बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

भक्त मानिदास माली

सन् 1543 के लगभग उड़ीसा के जगन्नाथधाम में जन्मे थे मणिदास माली। निर्धनता के कारण इन्हें पढ़ाई का अवसर नहीं मिल सका, किंतु जगन्नाथ भगवान् की भक्ति में इनका हृदय पूरी तरह से रंग गया। ये अपने छोटे-से खेत में विभिन्न प्रकार के फूल और सब्जियाँ उगाते थे। प्रतिदिन रंग-बिरंगे सुंदर-सुंदर फूलों की मालाएँ बनाते और उन्हें लेकर जगन्नाथजी के मंदिर में जाते। सबसे पहले एक माला अपने इष्टदेव जगन्नाथ भगवान् को समर्पित करते और फिर शेष मालाएँ प्रभु के दर्शन करने के लिए आने वाले भक्तों को बेच देते। साधुओं के सत्संग से इन्होंने यह सच्ची शिक्षा ग्रहण की थी कि दीन-दुःखी प्राणियों पर दया करनी चाहिए और पाप कर्मों का त्याग करके भगवद्भजन करना चाहिए।

इसलिए मणिदासजी अपनी आय का आधा अंश संत-महात्माओं और भूखे प्राणियों की सेवा व भोजन पर खर्च करते।

कुछ समय बाद मणिदास की पत्नी और पुत्रों को किसी घातक बीमारी ने अपनी चपेट में ले लिया और एक-एक करके उनकी मृत्यु हो गई। किंतु मणिदास ने इसमें भी अपने जगन्नाथ भगवान् की कृपा के दर्शन किए। मृत परिजनों का दाह संस्कार करने के बाद वे जगन्नाथ मंदिर की ओर हाथ जोड़कर बोले, "हे मेरे प्रभु! तुम कितने दयालु हो कि तुमने परिवार की समस्त चिंताएँ समाप्त कर मुझे सब बंधनों से मुक्त कर दिया! अब मैं अपने जीवन का प्रत्येक क्षण तुम्हारी भक्ति और नाम संकीर्तन में लगाऊँगा।"

मृतक संस्कार पूर्ण होने के पश्चात् मणिदासजी ने साधु वेष धारण कर लिया। वे ब्रह्ममुहुर्त में ही उठ जाते, स्नान करते और फिर अपने हाथों में कर-ताल लेकर जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार पर पहुँच जाते। वहाँ तन्मय होकर कीर्तन करने लगते।

कभी-कभी ये उन्मत्त होकर 'जय जगन्नाथ-जय जगन्नाथ', 'राम-कृष्ण-गोविंद-हरि' का कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगते। जब मंदिर के द्वार खुलते, तो ये जगन्नाथ भगवान् के श्रीविग्रह के समीप गरुड़ स्तंभ के पीछे जाकर खड़े हो जाते और वहाँ से अपने आराध्य देव की अलौकिक छवि को अपलक निहारा करते। फिर उन्हें साष्टांग प्रणाम कर उनके मधुर नामों का कीर्तन करने लगते। कीर्तन करते हुए ये अपने शरीर की सुधबुध खो बैठते। कभी झूम-झूमकर नाचने लगते, तो कभी खड़े ही रह जाते। कभी भक्ति के पदों को गाते, कभी स्तुति करते तो कभी फूट-फूटकर रोने लगते। कभी जगन्नाथ भगवान् को नमन करते तो कभी जोर-जोर से जय-जयकार करने लगते और कभी भूमि पर लोटने लगते। उनके शरीर में उस समय आठों सात्त्विक भावों का उदय हो जाता था।

उस समय जगन्नाथ मंदिर के मंडप के एक भाग में एक कथावाचक प्रतिदिन श्रीमद्भागवत की कथा सुनाया करते थे। कथावाचक पंडितजी विद्वान थे, किन्तु उनका हृदय अभी शुष्क था। वे अपनी प्रतिभा से श्रीमद्भागवत के श्लोकों के ऐसे नवीन सुंदर-सुंदर भाव बताते थे कि उन्हें सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। किंतु इतनी प्रतिभा होने के बाद भी पंडितजी के हृदय में अभी भगवद्भक्ति की रसधारा प्रवाहित नहीं हो सकी थी। एक दिन कथा में कथावाचकजी श्रोताओं के समक्ष किसी श्लोक के संबंध में कोई अद्भुत भाव बता रहे थे। उसी समय, मणिदास राम-कृष्ण-गोविंद-हरि के नाम का उच्च स्वर में संकीर्तन करते हुए मंदिर में पधारे और जगन्नाथ भगवान् के सुंदर रूप की छटा को देखते ही बेसुध हो उठे। उन्हें जगनाथ भगवान् के सिवा कुछ भी ज्ञान नहीं था कि कौन कहाँ बैठा है और क्या कर रहा है। वे जगन्नाथ भगवान् के दर्शन करते हुए उनके मधुर-मधुर नामों का गान करते हुए उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे।

कथावाचकजी के सामने बैठे कुछ श्रोता उठे और मणिदासजी का संकीर्तन देखने लगे। कथा वाचक जी को यह अत्यंत बुरा लगा। उन्होंने मणिदास को डाँटते हुए वहाँ से चले जाने को कहा। किंतु भगवन्नाम संकीर्तन में मस्त मणिदासजी के कान तो कुछ भी सुन ही नहीं पा रहे थे। कथावाचकजी को क्रोध आ गया और कथा में विघ्न पड़ने से कुछ श्रोता भी उत्तेजित हो उठे। अब मणिदास पर गालियों और थप्पड़ों की बौछारें होने लगीं। जब मणिदासजी को बाह्य ज्ञान हुआ, तो वे ऐसा होते देख चकित रह गए। जब सारी बातें समझ में आईं तो इनके मन में जगन्नाथ भगवान् के प्रति प्रणय कोप जागा। उन्होंने सोचा, 'जब मेरे इष्टदेव के सामने ही उनकी कथा कहने और सुनने वाले भक्तजन मुझे मारते हैं, तो मैं वहाँ क्यों जाऊँ?'

मणिदास जगन्नाथ भगवान् से सचमुच प्रेम करते थे, अतः उन्हें उनसे रूठने का पूरा अधिकार था। वे जगन्नाथजी से रूठकर दिन भर भूखे-प्यासे एक मठ में पड़े रहे। इधर जगन्नाथ मंदिर में संध्या-आरती हो गई, पट बंद हो गए, किंतु प्रतिदिन की भाँति मणिदासजी वहाँ नहीं आए। रात्रि होने पर मंदिर के द्वार भी बंद हो गए।

इधर जगन्नाथ भगवान् को आज अपने प्रेमी भक्त के मुख से निःसृत कीर्तन, उसकी कर-ताल का संगीत सुनने और उसका प्रेमपूर्ण नृत्य देखने को न मिला, तो उनका हृदय छटपटाने लगा। रात्रि में पुरी-नरेश अपने शयन कक्ष में सो रहे थे। जगन्नाथ भगवान् उनके स्वप्न में आए और उनसे बोले, "अरे! तू कैसा राजा है? तुझे यह भी पता नहीं है कि मेरे मंदिर में क्या होता है? मेरा एक निश्छल भक्त मणिदास प्रतिदिन मंदिर में करताल बजकर नृत्य किया करता था। आज उसे तेरे कथा वाचक ने मार-पीटकर मंदिर से भगा दिया। आज न तो मैं उसका संकीर्तन सुन सका और न उसका नृत्य देख सका। इसलिए आज मुझे सब फीका-फीका लग रहा है। मेरा भक्त मणिदास आज मठ में भूखा-प्यासा पड़ा है। तू स्वयं जाकर उसे मना और ऐसी व्यवस्था कर कि आज के बाद उसके कीर्तन में कोई विघ्न न डाल सके और अपने कथावाचक पंडितजी की कथा की व्यवस्था लक्ष्मीजी के मंदिर में कर। मेरा मंदिर केवल मेरे प्रेमी भक्तों के लिए सुरक्षित रहे।"

इधर मठ में रूठे पड़े मणिदासजी ने अचानक देखा कि उनके सामने करोड़ों सूर्यों के समान शीतल प्रकाश चारों ओर फैल गया है। सहसा उसने देखा कि उस प्रकाश के मध्य गोल घेरे में उसके इष्टदेव जगन्नाथ भगवान् प्रकट हो गए हैं और उसी की ओर देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। मणिदास तो उनके सौंदर्य को एकटक निहारता ही रह गया। तभी जगन्नाथ भगवान् ने अपना वरद हस्त मणिदास के सिर पर रख दिया और अपनी अमृतमयी वाणी का रस उसके कानों में घोलते हुए से बोले, "पुत्र मणिदास! तू भूखा क्यों है? देख, तेरे भूखा रहने से आज मैंने भी भोजन नहीं किया है। उठ और जल्दी से भोजन कर ले!" भगवान् इतना कहकर अंतर्धान हो गए। मणिदास अभी सोच ही रहा था कि यह स्वप्न था या वास्तविकता कि अचानक उसके सामने महाप्रसाद का एक थाल प्रकट हो गया। अपने इष्टदेव की इस अनुकंपा को देखकर मणिदास के नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बह चली। उसका अपने आराध्य के प्रति प्रणय रोष तत्क्षण दूर हो गया और वह आनंद से रोमांचित होकर भगवान् का प्रसाद पाने लगा।

इधर जब पुरी-नरेश की नींद खुली, तो वे तुरंत घोड़े पर बैठकर इस घटना की जाँच करने जगन्नाथ मंदिर जा पहुँचे। जब उन्हें घटना की सत्यता ज्ञात हुई तो वे उस भक्त के दर्शन करने को लालायित हो उठे, जिसके लिए जगन्नाथ भगवान् को स्वयं उनके सपने में आना पड़ा। पता लगाकर राजा मठ में मणिदास के समीप पहुँचे और उन्हें स्वप्न की घटना सुनाई। यह सुनकर मणिदास पुनः अपनी आँखों से आँसू बहाते हुए राम कृष्ण गोविंद हरि का उच्चारण करते हुए भवविभोर हो उठे। मणिदास का हृदय तो भगवद्भक्ति से लबालब भरा था, अतः उसमें अभिमान का लेश मात्र भी भला कैसे हो सकता था। अतः राजा के कहने पर वे तुरंत जगन्नाथ मंदिर में दौड़े चले आए और जगन्नाथ भगवान् के समक्ष स्तुति कर उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे। राजा ने कथावाचकजी को समझाया और कथा की व्यवस्था जगन्नाथ मंदिर के नैर्ऋत्य कोण में स्थित श्रीलक्ष्मीजी के मंदिर में कर दी। मणिदास जीवन भर अपने जगन्नाथ भगवान् के दर्शन कर उन्हें अपने मधुर कीर्तन और करतल के संगीत से रिझाते रहे। अंत में 80 वर्ष की आयु में वे जगन्नाथ भगवान् की सेवा करने के लिए उनके दिव्य धाम को प्रयाण कर गए।

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