2. त्वचा , 3. आँख , 4. जीभ , और 5. नाक । पांच कर्मेन्द्रियाँ - 1. वाणी , 2. हाथ , 3. पैर , 4. उपस्थ और 5. गुदा । पांच विषय - 1. शब्द , 2. स्पर्श , 3. रूप, 4. रस, और 5. गंध । मन , बुद्धि , अहंकार और मूल प्रकृति यही चौबीस तत्व हैं । प्राणवायु के अलग मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह वायु तत्व में शामिल है । भेद बतलाने के लिए ही प्राण ,अपान , समान , व्यान , उदान नामक वायु के पांच रूप माने गए हैं ।
  2. सूक्ष्म - स्वप्नावस्था में जीव की सिथती सूक्ष्म शरीर में रहती है । इसमें १७ तत्व माने गए हैं । पांच प्राण , पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , पांच विषय तथा मन और बुद्धि । इस सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत तीन कोष माने गए हैं - प्राणमय , मनोमय , और विज्ञानमय । पांच कोशों में स्थूल शरीर ऽ अन्नमय ऽ कोष है । प्राणमय कोष में पांच प्राण हैं । उसके अंदर मनोमय कोष है , इसमें मन और इन्द्रियाँ हैं । उसके अंदर विज्ञानमय [ बुद्धि रुपी ] कोष है , इसमें बुद्धि और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं , यही सत्रह तत्व हैं । स्वप्न में इस सूक्ष्म रूप का अभिमानी जीव ही पूर्वकाल में देखे - सुने पदार्थों को अपने अंदर सूक्ष्म रूप से देखता है ।
  3. कारण - जब इसकी सिथति कारण शरीर में होती है , तब अव्याकृत माया प्रकृति रुपी एक तत्व से इसका संबंध रहता है । इसीसे उस जीव को किसी बात का ज्ञान नहीं रहता । इसी गाढ निद्रावस्था को सुषुप्ति कहते हैं । माया सहित ब्रह्म में लय होने के कारण उस समय जीव का संबंध सुख से होता है । इसलिए इसीको ऽ आनंदमय ऽ कोष कहते हैं । इसीसे इस अवस्था से जागने पर यह कहता है की ऽ मैं बहुत सुख से सोया ऽ , उसे और किसी बात का ज्ञान नहीं रहता , यही अज्ञान है , इस अज्ञान का नाम ही माया - प्रकृति है । ऽ सुख से सोया ऽ इससे सिद्ध होता है की उसे आनंद का अनुभव था । परन्तु अज्ञान में रहने के कारण , सुख रूप ब्रह्म में सिथत होने पर भी जीव को ज्यों -का त्यों लौट आना पड़ता है । स्थूल शरीर से निकलकर जब यह जीव बाहर जाता है , तब प्राणमय कोश वाला सत्रह तत्वों का सूक्ष्म शरीर इसमें से निकलकर अन्य शरीर में जाता है । भगवान ने कहा है - इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमई माया में सिथत पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है । जैसे गंध के स्थान से वायु गंध को ग्रहण करके ले जाता है , वैसे ही देहादी का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है , उससे मन सहित इन इन्द्रियों को ग्रहण करके , फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है , उसमें जाता है । प्राणवायु ही उसका शरीर है , उसके साथ प्रधानता से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और छठा मन [ अंत:कर्ण ] जाता है, इसीका विस्तार सत्रह तत्व है । यही सत्तरह तत्वों का शरीर शुभ- असुभ कर्मों के संस्कार के सहित जीव के साथ जाता है । 
  4. प्रलय -काल में जीवों के सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में , संस्कारों सहित मिल जाते हैं और सृष्टि के आदि में उसीके द्वारा पुन: इनकी रचना हो जाती है। महाप्रलय में ब्रह्मा सहित सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के शांत होने पर , शांत हो जाते हैं , उस समय एक मूल प्रकृति रहती है , जिसको अव्याकृत माया कहते हैं । उसी महाकारन में जीवों के समस्त कारण -शरीर संस्कारों सहित लीन हो जाते हैं । तब महासर्ग [ सृष्टि के आदि में ] में स्वयम भगवान पुन: सृष्टि की रचना करते हैं । अर्थात परमात्मारूप अधिष्ठाता के अधीन प्रकृति ही चराचर सहित इस जगत को रचती है , इसी तरह यह संसार आवागमन रूप चक्र में घूमता रहता है, महाप्रलय में पुरुष और उसकी शक्तिरूपा प्रकृति , यह दो ही व्स्तुवें रह जाती हैं , उस समय जीवों का प्रकृति सहित पुरुष में लय हूवा रहता है और सृष्टि के आदि में उनका पुन्रुथान होता है । 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें