गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

पश्चिम की कुरीतियाँ अब भारत में

मैने बचपन से ही अपने माता-पिता और दादा-दादी से सदाचार संस्कार की शिक्षा पाई जो मुझे अब तक उसी राह पर चलने को प्रेरित कर रहा है। बचपन में ही यदि संस्कार के वीज बच्चे के मन में डाल दिये जाएँ तो बड़े होने पर बच्चे को उसका लाभ अवश्य मिलता है । 

मैं एक छोटे गांव से हूँ पर इस समय मुम्ब​ई में हूँ और मुम्ब​ई पश्चिम सभ्यता के करीब माना जाता है । इसके दो कारण हैं, 1. फ़िल्म सिटी, 2. पश्चिम का तट । यहाँ की फ़िल्मी दुनियाँ वैसी नहीं है जो हमें परदे पर परोसती है मुम्ब​ई में न तो अच्छे लोगों की कमी है न ही बुरे लोगों की यहाँ बुरे वे हैं जो अपने घर से माता-पिता के बन्धनों से आज़ाद हैं, ज़िन्हें न कोई डाटने वाला है और न कोई समझाने वाला । दूर गांव से पड़ने, कमाने और हीरो बनने के लिए आने बाले बच्चे सबसे पहले ख़ुदको बम्बैया कल्चर में ढालना पसंद करते हैं । 

मैंने यहाँ वह भी देखा जो शायद पर्दों में भी नहीं दिखाया जाता और यदि दिखाया भी गया हो तो मैं पर्दे पर कभी नहीं देखा । यहाँ लड़के लड़कियों में कोई अन्तर नहीं है। मेरे गांव में एक बूढी दादी बिड़ी पिया करती थी यह उसकी लत ही थी । पर वह पूरे गांव में चर्चित थी पर यहाँ क​ई बूढी तो नहीं पर 17 से 35 वर्ष तक महिलाएँ खुले में सिगरेट शराब पीती नजर आ ही जाती हैं। गलबहियाँ डाले न तो शर्म न हया अपनी मस्ती में मस्त हर गली चौक में नज़र आते हैं ।

आये दिन अख्बार में यही देखने को मिलता है उस लड़की को एक लड़के ने धोका दिया, उसका मर्डर किया, यहाँ के लिए यह सब आम बात है। पर क्या यही हमारा भारत है, क्या यही हमारी संस्कृती है। सनातन धर्म का संस्कार सकल विश्व में चर्चित है जिसे देखने लोग आते हैं और वे यहाँ उस संस्कार उस सभ्यता को देखना तो दूर उसे लोगों के अन्दर शूँघने में भी नहीं पाते यह कैसी विडम्बना है, कुछ कह नहीं सकते ।

कर्म का फल प्रत्यक्ष​

बचपन में मैने सुना था तब से जब कभी भी कहीं चींटियों को रात- दिन काम करते देखा करता हूँ, अफसोश की चींटि नहीं मैं ही उन्हें देख थक जाता हूँ । सचमुच अपने भार से भी कहीं गुना बोझ लिए चींटियाँ पर्वतों से भी विकट चढाई को चढ जातीं हैं । इसमें तनिक भी संदेह नहीं की वो दीवार की चढाईयों चढते वक्त कितनी बार गिर जाया करती हैं पर उनका विश्वास और उनकी ज़िद चीटियों तक ही नहीं हम मनाव समाज तक चर्चित  है। अथक परिश्रम का प्रतीक बन चुकी चींटियाँ मानव समाज को एक शिक्षा ही दे रहीं हैं, परन्तु आज भी लोग मुफ़्त का खाना ज्यादा पसंद करते हैं । 

समाज में दो वर्ग के लोग हैं, एक जो आपको अच्छा मानते हैं और दूसरे वो जो आपको अच्छा बनने नहीं देना चाहते, जिस तरह वे गिरे हुए हैं उसी जगह पर आपको भी देखना चाहते हैं । परन्तु हम किसके पक्ष में हैं यह तो स्वयं हम ही जानते हैं । फिर हम जानते हुए भी अच्छा नहीं बन पाते और न ही प्रयास कर पाते हैं, इसका मात्र एक ही कारण है और वह आत्मविश्वास की कमी, चींटियों का आत्मविश्वास देखो ।  वह जानती है कि वह जो कार्य कर रही है उसमें कठिनाई है पर असम्भव नहीं और वह अपने कर्म से अपने ज़िद को पूरा कर जाती है।