गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

भारत और भारतीय संवत

भारत एक बहुसभ्यता व संस्कृति से समन्वित देश है, आज यहाँ अनेकों भाषा, अनेकों संप्रदाय, या यूं कहें कई मजहब के लोग रहते हैं। इस भारत भूमि ने क्या कुछ नहीं देखा, कितने डकैत, लुटेरे यहाँ आए इसे लूटा और अपनी सभ्यता छोड़ चले गए।

पर यह भारत और यहाँ की सभ्यता आहत अवश्य हुई पर मिटी नहीं। भारत में सनातन संस्कृति सबसे पुरानी है, इसलिए हमारा संवत्सर सभी मजहबों से पुराना है। आपको स्मरण रहे की ईसा से सन ईसवी और हज़रत मुहम्मद से हिजरी को जोड़ा जाता है।

पूरे विश्व में जब किसी समाज मात्र पर कोई घटना घटती है तो उस घटना को स्मरण में रखने के लिए उस समाज का अधिनायक अपने नाम पर संवत चलाया करते थे। संवत से तात्पर्य प्रारंभिक काल या समय की जानकारी से है।

आज हम 2018-19 ईस्वी में जीवन जी रहे हैं, इसी प्रकार आप देखें तो आज हिजरी 1440-41 है। इसका सीधा अर्थ यह की हिजरी संवत से ईस्वी संवत 578 वर्ष पुराना है। इसी प्रकार ईस्वी से विक्रम संवत 57 वर्ष पहले का है अर्थात अभी विक्रम संवत 2074 चल रहा है। 18 मार्च अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से विक्रम संवत 2075 हो जाएगा।

परन्तु हमारे भारतीय काल-गणना में कल्प, मन्वन्तर, युग आदि के पश्चात् संवत्सर का नाम आता है। युग भेद से सत युग में ब्रह्म-संवत, त्रेता में वामन-संवत, परशुराम-संवत (सहस्त्रार्जुन-वध से) तथा श्री राम-संवत (रावण-विजय से), द्वापर में युधिष्ठिर-संवत और कलि में विक्रम, विजय, नागार्जुन और कल्कि के संवत प्रचलित हुए या होंगे।

ज्योतिर्विदाभरण में कलियुग के 6 व्यक्तियों के नाम आए हैं, जिन्होंने संवत चलाये थे, यथा-
1.युधिष्ठर
2.विक्रम
3.शालिवाहन
4.विजयाभिनन्दन
5.नागार्जुन
6.कल्की

संवत के प्रकार
पाँच संवतों के नाम हैं, यथा -
1.श्रीहर्ष,
2.विक्रमादित्य,
3.शक,
4.वल्लभ एवं
5.गुप्त संवत।

प्राचीन काल में भी कलियुग के आरम्भ के विषय में विभिन्न मत रहे हैं। आधुनिक मत है कि कलियुग ई. पू. 3102 में आरम्भ हुआ। इस विषय में चार प्रमुख दृष्टिकोण हैं-

1.युधिष्ठर ने जब राज्य सिंहासनारोहण किया।

2.यह 36 वर्ष उपरान्त आरम्भ हुआ जब कि युधिष्ठर ने अर्जुन के पौत्र परीक्षित को राजा बनाया।

3.पुराणों के अनुसार कृष्ण के देहावसान के उपरान्त यह आरम्भ हुआ।

4.वराहमिहिर के मत से युधिष्ठर-संवत का आरम्भ शक-संवत के 2426 वर्ष पहले हुआ, अर्थात दूसरे मत के अनुसार, कलियुग के 653 वर्षों के उपरान्त प्रारम्भ हुआ।

शास्त्रों में इस प्रकार भूत एवं वर्तमान काल के संवतों का वर्णन तो है ही, भविष्य में प्रचलित होने वाले संवतों का वर्णन भी है। इन संवतों के अतिरिक्त अनेक राजाओं तथा सम्प्रदायाचार्यों के नाम पर संवत चलाये गये हैं। भारतीय संवतों के अतिरिक्त विश्व में और भी धर्मों के संवत हैं। तुलना के लिये उनमें से प्रधान-प्रधान की तालिका दी जा रही है- वर्ष ईस्वी सन 1949 को मानक मानते हुए निम्न गणना की गयी है।

भारतीय-संवत
क्र0सं0   नाम                    वर्तमान वर्ष
1       कल्पाब्द               1,97,29,49,118
2       वामन-संवत।         1,96,08,89,118
3       सृष्टि-संवत।           1,95,58,85,118
4       श्रीराम-संवत               1,25,69,118
5       श्रीकृष्ण संवत                       5,243
6       युधिष्ठिर संवत                       5,118
7       बौद्ध संवत                           2,592
8      महावीर (जैन) संवत                2,544
9      श्रीशंकराचार्य संवत                 2,297
10    विक्रम संवत                          2,074
11    शालिवाहन संवत                    1,939
12    कलचुरी संवत।                      1,7699
13    वलभी संवत                          1,697
14    फ़सली संवत                          1,420
15    बँगला संवत  बी।                     1,324
16    हर्षाब्द संवत।                          1,410
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बुधवार, 20 दिसंबर 2017

हमारी संस्कृति हमारी विरासत

कलेंडर बदलिए अपनी संस्कृति नही।
अपनी संस्कृति की झलक को अवश्य पढ़ें और साझा करें ।।
1 जनवरी को क्या नया हो रहा है ?????

* न ऋतु बदली.. न मौसम
* न कक्षा बदली... न सत्र
* न फसल बदली...न खेती
* न पेड़ पौधों की रंगत
* न सूर्य चाँद सितारों की दिशा
* ना ही नक्षत्र।।
1 जनवरी आने से पहले ही सब नववर्ष की बधाई देने लगते हैं। मानो कितना बड़ा पर्व हो।
नया केवल एक दिन ही नही
कुछ दिन तो नई अनुभूति होनी ही चाहिए। आखिर हमारा देश त्योहारों का देश है।
ईस्वी संवत का नया साल 1 जनवरी को और भारतीय नववर्ष (विक्रमी संवत) चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है। आईये देखते हैं दोनों का तुलनात्मक अंतर:

1. प्रकृति-
एक जनवरी को कोई अंतर नही जैसा दिसम्बर वैसी जनवरी.. वही चैत्र मास में चारो तरफ फूल खिल जाते हैं, पेड़ो पर नए पत्ते आ जाते हैं। चारो तरफ हरियाली मानो प्रकृति नया साल मना रही हो I

2. मौसम,वस्त्र-

दिसम्बर और जनवरी में वही वस्त्र, कंबल, रजाई, ठिठुरते हाथ पैर.. लेकिन
चैत्र मास में सर्दी जा रही होती है, गर्मी का आगमन होने जा रहा होता है I

3. विद्यालयो का नया सत्र-
दिसंबर जनवरी मे वही कक्षा कुछ नया नहीं..
जबकि मार्च अप्रैल में स्कूलो का रिजल्ट आता है नई कक्षा नया सत्र यानि विद्यालयों में नया साल I

4. नया वित्तीय वर्ष-

दिसम्बर-जनबरी में कोई खातो की क्लोजिंग नही होती.. जबकि 31 मार्च को बैंको की (audit) क्लोजिंग होती है नए बही खाते खोले जाते है I सरकार का भी नया सत्र शुरू होता है I

5. कलैण्डर-

जनवरी में नया कलैण्डर आता है..
चैत्र में नया पंचांग आता है I उसी से सभी भारतीय पर्व, विवाह और अन्य महूर्त देखे जाते हैं I इसके बिना हिन्दू समाज जीवन की कल्पना भी नही कर सकता इतना महत्वपूर्ण है ये कैलेंडर यानि पंचांग I

6. किसानो का नया साल-

दिसंबर-जनवरी में खेतो में वही फसल होती है..
जबकि मार्च-अप्रैल में फसल कटती है नया अनाज घर में आता है तो किसानो का नया वर्ष और उत्साह I

7. पर्व मनाने की विधि-

31 दिसम्बर की रात नए साल के स्वागत के लिए लोग जमकर शराब पीते है, हंगामा करते है, रात को पीकर गाड़ी चलने से दुर्घटना की सम्भावना, रेप जैसी वारदात, पुलिस प्रशासन बेहाल और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का विनाश..

जबकि भारतीय नववर्ष व्रत से शुरू होता है पहला नवरात्र होता है घर घर मे माता रानी की पूजा होती है I शुद्ध सात्विक वातावरण बनता है I

8. ऐतिहासिक महत्त्व-

1 जनवरी का कोई ऐतिहासिक महत्व नही है..
जबकि चैत्र प्रतिपदा के दिन महाराज विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत् की शुरुआत, भगवान झूलेलाल का जन्म, नवरात्रे प्रारंम्भ, ब्रम्हा जी द्वारा सृष्टि की रचना इत्यादि का संबंध इस दिन से है I

एक जनवरी को अंग्रेजी कलेंडर की तारीख और अंग्रेज मानसिकता के लोगो के अलावा कुछ नही बदला..
अपना नव संवत् ही नया साल है I

जब ब्रह्माण्ड से लेकर सूर्य चाँद की दिशा, मौसम, फसल, कक्षा, नक्षत्र, पौधों की नई पत्तिया, किसान की नई फसल, विद्यार्थीयों की नई कक्षा, मनुष्य में नया रक्त संचरण आदि परिवर्तन होते है। जो विज्ञान आधारित है I

अपनी मानसिकता को बदले I विज्ञान आधारित भारतीय काल गणना को पहचाने। स्वयं सोचे की क्यों मनाये हम 1 जनवरी को नया वर्ष..???

"एक जनवरी को कैलेंडर बदलें.. अपनी संस्कृति नहीं"
आओ जागेँ जगायेँ, भारतीय संस्कृति अपनायेँ और आगे बढ़े I

।।जय श्री राम जय सनातन धर्म।।
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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

जाति व्यवस्था

प्रश्न 👉 जातिव्यवस्था इन्सान के द्वारा बनाई गयी हे या ईश्वर के द्वारा ?

उत्तर 👉  निश्चित रूप से ईश्वर द्वारा बनाई गयी है !

प्रश्न 👉 क्या इसे तर्क के द्वारा समझा सकते हे ?

उत्तर 👉 हां क्यों नहीं बिलकुल समझा सकता हूँ !

प्रश्नकर्ता 👉 लेकिन न तो मुझे संस्कृत का ज्ञान हे ना ही में शास्त्रों का ज्ञाता हु, हा अंग्रेजी से मैंने ऍम.ए .किया है !

उत्तर 👉 कोई बात नहीं संस्कृत ,या शास्त्रों का ज्ञान नहीं होगा चलेगा किन्तु कॉमनसेंस होना जरुरी है!

प्रश्नकर्ता 👉 जी वो तो है !

उत्तर 👉 अब हम शुरुआत करते हे ,कृपया बताए कि इस पृथ्वी पर कितने प्रकार के जीव रहते है?

प्रश्नकर्ता 👉 मनुष्य ,पशु ,पक्षी जलचर ,पेड़, पोधे इत्यादि !

उत्तर 👉 बिलकुल सही अब एक बात बताओ पशु कहने से सभी पशु शेर हो गए क्या........ ,पक्षी कहने से सभी पक्षी तोता हो गए क्या... ,जलचर कहने से सभी शार्क मछली हो गए क्या ,पेड़ कहने से सभी आम हो गए क्या ?

प्रश्नकर्ता 👉 नहीं...... शेर जानवरों की जाति है.., तोता पक्षियों की जाति हे,... और आम पेड़ की जाति है !

उत्तर : तो क्या इन्हें इन्सान ने बनाया है ?

प्रश्नकर्ता 👉 नहीं.....ये तो ईश्वर की बनाई व्यवस्था है।

उत्तर 👉 ठीक उसी प्रकार मनुष्य कहने से सभी ब्राह्मण हो गए क्या ? नहीं..... ये तो मनुष्यों की जाति व्यवस्था हे जो की ईश्वर द्वारा बनाई गयी हे जैसे जानवर शब्द से हजारो जानवरों का होना समझा जाता हे पक्षी शब्द से हजारो प्रकार के पक्षी होने का बोध होता हे फल शब्द से हजारो प्रकार के फलो का होना सुनिश्चित होता है उसी प्रकार मनुष्य शब्द से हजारो प्रकार के मनुष्यों का होना सिद्ध होता है। साथ ही साथ इन सभी की जाति के साथ साथ प्रजाति का होना भी पाया जाता है, और सुनो जातिव्यवस्था केवल इन्सान के लिए ही नहीं अपितु यह संसार अनेक प्रकार की विविधताओ से भरा पड़ा है !आप स्वयं देखिये आम की कितनी प्रजातिया होती हे...नीम की कितनी प्रजाति होती हे...शेर की जाति प्रजाति...बन्दर ,घोडा ,तोता ,सर्प ,गेंहू चना चावल इत्यादि !अतः अब आप ही बताए कि इसमें इन्सान द्वारा जातिव्यवस्था का निर्धारण करना कहा सिद्ध होता है !

प्रश्नकर्ता 👉 मै आपकी बात से सहमत हूँ कृपया आप जाति व्यवस्था के विज्ञानं को सरल भाषा में विस्तार से समझाने का कष्ट करे !

उत्तर 👉 ब्रम्हाजी ने स्रष्टि रचना के समय अपने मुख से ब्राह्मण को उत्पन्न किया ,भुजाओ से क्षत्रियो को उत्पन्न किया ,अपने उदर से वेश्यो को प्रकट किया तथा अपने चरणों से शुद्रो की उत्पत्ति की.....आर्थात मुख से मेधाशक्ति .भुजाओ से रक्षाशक्ति ,उदर से अर्थशक्ति ,एवं चरणों से श्रमशक्ति को उत्पन्न किया। .इसका अर्थ यह हुआ की ब्राह्मणों के पास जो शक्ति हे उसका सम्बन्ध सिर से हे यानि ब्राह्मण के पास देखने, सुनने बोलने बताने सूंघने तथा किसी को भी खा जाने की शक्ति होती है।

प्राचीन काल में किसी भी राज्य में जो राजा होता था वह मार्गदर्शक के रूप में किसी ब्राह्मण को जरुर नियुक्त करता था तथा उन्ही के परामर्श से अपनी प्रजा का पालन करता था क्योकि वह जानता था की मेरे पास शक्ति हे ज्ञान नहीं, क्षत्रियो को भुजाओ से उत्पन्न किया तो स्वाभाविक हे की उनके पास भुजाओ का बल अत्यधिक पाया जाता हे और किसी भी राज्य की रक्षा का दायित्व क्षत्रियो का होता है।

उसी प्रकार वेश्यो की उत्पत्ति उदर से हुई तो उनके पास संग्रह तथा वितरण की कुशलता पाई जाती हे यही उसकी शक्ति का आधार है ,ठीक उसी प्रकार शुद्रो को पैरो से उत्पन्न किया याने शुद्रो के पास श्रम शक्ति होती जो श्रम वे कर सकते है वह अन्य कोई वर्ण या जाती का व्यक्ति नहीं कर सकता इसीलिए भगवान् कहते हे सभी की धर्मो सिद्धि का मूल सेवा है...... सेवा किये बिना किसी का भी धर्म सिद्ध नहीं होता अतः सब धर्मो की मुलभुत सेवा ही जिसका धर्म है... वह शुद्र सब वर्णों में महान हे.. ब्राह्मण का धर्म मोक्ष के लिए हे.. ,क्षत्रिय का धर्म भोग केलिए...,वेश्य का धर्म अर्थ के लिए है... ,और शुद्र का धर्म -धर्म के लिए है।

इस प्रकार अन्य तीन वर्णों के धर्म अन्य तीन पुरषार्थ के लिए है किन्तु शुद्र का धर्म स्व पुरषार्थ के लिए है अतः इसकी वृति से ही भगवन प्रसन्न हो जाते है अस्तु अब आगे सुनिए यह जो ब्रम्हाजी की स्रष्टि हे यह भगवान का शारीर ही हे इसी में सारा ब्रम्हाण्ड बसा हुआ हे सारे लोक इसी शारीर में है !

यह विराट शारीर ही हमारा संसार हे !अब आप बताइए की किस किस अंग से कोन सा कार्य होता है......... सिर का कार्य हाथो द्वारा संभव है... ,नहीं....हाथो का कार्य उदर द्वारा संभव है, नहीं......उदर का कार्य पैरो द्वारा संभव है, नहीं जातिगत व्यवस्था को कदाचित भंग कर दिया जाए तो क्या स्थिति उत्पन्न होगी विचार कीजिए। विचार क्या कीजिए अरे देख ही लीजिए वर्तमान में जो शिक्षा पद्धति व् जीविका पद्धति हमारे ऊपर थोपी गयी है उसका परिणाम क्या हो रहा है वर्णसंकरता, कर्मसंकरता और ऊपर से आरक्षण... हमारे यहाँ कभी भी किसी के लिए भी रोजी रोटी का संकट था क्या ?कभी नहीं प्रत्येक व्यक्ति अपनी जाती तथा वर्ण के अनुसार अपना जीवन यापन करता था !

कोई भी किसी के कर्म का अतिक्रमण नहीं कर सकता था अपितु एक दुसरे के सामंजस्य से सारे कार्य होते थे। कोई भी समाज अपने को हिन् नहीं समझता था ! प्रत्येक समाज अपनी जाति पर गर्व महसूस करता था क्योकि वो जानते थे की जो गुण योग्यता उनमे है वह अन्य के पास नहीं है यह ईश्वर का उस समाज के लिए वरदान हुआ या नहीं ?

अब मै आपको दुसरे रूप में समझाता हु। कल्पना कीजिए कि आप स्वयं भगवान् विराट है यह शारीर जो आपको प्राप्त हुआ है यह आपका संसार है और इस शारीर के मालिक या भगवान आप है एवं इस संसार में आपको मुख के रूप में ब्राह्मण ,भुजाओ के रूप में क्षत्रिय ,उदर के रूप में वेश्य ,और पैरो के रूप में शुद्र, प्राप्त हुए है ! अब इनसे आपको इस संसार रूपी शारीर का संचालन करना हे कैसे करेंगे ?

अब आप कहे की मै जातिव्यवस्था में विश्वास नहीं करता बल्कि सबको सामान दृष्टि से देखता हु... कोई ब्राह्मण नहीं ,कोई क्षत्रिय नहीं ,कोई वेश्य नहीं ,कोई शुद्र नहीं ,आर्थात सभी अंगो को सामान मानता हु किसी भी अंग से कोई भी कार्य करा सकता हु और तो और अब मै अपने चरणों को यानि की शुद्रो को मुख्य धारा में लाने का प्रयास करूँगा और ब्राह्मणों से वो कार्य करवाऊंगा जो आजतक श्रमशक्ति {शुद्र}द्वारा किये जाते थे !वेश्यो के कार्य क्षत्रिय करेंगे, क्षत्रिय के कार्य वेश्यो से, आर्थात सभी वर्णों को सभी कार्य का अधिकार होगा !

अब फिर से आप कल्पना करके बताओ की आपके संसार रूपी शारीर की स्थिति क्या होगी ? वही स्थिति आज हमारे समाज की हो रही है उदाहरण लीजिए जब से आरक्षण आया हे तब से हमारे चरण {श्रमशक्ति}जमीं से ऊपर उठ गए क्या मतलब निकला...... चरणों का स्थान वाहनों ने ले लिया या नहीं... आज कितने व्यक्ति संसार में अपने पैरो का उपयोग करते हे आवागमन में, अब पैरो का उपयोग केवल विशेष परिस्थिति में ही किया जाता है ताकि इन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो !और तो और टी.वी.का चेनल बदलने के लिए भी पैरो को कष्ट देना उचित नहीं रह गया विकल्प के तौर पर अब हमारे पास रिमोट कण्ट्रोल जो आ गया है !अब जब पैरो द्वारा श्रम ही नहीं होगा तो क्या होगा। मोटापा बढ़ जाएगा पेट बाहर निकल आएगा।

मतलब संसार की सारी संपत्ति का वेश्य {उदर}संग्रहण तो करेंगे किन्तु वितरण नहीं होगा......वितरण क्यों नहीं होगा क्योकि श्रम नहीं हो रहा......अब बारी आती है ब्राह्मणों की यानि मुख की....क्या स्थिति है आज मुख {ब्राह्मण}की जितनी सफाई इसकी की जाती है शायद ही किसी अंग को इतना चमकाया जाता हो जितना चेहरे को चमकाया जाता हे !सबसे ज्यादा जिम्मेदारी भी इसी की है...क्योकि संसार रूपी शारीर के सञ्चालन में इसकी भूमिका सबसे अहम् होती है....बगैर पैरो के शारीर जीवित रह सकता हे ....बगैर हाथो के शारीर जीवित रह सकता है ....किन्तु सिर को अगर धड से अलग कर दिया जाए तो कोई जीवित रह सकता है ....कल्पना कीजिए?

"महोदय" एसा हे की हम कोई समानता के विरोधी नहीं है सभी को समानता का अधिकार निश्चित ही प्राप्त होना चाहिए इसमें कुछ भी गलत नहीं है किन्तु समानता का मतलब किसी के अधिकारों का अतिक्रमण करना नहीं है ! आप ही बताईए आप अपने किस अंग से भेदभाव करते है... किसी से नहीं... क्योकि वे सब आपके अंग है !

अभी कुछ समय पहले एक पोस्ट फेसबुक पर पढ़ रहा था उसमे एक सज्जन ने जातिव्यवस्था के बारे में लिखा की ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण, क्षत्रीय का बेटा क्षत्रिय, एसा कैसे संभव हो सकता है। इस प्रकार तो डॉक्टर का बेटा डोक्टर, मास्टरजी का बेटा मास्टर यह तो गलत है ।

अब मै उन सज्जन से कहूँगा की मान्यवर आप जिस व्यवस्था के अनतेरगत बात कर रहे वह मैकाले महोदय की शिक्षा पद्धति के डॉक्टर व् ,मास्टरजी हे न कि सनातन व्यवस्था के, हमारे यहाँ तो वैद्य का बेटा वैध, सुतार का बेटा सुतार, लोहार का बेटा लोहार, सुनार का बेटा सुनार, ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण,और क्षत्रिय का बेटा क्षत्रिय ही होता है ! उन्हें कुछ सिखने कही बाहर नहीं जाना होता अपितु अपनी परम्परा प्राप्त आजीविका का ज्ञान उसके DNA यानि संचित कर्म में रचा बसा होता है ! आवश्यकता है तो अपने वर्ण या जाति के गुणों को निखारने की क्योकि हीरे को जब तक तराशा नहीं जावेगा तब तक वह किसी के मुकुट की शोभा नहीं बढ़ा सकता।
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शनिवार, 18 नवंबर 2017

एकादशी और चावल

पद्म पुराण के अनुसार एकादशी के दिन भगवान विष्णु के अवतारों की पूजा विधि-विधान से की जाती है। माना जाता है कि इस दिन सच्चे मन से पूजा करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। साथ ही इस दिन दान करने हजारों यज्ञों के बराबर पुण्य मिलता है। इस दिन निर्जला व्रत रहा जाता है। जो लोग इस दिन व्रत नही रख पाते। वह लोग सात्विक का पालन करते है यानी कि इस दिन लहसुन, प्याज नहीं खाएं और झूठ, ठगी आदि का त्याग कर दें। साथ ही इश दिन चावल और इससे बनी कोई भी चीज नहीं खानी चाहिए।

हम पुराने जमाने से यह बात सुनते चले आ रहे कि एकादशी के दिन चावल और इससे बनी कोई भी चीज नही खाई जाती है। लेकिन इसके पीछे सच्चाई क्या है यह नहीं जानते हैं। जब भी हम यह बात सुनते होंगे कि आज एकादशी है और आज चावल नहीं खाए जाते है, तो हमारे दिमाग में एक ही बात है कि ऐसा क्यों है, जानिए इसके पीछे क्या रहस्य है।

शास्त्रों में चावल का संबंध जल से किया गया हैं और जल का संबंध चंद्रमा से है। पांचों ज्ञान इन्द्रियां और पांचों कर्म इन्द्रियों पर मन का ही अधिकार है। मन और श्वेत रंग के स्वामी भी चंद्रमा ही हैं, जो स्वयं जल, रस और भावना के कारक हैं, इसीलिए जलतत्त्व राशि के जातक भावना प्रधान होते हैं, जो अक्सर धोखा खाते हैं।

एकादशी के दिन शरीर में जल की मात्र जितनी कम रहेगी, व्रत पूर्ण करने में उतनी ही अधिक सात्विकता रहेगी। आदिकाल में देवर्षि नारद ने एक हजार साल तक एकादशी का निर्जल व्रत करके नारायण भक्ति प्राप्त की थी। वैष्णव के लिए यह सर्वश्रेष्ठ व्रत है। चंद्रमा मन को अधिक चलायमान न कर पाएं, इसीलिए व्रती इस दिन चावल खाने से परहेज करते हैं।

शास्त्रों में एक पौराणिक कथा भी है। इसके अनुसार माता शक्ति के क्रोध से भागते-भागते भयभीत महर्षि मेधा ने अपने योग बल से शरीर छोड़ दिया और उनकी मेधा पृथ्वी में समा गई। वही मेधा जौ और चावल के रूप में उत्पन्न हुईं।
ऐसा माना गया है कि जिस दिन यह घटना हुई। उस दिन एकादशी का दिन था। यह जौ और चावल महर्षि की ही मेधा शक्ति है, जो जीव हैं। इस दिन चावल खाना महर्षि मेधा के शरीर के छोटे-छोटे मांस के टुकड़े खाने जैसा माना गया है, इसीलिए इस दिन से जौ और चावल को जीवधारी माना गया है।

एकादशी के दिन चावल न खाने के पीछें वैज्ञानिक तथ्य भी है। इसके अनुसार चावल में जल की मात्रा अधिक होती है। जल पर चन्द्रमा का प्रभाव अधिक पड़ता है। चावल खाने से शरीर में जल की मात्रा बढ़ती है इससे मन विचलित और चंचल होता है। मन के चंचल होने से व्रत के नियमों का पालन करने में बाधा आती है। एकादशी व्रत में मन का निग्रह और सात्विक भाव का पालन अति आवश्यक होता है इसलिए एकादशी के दिन चावल से बनी चीजे खाना वर्जित कहा गया है।

बुधवार, 8 नवंबर 2017

भद्रा वर्णन

धन्या दधमुखी भद्रा महामारी खरानना।
कालारात्रिर्महारुद्रा विष्टिश्च कुल पुत्रिका।
भैरवी च महाकाली असुराणांक्षयन्करी।
द्वादश्चैव तु नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
न च व्याधिर्भवैत तस्य रोगी रोगात्प्रमुच्यते।
गृह्यः सर्वेनुकूला: स्यर्नु च विघ्रादि जायते।।

देवदानवसंग्राम आख्यान
पूर्वकाल में जब देवताओ और असुरो का युद्घ हुआ तो देवगण हारने लगे तब शिवजी को क्रोध आ गया शिवजी की आँखे एकदम सुर्ख लाल हो गयी,
दसों दिशाएं कांपने लगी इसी समय शिवजी की दृष्टि उनके हृदय पर पड़ी और उसी समय एक गधी के सामान गरदन सिंह के समान सात हाथो से व तीन पैरों से युक्त कौड़ी के समान नेत्र पतला शरीर
कफन जैसे वस्त्रो को धारण किये हुए धुम्रवर्ण की कान्ति से युक्त विशाल शरीर धारण किये हुए एक कन्या की उतपत्ति हुई जिसका नाम  "भद्रा"  था।
देवताओ की तरफ से असुरो से युद्घ करते हुए असुरो का विनाश कर डाला देवताओ की विजय हुई,तब देवगण प्रसन्न होकर उसके कानो के पास जाकर कहा

    दैत्यघ्नी मुदितै: सुरैस्तु करणं प्रान्त्ये नियुक्ता तु सा
   
तभी से भद्रा को करणों में गिना जाने लगा यह भद्रा अब भूख से व्याकुल होने लगी तब भगवान शिवजी से कहा हे मेरे उत्पात्तिकर्ता मुझे बहुत भूख लग रही है,
मेरे लिए भोजन की व्यवस्था करिये।
तब शिवजी ने कहा :-
विष्टि नामक करण में जो भी मंगल या शुभ कार्य किये जाए तुम उसी कर्म के सभी पुण्यो का भक्षण करो और अपनी भूख मिटाओ भद्राकाल में किये जाने वाले सभी मांगलिक कार्यो को सिद्घि को ये अपनी लपलपाती सात जीभों से भक्षण करती है,अतः इसीलिए
भद्राकाल में शुभ मांगलिक कार्य नही किये जाते है।

पंचांग में जो करण होते है
उसमे विष्टि नामक करण को ही भद्रा एवं विष्ट करण के काल को ही भद्रा काल कहते है।

भद्रा
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शुक्लपक्ष में अष्टमी व पूर्णिमा तिथि के पूर्वार्द्घ में व एकादशी तिथि के उत्तरार्द्घ में
विष्टि करण अर्थात भद्रा होती है,
जबकि कृष्णपक्ष में तृतीया व दशमी तिथि के उत्तरार्द्घ में एवं सप्तमी व चतुर्दशी के पूर्वार्द्घ में भद्रा होती है तिथि के सम्पूर्ण भोगकाल का प्रथम आधा हिस्सा पूर्वार्द्घ तथा अंतिम आधा हिस्सा उत्तरार्द्घ होता है।

मुख्य बात
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जितने समय तक विष्टि करण रहता है, उतने समय तक ही भद्रा रहती है, सभी शुभ कार्य के प्रारम्भ करने में  वर्जित है।

शुक्लपक्ष में
चतुर्थी को 27 घटी
अष्टमी को 5 घटी
एकादशी को 12 घटी
पूर्णिमा को 20 घटी के उपरान्त
3 घटी भद्रा पुच्छ संज्ञक होती है।

जबकि कृष्णपक्ष में
तृतीया को 20 घटी
सप्तमी को 12 घटी
दशमी को 5 घटी
चतुर्दशी को 27 घटी के उपरान्त
3 घटी भद्रा पुच्छ संज्ञक होती है,भद्रा पुच्छ को शुभ माना गया है।

भद्रा अंग विभाग
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भद्रा के सम्पूर्ण काल मान के आधार पर किया जाता है।इसलिए भद्रा का सम्पूर्ण काल का मापन पहले कर लेना चाहिए।
चूँकि तिथियों में घटत-बढ़त होती रहती है।
तिथि का आधा भाग एक करण मान का होता है। इस हिसाब से माना तिथि का मान 60घटी है तो भद्रा या विष्टि करण का मान 30घटी हो गया।यदि भद्रा का मान 30घटी हुआ तो अंग विभाग इस क्रम में होता है भद्राकाल का 6ठां भाग 5घटी मुख संज्ञक अगला 30वां भाग 1घटी कण्ठ संज्ञक 5वां भाग 6घटी कटि संज्ञक अंतिम 3घटी पुच्छ संज्ञक होती है।

भद्रा मुख में किये गए कार्य नष्ट हो जाते है।

गले में करने से स्वास्थ्य की हानि होती है।

हृदय में करने से कार्य की हानि होती है।

नाभि में करने से कलह होती है।

कटि में कार्यारम्भ करने से बुद्घि भ्रमित होती है
जबकि भद्रा पुच्छ में किये गए कार्य सफल होते है।

भद्रानिवास व् विहितकार्य
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भद्रा निवास
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भद्रा का निवास चन्द्रमा जिस राशि में हो
उसके आधार पर होता है।

मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार
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चन्द्रमा-भद्रावास
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कुम्भ मीन कर्क या सिंह राशि में हो तो भूमि पर वास मेष वृषभ मिथुन या वृश्चिक राशि में हो तो स्वर्गलोक में वास कन्या धनु तुला या मकर राशि में हो तो पाताल में वास इस प्रकार भद्रा का वास देखा जाता है। जिस लोक में भद्रा का वास होता है प्रभाव भी उसी लोक में होता है कुम्भ मीन कर्क तथा सिंह राशि में भद्रा स्थित हो तो पृथ्वी वासियो को त्याग करना चाहिए।

भद्रा विहित कार्य
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भद्रा में युद्घ वाद-विवाद राजा मंत्री से मिलना डाक्टर को बुलाना जल में तैरना रोग निवारण दवा लेना पशुओ का संग्रह करना अपनी या अन्य स्त्री की इच्छा पूर्ति करना तथा विवाह आदि कार्य किया जा सकता है।

कालिदासजी के अनुसार
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महादेवजी का जप अनुष्ठान में मीन राशि के चन्द्रमा में देव पूजन करने में एवं दुर्गामाँ जी का हवन करने तथा सभी प्रकार के कार्यो में एवं मेष राशि के चन्द्रमा होने पर भद्रा अशुभ फलदायिनी नही होती।