शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

मृत्यु क्या है


जब किसी की बीमारी बढ़ जाती है, और वह समझ लेता है कि अब बचने की आशा नहीं, तो सब ओर से हटकर उसका जी यह सोचने लगता है कि मृत्यु क्या है? मरने के पीछे क्या होगा? इसी देह तक क्या सब कुछ था, या आगे भी कुछ और है? एक दिन अचानक मेरे जी में भी ये बातें उठीं, और सबसे पहले मैं यह सोचने लगा कि मृत्यु क्या है, पर ज्यों यह बात जी में आयी, त्यों गीता के ये बचन याद आये-ऽऽजैसे जीव के इस देह के लिए लड़कपन, जवानी और बुढ़ापा है, उसी तरह उसके लिए दूसरी देह को पाना (मरना) है, जो लोग धीरज वाले हैं, उनको इससे घबराहट नहीं होती-

यथा देही शरीरेऽस्मिन , कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तर प्राप्तिधीरस्तत्र न मुह्यति।

जैसे पुराने कपड़े को उतार कर मनुष्य दूसरे नये कपड़े को पहनता है उसी तरह से पुरानी देह छोड़कर जीव दूसरी नयी देह में चला जाता है।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि र्गृीति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संजाति नवानि देही।

गीता के इन वचनों के साथ भागवत की बात भी याद पड़ी, उसमें वासुदेव जी ने कंस को समझाते हुए कहा है कि, जब मनुष्य मर जाता है तो जीव अपनी करनी के मुताबिक बेबसों की तरह दूसरी देह को पाकर अपनी पुरानी देह को छोड़ देता है-

देहे पंचत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवश:।
देहान्तरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यज्यते वपु : । 

जैसे तृण जलौका चलने के समय जब एक पाँव रख लेता है, तब दूसरा पाँव उठाता है, उसी प्रकार करनी के अनुसार जीव की भी गति है।

ब्रजस्तिष्ठ न्यदैकेन यथैवैकेन गच्छति।
यथा तृण जलौकैवं देही कर्म गतिं गत : ।

इन कई एक पंक्तियों के पढ़ने से यह बात समझ में आ गयी होगी, कि मृत्यु क्या है? जैसा गीता और भागवत ने हमको बतलाया है, उससे पाया जाता है कि मृत्यु और कुछ नहीं एक प्रकार का परिवर्तन है।

डॉक्टर लूइस फ्रान्स के एक बहुत बड़े और प्रसिद्ध विद्वान हैं, उन्होंने फ्रान्सीसी भाषा में मृत्यु के बारे में एक पुस्तक लिखी है। उसका अनुवाद फ्रान्सीसी से अंगरेजी और अंगरेजी से उर्दू में हुआ है। उर्दू किताब का नाम अल्हयात बाद लममात है। उसके चौथे बाब में मौत के बारे में जो कुछ लिखा है, वह यह बात है ऽऽमौत जिन्दगी की सबसे पिछली मंजिल नहीं है, बल्कि एक तबदीली है, हम मरते नहीं, बल्कि सूरत बदलते हैं। मौत के परदे गिरना किसी बुरी हालत में पहुँचना या सदमा उठाना नहीं है, बल्कि आदमी के भाग्य का जो तमाशागाह है, यह उसका एक बहुत बड़ा असर डालने वाला सीन है। 

साँस चलने की तकलीफ बरबाद हो जाने या मिट जाने की अवस्था नहीं है, बल्कि एक ऐसी दर्दनाक हालत है, जो कभी नहीं टलती, न नेचर के कानून में हर तब्दीली के साथ मौजूद रहती है। सब लोग मानते हैं कि कीड़े मकोड़ों के सर्द और हिलने डुलने वाले बदामा को अपना बाहिरी लिबास चाक करना पड़ता है, जिसमें कि वह सुन्दर रंगवाली चमकीली तितली की सूरत में दिखलाई पड़े। 

जब तुम तितली को उसी घर देखो, जब वह अपने थोड़े दिन ठहरनेवाले ढकने से बाहर निकलती है, तो तुमको उस कैद करनेवाली जंजीर के तोड़ने से काँपती और हाँफती हुई दिखलाई पड़ेगी। उसको आराम की जरूरत है, जिसमें वह अपनी ताकत को आकाश में उड़ने के लिए इकट्ठा करे क्योंकि नेचर ने उसको इस हवा में उड़ने के लिए ही बनाया है। यही हमारी मौत की तकलीफ का नमूना है। हमको इस तरह की हर एक तकलीफ को सह लेना जरूरी है, जिसमें हम इस मिट्टी के घरौंदे छोड़कर उन अनजान लोकों में सैर के लिए तैयार हों, जो इस तरह देह छोड़ने के बाद हमारे सामने आते हैं।

कबीर साहब एक दोहे में कहते हैं कि ऽऽमरने से सारी दुनिया डरती है पर मेरे मन में आनन्द है, क्योंकि पूरा और सच्चा आनन्द मरने से ही मिलता है-

मरने ते सब जग डरे , मेरे मन आनन्द।
मरने ही ते पाइये , पूरन परमानन्द। 

कबीर साहब के स्वर में स्वर मिलाकर एक फारसी का कवि कहता है ऽऽदौड़ना, चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना, और मरना यह दर्जे हैं, और इनके इतना ही हर ठहरने में आनन्द होता हैऽऽ। कवि का भाव यह है कि जब वह दौड़ता रहता है, और थक जाता है, तो चलने लगता है, क्यों? इसलिए कि दौड़ने से चलने में आनन्द है। जब किसी को चलने में थकान होती है, तब खड़ा हो जाता है, क्योंकि चलने से खड़े होने में कम मिहनत पड़ती है। 

इसलिए चलने से खड़े होने में आनन्द मिलता है। जब हम खड़े नहीं रह सकते, पैर दुखने लगते हैं, या जी नहीं चाहता कि खड़े रहें, तब हम बैठ जाते हैं, क्यों कि खड़े रहने से बैठने में आनन्द होता है। यही बात बैठे न रह सकने पर सोने में है। और जब हमने देख लिया कि दौड़ने से चलने में, चलने से खड़े होने में, खड़े रहने से बैठने में, और बैठने से सोने में आनन्द है, तो हमको यह मानना पड़ेगा, कि सोने से मरने में भी आनन्द है। क्योंकि जो बात अनुभव और युग से सिद्ध है, उसमें फिर कोई तर्क-वितर्क करने का स्थान नहीं रह जाता।

गीता और भागवत में जो कुछ मौत के विषय में लिखा है, उसमें यद्यपि खुली तौर पर यह नहीं कहा गया है, कि मौत भी आनन्द का साधन है। परन्तु यदि उन वचनों पर विचार किया जावेगा तो ज्ञात हो जावेगा कि कबीर साहब और फारसी के कवि ने जो कुछ कहा है, वह सर्वथा उसी की छाया है, क्योंकि जब हम पुराना कपड़ा उतारकर नया पहनेंगे, या पुरानी न काम देने योग्य देह छोड़कर नयी और काम की देह पावेंगे, तो यह कभी सम्भव नहीं है, कि हमको आनन्द न होवे। डॉक्टर लूइस ने भी इस बात को पूरी तरह से मान लिया है। इसलिए मौत क्या ठहरी। एक ऐसी दशा जिसमें आनन्द का अनुभव होता है।

कुछ लोग ऐसे हैं, जो जीव नहीं मानते, उनका बिचार है कि जैसे पान, सोपारी, खैर और चूना जब एक परिमित परिमाण में मिलते हैं, तो लाली अपने आप पैदा हो जाती है, उसी प्रकार पाँच तत्तव जब परिमित परिमाण में मिलते हैं, तो जीवन अपने आप बन जाता है। लाली पान सोपारी खैर, चूना से अलग कोई वस्तु नहीं है। वह एक छिपी दशा में पान, सोपारी, खैर, चूना में पहले ही से मौजूद रहती है, जब यह सब इकट्ठे होते हैं, तो वह उन्हीं में से प्रकट हो जाती है, कहीं अलग से नहीं आती, यही दशा पाँच तत्तव और जीव की भी है। जो लोग इस विचार के हैं, वे यह नहीं मानते कि जीव ज्यों एक देह को छोड़ता है, त्यों दूसरी देह में चला जाता है, वे कहते हैं कि जीव जब कोई अलग है ही नहीं, तो उसका आना जाना कैसा? 

जब तक देह में पाँच तत्तव इस ढंग से मिले रहते हैं, कि यह चल फिर सकती है, खा पी सकती है, सोच विचार सकती है, तभी तक जीवन है, अर्थात जीवन एक ऐसी अवस्था है, जो पाँच तत्तवों के ठीक-ठीक मिले रहने से होती है, जब पाँच तत्तवों का यह ढंग बिगड़ जाता है, और वह घट बढ़ जाते हैं, उस घड़ी उसकी वह पहली अवस्था नहीं रह जाती, जिसको हम जीवन कहते हैं, और इसी को हम लोग अपनी बोलचाल में मृत्यु कहकर पुकारते हैं। अर्थात मौत एक ऐसी अवस्था है, जो कि जीवन का उलटा है, और ऐसी दशा में किसी जीव को मानने की आवश्यकता नहीं रहती।

आप एक घड़ी को लीजिए और उसके कल पुर्जों को देखिए, जब तक कल पुरजे अपनी जगह पर ठीक-ठीक काम देते हैं, तब तक घड़ी चलती रहती है, उसकी सुइयाँ घूमती रहती हैं और घड़ी का सारा काम होता रहता है। पर जो इन कल पुरजों में कुछ भी अन्तर हुआ, और अपनी जगह पर ठीक-ठीक काम देने से वे चूके, तो समझिए घड़ी बिगड़ी और उसका सारा काम मिट्टी हुआ। इससे यह न समझना चाहिए कि कल पुरजों के सिवा उसमें कोई शक्ति ऐसी और थी जो घड़ी को चलाती थी, और उसका सारा काम पूरा करती थी, और उस शक्ति के निकल जाने से घड़ी बिगड़ी, और उसका कुल काम रुक गया। वरन उसके कल पुरजों का अपनी जगह पर रहना और उनका ठीक-ठीक काम देना ही उसकी शक्ति थी, सिवा इस शक्ति के उसमें और कोई शक्ति नहीं थी। 

यही दशा जीवन की है, इस तरह के विचार के लोग यही बतलाते हैं, वे कहते हैं कि ठीक घड़ी के कल पुरजों की दशा इस देह के कल पुरजों की भी है, जब तक पाँच तत्तव ठीक-ठीक अपनी जगह पर काम देते हैं, तब तक ये भी ठीक-ठीक चलते हैं, देह भी अपना सब काम ठीक-ठीक करती है, जहाँ पाँच तत्तव का सामंजस्य बिगड़ा, वहाँ देह के कल पुरजे भी बिगड़े और देह भी अपने समस्त कामों से रहित हुई। पर इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि देह में जीव नाम की कोई दूसरी शक्ति मौजूद थी और वह निकलकर किसी दूसरी जगह चली गयी, और इसी से देह का सारा काम बन्द हो गया, और आदमी मर गया। कई एक दूसरे धर्म वालों का विचार भी मृत्यु के बारे में ठीक ऐसा ही, या इससे कुछ मिलता-जुलता हुआ है, इससे उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी।

इस तरह के लोगों ने जैसा मृत्यु को बतलाया है, उससे भी मौत कोई डरावनी वस्तु नहीं ज्ञात होती। पाँच तत्वों के किसी परिमित परिमाण से मिलने पर एक पुतला बना था, वह पुतला उन तत्तवों के उस अवस्था को छोड़ देने से बिगड़ गया, उसका सब सामान फिर अपने मुख्य रूप में हो गया, हवा हवा में, मिट्टी मिट्टी में, आकाश आकाश में, पानी पानी में, और तेज तेज में मिल गया। फिर अब और चाहिए क्या? बँद समुद्र बन गयी, तेज सूर्य हो गया, परमाणु पृथ्वी हुआ, अंश अखिल बना, इससे बढ़कर और कौन आनन्द की बात होगी?

मंदिर जाने का वैज्ञानिक महत्व--


  1. - वैदिक पद्धति के अनुसार मंदिर वहां बनाना चाहिए जहां से पृथ्वी की चुम्बकीय तरंगे घनी हो कर जाती है.
  2. - इन मंदिरों में गर्भ गृह में देवता की मूर्ती ऐसी जगह पर स्थापित की जाती है.
  3. - इस मूर्ती के नीचे ताम्बे के पत्र रखे जाते है जो यह तरंगे अवशोषित करते है.
  4. - इस प्रकार जो व्यक्ति रोज़ मंदिर जा कर इस मूर्ती की घडी के चलने की दिशा में प्रदक्षिणा करता है वह इस एनर्जी को अवशोषित कर लेता है.
  5. - यह एक धीमी प्रक्रिया है और नियमित करने से व्यक्ति की सकारात्मक शक्ति का विकास होता है.
  6. - मंदिर तीन तरफ से बंद रहता है जिससे ऊर्जा का असर बढ़ता है.
  7. - मूर्ती के सामने प्रज्वलित दीप उष्मा की ऊर्जा का वितरण करता है.
  8. - घंटानाद से मन्त्र उच्चार से ध्वनी बनती है जो ध्यान केन्द्रित करती है.
  9. - समूह में मंत्रोच्चार करने से व्यक्तिगत समस्याएँ भूल जाती है.
  10. - फूलों , कर्पुर और धुप की सुगंध से तनाव से मुक्ति हो कर मानसिक शान्ति मिलती है.
  11. - तीर्थ जल मंत्रोच्चार से उपचारित होता है. चुम्बकीय ऊर्जा के घनत्व वाले स्थान में स्थित ताम्रपत्र को स्पर्श करता है और यह तुलसी कपूर मिश्रित होता है. इस प्रकार यह दिव्य औषधि बन जाता है.
  12. - तीर्थ लेते समय वयुमुद्रा बना ली जाती है. देने वाला भी मन्त्र उच्चारित करता है, फिर पिने के बाद हाथों को शिखा यानी सहस्त्रार , आँखों पर स्पर्श करते है.
  13. - मंदिर में जाते समय वस्त्र यानी सिर्फ रेशमी पहनने का चालान इसीसे शुरू हुआ क्योंकि ये उस ऊर्जा के अवशोषण में सहायक होते है.
  14. - मंदिर जाते समय महिलाओं को गहने पहनने चाहिए. धातु के बने ये गहने ऊर्जा अवशोषित कर उस स्थान और चक्र को पहुंचाते है जैसे गले , कलाई , सिर आदि .
  15. - नए गहनों और वस्तुओं को भी मंदिर की मूर्ती के चरणों से स्पर्श कराकर फिर उपयोग में लाने का रिवाज है जो अब हम समझ सकते है की क्यों है .
  16. - मंदिर का कलश पिरामिड आकृति का होता है जो ब्रम्हांडीय ऊर्जा तरंगों को अवशोषित कर उसके नीचे बैठने वालों को लाभ पहुंचाता है.
  17. - हर एक सामान्य व्यक्ति को उच्च वैज्ञानिक कारण समझ में आये ऐसा आवश्यक नहीं इसलिए हमारे सभी रीती रिवाज धर्म और बड़ों के आदेश के रूप में निभाये जाते है.

॥ जीव क्या साथ लाता - क्या ले जाता है ? ॥

तीन शरीर माने गए हैं । 

  1. स्थूल - जिस समय यह जीव जाग्रत अवस्था में रहता है , उस समय इसकी सिथ्ती स्थूल शरीर में रहती है । तब इसका संबंध पांच प्राणों सहित २४ तत्वों से रहता है । पांच महाभूत - 1 आकाश , 2.वायु , 3. अग्नि , 4. जल और 5. पृथ्वी । पांच ज्ञानेन्द्रियाँ - 1. कान , 2. त्वचा , 3. आँख , 4. जीभ , और 5. नाक । पांच कर्मेन्द्रियाँ - 1. वाणी , 2. हाथ , 3. पैर , 4. उपस्थ और 5. गुदा । पांच विषय - 1. शब्द , 2. स्पर्श , 3. रूप, 4. रस, और 5. गंध । मन , बुद्धि , अहंकार और मूल प्रकृति यही चौबीस तत्व हैं । प्राणवायु के अलग मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह वायु तत्व में शामिल है । भेद बतलाने के लिए ही प्राण ,अपान , समान , व्यान , उदान नामक वायु के पांच रूप माने गए हैं ।
  2. सूक्ष्म - स्वप्नावस्था में जीव की सिथती सूक्ष्म शरीर में रहती है । इसमें १७ तत्व माने गए हैं । पांच प्राण , पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , पांच विषय तथा मन और बुद्धि । इस सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत तीन कोष माने गए हैं - प्राणमय , मनोमय , और विज्ञानमय । पांच कोशों में स्थूल शरीर ऽ अन्नमय ऽ कोष है । प्राणमय कोष में पांच प्राण हैं । उसके अंदर मनोमय कोष है , इसमें मन और इन्द्रियाँ हैं । उसके अंदर विज्ञानमय [ बुद्धि रुपी ] कोष है , इसमें बुद्धि और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं , यही सत्रह तत्व हैं । स्वप्न में इस सूक्ष्म रूप का अभिमानी जीव ही पूर्वकाल में देखे - सुने पदार्थों को अपने अंदर सूक्ष्म रूप से देखता है ।
  3. कारण - जब इसकी सिथति कारण शरीर में होती है , तब अव्याकृत माया प्रकृति रुपी एक तत्व से इसका संबंध रहता है । इसीसे उस जीव को किसी बात का ज्ञान नहीं रहता । इसी गाढ निद्रावस्था को सुषुप्ति कहते हैं । माया सहित ब्रह्म में लय होने के कारण उस समय जीव का संबंध सुख से होता है । इसलिए इसीको ऽ आनंदमय ऽ कोष कहते हैं । इसीसे इस अवस्था से जागने पर यह कहता है की ऽ मैं बहुत सुख से सोया ऽ , उसे और किसी बात का ज्ञान नहीं रहता , यही अज्ञान है , इस अज्ञान का नाम ही माया - प्रकृति है । ऽ सुख से सोया ऽ इससे सिद्ध होता है की उसे आनंद का अनुभव था । परन्तु अज्ञान में रहने के कारण , सुख रूप ब्रह्म में सिथत होने पर भी जीव को ज्यों -का त्यों लौट आना पड़ता है । स्थूल शरीर से निकलकर जब यह जीव बाहर जाता है , तब प्राणमय कोश वाला सत्रह तत्वों का सूक्ष्म शरीर इसमें से निकलकर अन्य शरीर में जाता है । भगवान ने कहा है - इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमई माया में सिथत पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है । जैसे गंध के स्थान से वायु गंध को ग्रहण करके ले जाता है , वैसे ही देहादी का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है , उससे मन सहित इन इन्द्रियों को ग्रहण करके , फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है , उसमें जाता है । प्राणवायु ही उसका शरीर है , उसके साथ प्रधानता से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और छठा मन [ अंत:कर्ण ] जाता है, इसीका विस्तार सत्रह तत्व है । यही सत्तरह तत्वों का शरीर शुभ- असुभ कर्मों के संस्कार के सहित जीव के साथ जाता है । 
  4. प्रलय -काल में जीवों के सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में , संस्कारों सहित मिल जाते हैं और सृष्टि के आदि में उसीके द्वारा पुन: इनकी रचना हो जाती है। महाप्रलय में ब्रह्मा सहित सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के शांत होने पर , शांत हो जाते हैं , उस समय एक मूल प्रकृति रहती है , जिसको अव्याकृत माया कहते हैं । उसी महाकारन में जीवों के समस्त कारण -शरीर संस्कारों सहित लीन हो जाते हैं । तब महासर्ग [ सृष्टि के आदि में ] में स्वयम भगवान पुन: सृष्टि की रचना करते हैं । अर्थात परमात्मारूप अधिष्ठाता के अधीन प्रकृति ही चराचर सहित इस जगत को रचती है , इसी तरह यह संसार आवागमन रूप चक्र में घूमता रहता है, महाप्रलय में पुरुष और उसकी शक्तिरूपा प्रकृति , यह दो ही व्स्तुवें रह जाती हैं , उस समय जीवों का प्रकृति सहित पुरुष में लय हूवा रहता है और सृष्टि के आदि में उनका पुन्रुथान होता है । 

मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम


श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियाँ थीं। प्रत्येक पत्नी से उन्होंने  दस दस पुत्र प्राप्त किये थे। इस प्रकार उनके समस्त पुत्रों की गिनती एक लाख इकसठ हजार अस्सी थी। उनके सभी पुत्रों का नाम बताना तो संभव नहीं है लेकिन उनकी आठ मुख्य रानियों के पुत्रों के नाम नीचे दिए हैं।
  1. रुक्मिणी: प्रधुम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू।
  2. सत्यभामा: भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।
  3. जाम्बवंती: साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु।
  4. सत्या: वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुन्ति।
  5. कालिंदी: श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक।
  6. लक्ष्मणा: प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित।
  7. मित्रविन्दा: वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि।
  8. भद्रा: संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।

कालचक्र

पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के नाभि कमल से उत्पन ब्रम्हा की आयु १०० दिव्य वर्ष मानी गयी है. पितामह ब्रम्हा के प्रथम ५० वर्षों को पूर्वार्ध एवं अगले ५० वर्षों को उत्तरार्ध कहते हैं. 

सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग को मिलकर एक महायुग कहते हैं. ऐसे १००० महायुगों का ब्रम्हा का एक दिन होता है. इसी प्रकार १००० महायुगों का ब्रम्हा की एक रात्रि होती है. अर्थात परमपिता ब्रम्हा का एक पूरा दिन २००० महायुगों का होता है. 

ब्रम्हा के १००० दिनों का भगवान विष्णु की एक घटी होती है. भगवान विष्णु की १२००००० (बारह लाख) घाटियों की भगवान शिव की आधी कला होती है. महादेव की १००००००००० (एक अरब) अर्ध्कला व्यतीत होने पर १ ब्रम्हाक्ष होता है.

अभी ब्रम्हा के उत्तरार्ध का पहला वर्ष चल रहा है (ब्रम्हा का ५१ वा वर्ष). 

ब्रम्हा के एक दिन में १४ मनु शाषण करते हैं:
1. स्वयंभू 2. स्वरोचिष 3. उत्तम 4. तामस  5. रैवत 6. चाक्षुष 7. वैवस्वत  8. सावर्णि  9. दक्ष  10. सावर्णि 
11. ब्रम्हा  सावर्णि 12.धर्म  सावर्णि  13.रूद्र  सावर्णि  14. देव  सावर्णि 15. इन्द्र सावर्णि
इस प्रकार ब्रम्हा के द्वितीय परार्ध (५१ वे) वर्ष के प्रथम दिन के छः मनु व्यतीत हो गए है और सातवे वैवस्वत मनु का अठाईसवा (२८) युग चल रहा है. इकहत्तर (७१) महायुगों का एक मनु होता है. १४ मनुओं का १ कल्प कहा जाता है जो की ब्रम्हा का एक दिन होता है. आदि में ब्रम्हा कल्प और अंत में पद्मा कल्प होता है. इस प्रकार कुल ३२ कल्प होते हैं. ब्रम्हा के परार्ध में रथन्तर तथा उत्तरार्ध में श्वेतवराह कल्प होता है. इस समय श्वेतवराह कल्प चल रहा है. इस प्रकार ब्रम्हा के १ दिन (कल्प) ४०००३२००००००० (चार लाख बतीस "करोड़") मानव वर्ष के बराबर है जिसमे १४ मवंतर होते है. चार युगों का एक महायुग होता है:

सतयुग: सतयुग का काल १७२८००० (सत्रह लाख अठाईस हजार) वर्षों का होता है. इस युग में चार अमानवीय अवतार हुए. मत्स्यावतार, कुर्मावतार, वराहावतार एवं नरिसिंघवातर. सतयुग में पाप ० भाग तथा पुण्य २० भाग था. मनुष्यों की आयु १००००० वर्ष, उचाई २१ हाथ, पात्र स्वर्णमय, द्रव्य रत्नमय तथा ब्रम्हांडगत प्राण था. पुष्कर तीर्थ, स्त्रियाँ पद्मिनी तथा पतिव्रता थी. सूर्यग्रहण ३२००० तथा चंद्रग्रहण ५००० बार होते थे. सारे वर्ण अपने धर्म में लीन रहते थे. ब्राम्हण ४ वेद पढने वाले थे.
त्रेतायुग: त्रेतायुग का काल १२९६००० (बारह लाख छियान्व्वे हजार) वर्षों का होता है. इस युग में तीन मानवीय अवतार हुए. वामन, परशुराम एवं राम. त्रेता में पाप ५ भाग एवं पुण्य १५ भाग होता था. मनुष्यों की आयु १०००० वर्ष, उचाई १४ हाथ, पात्र चांदी के, द्रव्य स्वर्ण तथा अस्थिगत प्राण था. नैमिषारण्य तीर्थ, स्त्रियाँ पतिव्रता होती थी.  सूर्यग्रहण ३२०० तथा चंद्रग्रहण ५०० बार होते थे. सारे वर्ण अपने अपने कार्य में रत थे. ब्राम्हण ३ वेद पढने वाले थे.
द्वापर युग: द्वापर युग का काल ८६४००० (आठ लाख चौसठ हजार) वर्षों का होता है. इस युग में २ मानवीय अवतार हुए. कृष्ण एवं बुद्ध. इस युग में पाप १० भाग एवं पुण्य १० भाग का होता था. मनुष्यों की आयु १००० वर्ष, उचाई ७ हाथ, पात्र ताम्र, द्रव्य चांदी तथा त्वचागत प्राण था. स्त्रियाँ शंखिनी होती थी. सूर्यग्रहण ३२० तथा चंद्रग्रहण ५० हुए. वर्ण व्यवस्था दूषित थी तथा ब्राम्हण २ वेद पढने वाले थे.
कलियुग: कलियुग का काल ४३२००० (चार लाख ३२ हजार) वर्षों का होता है. इस युग में एक अवतार संभल देश, गोड़ ब्राम्हण विष्णु यश के घर कल्कि नाम से होगा. इस युग में पाप १५ भाग एवं पुण्य ५ भाग होगा. मनुष्यों की आयु १०० वर्ष, उचाई ३.५ हाथ, पात्र मिटटी, द्रव्य ताम्र, मुद्रा लौह, गंगा तीर्थ तथा अन्नमय प्राण होगा. कलियुग के अंत में गंगा पृथ्वी से लीन हो जाएगी तथा भगवान विष्णु धरती का त्याग कर देंगे. सभी वर्ण अपने कर्म से रहित होंगे तथा ब्राम्हण केवल एक वेद पढने वाले होंगे अर्थात ज्ञान का लोप हो जाएगा.

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

कन्या पूजन

हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार नवरात्र में कन्या पूजन का विशेष महत्व है। अष्टमी व नवमी तिथि के दिन तीन से नौ वर्ष की कन्याओं का पूजन किए जाने की परंपरा है। धर्म ग्रंथों के अनुसार तीन वर्ष से लेकर नौ वर्ष की कन्याएं साक्षात माता का स्वरूप मानी जाती है।

शास्त्रों के अनुसार एक कन्या की पूजा से ऐश्वर्य, दो की पूजा से भोग और मोक्ष, तीन की अर्चना से धर्म, अर्थ व काम, चार की पूजा से राज्यपद, पांच की पूजा से विद्या, छ: की पूजा से छ: प्रकार की सिद्धि, सात की पूजा से राज्य, आठ की पूजा से संपदा और नौ की पूजा से पृथ्वी के प्रभुत्व की प्राप्ति होती है।

कन्या पूजन की विधि इस प्रकार है-

कन्या पूजन में तीन से लेकर नौ साल तक की कन्याओं का ही पूजन करना चाहिए इससे कम या ज्यादा उम्र वाली कन्याओं का पूजन वर्जित है। अपने सामर्थ्य के अनुसार नौ दिनों तक अथवा नवरात्रि के अंतिम दिन कन्याओं को भोजन के लिए आमंत्रित करें। कन्याओं को आसन पर एक पंक्ति में बैठाएं। ऊँ कौमार्यै नम: मंत्र से कन्याओं का पंचोपचार पूजन करें।

इसके बाद उन्हें रुचि के अनुसार भोजन कराएं। भोजन में मीठा अवश्य हो, इस बात का ध्यान रखें। भोजन के बाद कन्याओं के पैर धुलाकर विधिवत कुंकुम से तिलक करें तथा दक्षिणा देकर हाथ में पुष्प लेकर यह प्रार्थना करें-

मंत्राक्षरमयीं लक्ष्मीं मातृणां रूपधारिणीम्।
नवदुर्गात्मिकां साक्षात कन्यामावाहयाम्यहम्॥
जगत्पूज्ये जगद्वन्द्ये सर्वशक्तिस्वरुपिणि।
पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोस्तु ते॥

तब वह पुष्प कुमारी के चरणों में अर्पण कर उन्हें ससम्मान विदा करें।

सिन्दूर


सुहागनों के श्रृंगार की अभिन्न वस्तु माना जाने वाला सिन्दूर न सिर्फ प्रत्येक देवी देवता के पूजन में सबसे पहले उपयोग किया जाता है बल्कि जीवन में आनेवाली अनेकानेक परेशानियों और दोषों को दूर करने में भी सहायक है. बिना सिन्दूर, कुंकुम, रोली के हम इस जीवन में खुशियाँ भी नहीं मना सकते है.ज्योतिष अनुसार भी सिन्दूर का अपना एक विशेष स्थान है, और तंत्र, मन्त्र या यंत्र साधना से जुड़ें क्रिया कलापों में सिन्दूर बहु प्रचलित सामग्री है.

इसका उपयोग सामान्य धार्मिक कर्मों से लेकर गूढ़ तांत्रिक कर्मों तक किया जाता है. सिन्दूर के वैसे तो अनेक प्रयोग है. किन्तु आज यहां पर कुछ सरल एवं शीघ्र फलकारी प्रयोग लिख रहा हूं जो कि हमारे ऋषि मुनियों ने मनुष्यों की भलाई के लिए शास्त्रों में किसका वर्णन किया है.इसका सविधि एवं श्रद्धापूर्वक प्रयोग करने से अवश्य ही मनोकामना पूर्ण हुई है.

१. जिन व्यक्तियों को मंगली दोष है, अथवा मंगल दोष के कारण विवाह में विलम्ब अथवा दाम्पत्य सुख में कमी का अनुभव हो रहा हो, तो उन्हें शुक्ल पक्ष के मंगलवार को श्री हनुमान जी पर सिन्दूर चढ़ाना चाहिए. यह प्रयोग नौ बार करे, तो निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी.

२. जिन व्यक्तियों को आए दिन वाहनादि से दुर्घटना का सामना करना पड़ रहा है, तो उन्हें मंगलवार के दिन श्री हनुमान जी के मंदिर में सिन्दूर दान करना चाहिए. इससे शीघ्र हो दुर्घटना का भय आदि समाप्त होता है.

३. यदि आपको आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा है तो, एकाक्षी नारियल पर सिन्दूर चड़ा कर उसे लाल वस्त्र में बांधकर माँ लक्ष्मी से धन की प्रार्थना करते हुए अपने व्यवसाय स्थल पर रख देना चाहिए इसके प्रभाव से धन की समस्या दूर होने के साधन बनते जायेंगे.

४. यदि सूर्य अथवा मंगल आपके लिए मारक ग्रह है और उनकी महादशा या अंतर्दशा चल रही है, तो सिन्दूर को बहते जल में प्रवाहित करें ऐसा करने से सम्बंधित ग्रह का प्रभाव कम हो जाता है. और सूर्य तथा मंगल, मारक न बन कर शुभ ग्रह का फल देने लगते है.

५. यदि प्रतियोगी परीक्षा में आप बैठ रहे है, तो गुरु-पुष्य योग में अथवा शुक्ल पक्ष के पुष्य योग में श्री गणेश जी के मंदिर में सिन्दूर का दान करने से परीक्षा में परिश्रम से अधिक सफलता प्राप्त होगी, तथा आत्मविश्वास की वृद्धि भी होगी.

६. यदि रक्त से सम्बंधित किसी रोग से आप पीड़ित है, तो सिन्दूर को अपने ऊपर से उसारकर बहते हुए जल में प्रवाहित करें, ऐसा करने से रोग में लाभ मिलता है. और रोग शीघ्र शांत हो जाता है.

७. जिन व्यक्तियों को नजर अधिक लगती है, इन्हें सम्भव हो सके तो प्रत्येक दिन अन्यथा मंगलवार और शनिवार को श्री हनुमान जी के मंदिर में जाकर उनके चरणों से थोड़ा सा सिन्दूर लेकर अपने मस्तक पर धारण करना चाहिए ऐसा करने से नजर दोष से बचाव हो जाता है.

८. यदि आपके ऊपर किसी ने अभिचार कर दिया है, अथवा भूत, प्रेत आदि उपरी बाधा से पीड़ित है, तो अपने क्षेत्र के प्रसिद्द श्री हनुमान मंदिर में सिन्दूर का चोला चढाना चाहिए ऐसा पांच बार करें. सारी बाधाए एकदम समाप्त होने लगेंगी.

९. यदि आपके ऊपर अभिचार कर्म किये जाने की आशंका हो, तो शनिवार को दोपहर में किसी एकांत चौराहे पर नींबू काटकर उसके चार फांक कर ले और उसमे सिन्दूर डाल कर उसे चारों दिशाओं में फेंक दे. ऐसा करने से आपके शत्रु द्वारा किया गया अभिचार कर्म पूर्ण रूप से समाप्त हो जायगा.

१०. अपने घर के मुख्यद्वार के ऊपर सिन्दूर चढ़ी हुई श्री गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करने से घर में सुख समृद्धि एवं शान्ति बनी रहती है.

११. यदि आप कर्जों से परेशान है. अथवा व्यवसाय में बाधा उत्पन्न हो रही हो अथवा आय में वृद्धि नहीं हो पा रही हो, तो सिन्दूर का यह प्रयोग आपके लिए अत्यंत लाभकारी रहेगा, एक सियार सिंगी लेकर उसे एक डिब्बी में रख ले और उसे प्रत्येक पुष्य नक्षत्र में सिन्दूर चढाते रहे. ऐसा करने से शीघ्र ही शुभ फल मिलेगा.

१२. अपनी तिजोरी में सिन्दूर युक्त हत्था जोड़ी रखने से आर्थिक लाभ में वृद्धि होने लगती है.

१३. जो महिलाए अपने परिवार और पति को स्वस्थ और आर्थिक समस्या से मुक्त देखना चाहती है, उन्हें प्रतिदिन अपनी मांग में सिदूर प्रातः और संध्या के समय अवश्य भरना चाहिए. मांग में सिन्दूर भरने से शास्त्र में वर्णित है कि जो महिला अपनी मांग नित्य प्रातः और संध्या के समय भरती है उसका परिवार हमेशा रोगमुक्त, भयमुक्त तथा संपन्न रहता है. औए पति की आयु में वृद्धि होती है घर में कभी कर्ज नहीं चढता है और वह महिला सदा सुहागन का जीवन व्यतीत करती है.

१४. जो महिला कामकाजी है यदि वो सिन्दूर से प्रतिदिन अपनी मांग भरती है तो उसकी उन्नति होने लगती है. तथा घर बरकत बनी रहती है.

१५. मांग भरने से महिला के ससुराल पक्ष को ही लाभ नहीं मिलता बल्कि उसके मायके परिवार में भी लाभ होता है. उसके भाई- बहनों से अच्छे सम्बन्ध होने लगते है. तथा सदभाव बढता है. किसी भी प्रकार के भेदभाव समाप्त हो जाते है चाहे वह ससुराल या मायके के पक्ष के हो.

इस प्रकार एक सिन्दूर हमारे जीवन में अनेक खुशियों के लेकर आता है. आज ही सिन्दूर का उपयोग करें और अपने घर से दुर्भाग्य को दूर कर दे।

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

क्या आप जानते हैं कि....


हमारे हिन्दू सनातन धर्म की परम्पराओं में ..... मंगलवार, गुरूवार और शनिवार को ...""बाल एवं नाख़ून" कटवाने से क्यों मना किया जाता है...?????

क्योंकि ... आजकल ये बात तो लगभग हर किसी को मालूम है कि.... ऐसा नहीं करना चाहिए....
लेकिन, ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए .... शायद ही किसी को मालूम हो...!

और... इसका परिणाम ये होता है कि....
जाने-अनजाने.... हम हिन्दू स्वयं ही.... अपनी परम्पराओं को ..... अन्धविश्वास घोषित कर देते हैं ... और, उसका पालन करना .... अपनी आधुनिक शिक्षा के खिलाफ समझते हैं...!

जबकि.... सच्चाई ये है कि....

हम हिन्दुओं के अधिकतर परंपराओं और रीति-रिवाजों के पीछे....... एक सुनिश्वित एवं ठोस वैज्ञानिक कारण होता है...!

और इसीलिए.... आज भी हम.... घर के बड़े और बुजुर्गों को यह कहते हुए सुनते हैं कि.......मंगलवार, गुरूवार और शनिवार के दिन....... बाल और नाखून भूल कर भी नहीं काटने चाहिए...!

असल में ..... जब हम अंतरिक्ष विज्ञान और ज्योतिष की प्राचीन और प्रामाणिक पुस्तकों का अध्ययन करते हैं तो ......हमें इन प्रश्रों का बड़ा ही स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान प्राप्त होता है...!

होता यह कि..... मंगलवार, गुरुवार और शनिवार के दिन ....... ग्रह-नक्षत्रों की दशाएं तथा अंनत ब्रह्माण्ड में से आने वाली अनेकानेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म किरणें ( कॉस्मिक रेज़ ) ....मानवीय शरीर एवं मस्तिष्क पर अत्यंत संवेदनशील प्रभाव डालती हैं।

और..... अब वैज्ञानिक विश्लेषणों से यह भी स्पष्ट है कि ...... इंसानी शरीर में उंगलियों के अग्र भाग तथा सिर अत्यंत संवेदनशील होते हैं... तथा, कठोर नाखूनों और बालों से इनकी सुरक्षा होती है...!

इसीलिये ऐसे प्रतिकूल समय में ....... इनका काटना शास्त्रों के अनुसार वर्जित, निंदनीय और अधार्मिक कार्य माना गया है।

यह बेहद सामान्य सी बात है कि.... हर किसी का मानसिक स्तर एक समान नहीं होता है...... ना ही हर किसी को..... एक-एक कर ... हर बात की वैज्ञानिकता समझाना संभव हो पाता....

इसीलिए... हमारे ऋषि-मुनियों ने ..... गूढ़ से गूढ़ बातों को भी ...... हमारी परम्परों और रीति-रिवाजों का हिस्सा बना दिया.... ताकि, हम जन्म-जन्मांतर तक .... अपने पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञान से लाभान्वित होते रहें...!

जानो ... समझो और अपनी अक्ल लगाओ हिन्दुओं .....

क्योंकि... अक्ल हमेशा ही भैस से बड़ी होती है....!! Rakesh Tiwari

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

भगवान की पूजा से जुड़ी ११ खास बातें

ये हैं भगवान की पूजा से जुड़ी ११ खास बातें, आप भी जानिए देवी-देवताओं का पूजन हिंदू धर्म का अभिन्न अंग है। पूजन के अभाव में हिंदू धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हिंदू धर्म को मानने वाला प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन किसी न किसी रूप में भगवान का स्मरण अवश्य करता है। हिंदू धर्म ग्रंथों में पूजन के संबंधित बहुत ही बातें बताई गई हैं लेकिन जानकारी के अभाव में बहुत से लोग ये बातें नहीं जानते।
हमारे धर्म ग्रंथों में कुछ विशेष फूल या वस्तु किसी विशेष देवता को अर्पित करना वर्जित माना गया है। पूजन से जुड़ी ऐसी अनेक छोटी-छोटी मगर बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं इसलिए इन बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है।
आज हम आपको देवी-देवताओं के पूजन से जुड़ी कुछ ऐसी ही खास बातें बता रहे हैं।

१- सूर्य, गणेश, दुर्गा, शिव और विष्णु को पंचदेव कहा गया है। सुख की इच्छा रखने वाले हर मनुष्य को प्रतिदिन इन पांचों देवों की पूजा अवश्य करनी चाहिए। किसी भी शुभ कार्य से पहले भी इनकी पूजा अनिवार्य है।

२- शिवजी की पूजा में कभी भी केतकी के फूलों का उपयोग नहीं करना चाहिए। सूर्यदेव की पूजा में अगस्त्य के फूल वर्जित हैं। भगवान श्रीगणेश को तुलसी के पत्ते नहीं चढ़ाने चाहिए।

३- सुबह स्नान करने के बाद जो मनुष्य देवताओं के लिए फूल तोड़ देवताओं को अर्पित करता है, उसे देवगण प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं। वायुपुराण के अनुसार जो भी व्यक्ति बिना स्नान किए तुलसी के पत्ते तोड़ता है व देवताओं को अर्पित करता है, ऐसी पूजा को देवता ग्रहण नहीं करते।

४- देवताओं के पूजन में अनामिका अंगुली से गंध लगाने का विधान हमारे शास्त्रों में वर्णित है। देवताओं की पूजा के लिए घी का दीपक अपनी बाईं ओर तथा तेल का दीपक अपनी दाईं ओर रखना चाहिए।

५- तंत्र शास्त्र के अनुसार पूजन में देवताओं को धूप, दीप अवश्य दिखाना चाहिए तथा नेवैद्य (भोग) भी जरुर होना चाहिए। देवताओं के लिए जलाए गए दीपक को स्वयं कभी नहीं बुझाना चाहिए।

६- पूजन में बासी जल, फूल और पत्तों का त्याग करना चाहिए। किंतु शास्त्रों के मतानुसार गंगाजल, तुलसीपत्र, बिल्वपत्र और कमल ये किसी भी अवस्था में बासी नहीं होते।

७- लिंगार्चन चंद्रिका के अनुसार भगवान सूर्य की सात, श्रीगणेश की तीन, विष्णु की चार और शिव की तीन परिक्रमा करनी चाहिए। कुछ ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव की आधी परिक्रमा करने का ही निर्देश है।

८- पूजन स्थल के ऊपर कोई कबाड़ या वजनी चीज न रखें। पूजन स्थल पर पवित्रता का ध्यान रखें जैसे- चप्पल पहनकर कोई स्थापना स्थल तक न जाए, चमड़े का बेल्ट या पर्स रखकर कोई पूजा न करें आदि।

९- शिवमहापुराण के अनुसार श्रीगणेश को जो दूर्वा चढ़ाई जाती है वह जडऱहित, बारह अंगुल लंबी और तीन गांठों वाली होना चाहिए। ऐसी १०१ या १२१ दूर्वा से श्रीगणेश की पूजा करना चाहिए।

१०- विष्णु को प्रसन्न करने के लिए पीले रंग का रेशमी वस्त्र अर्पित करना चाहिए तथा शक्ति और सूर्य तथा गणेश को प्रसन्न करने के लिए लाल रंग के वस्त्र अर्पित करना चाहिए। भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए सफेद वस्त्र अर्पित करने का विधान है।

११- भगवान शिव को हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए और न ही शंख से जल चढ़ाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार ये दोनों कर्म शिव पूजा में निषेध हैं। पूजन में एक बात का विशेष ध्यान रखें कि पूजन स्थल की सफाई प्रतिदिन करें। पूजन स्थल पर कचरा इत्यादि न जमा हो पाए।

शनिवार, 9 अगस्त 2014

गृह प्रवेश

नूतन गृह प्रवेश के लिये वास्तु पूजा का विधान
घर के मध्यभाग में तन्दुल यानी चावल पर पूर्व से पश्चिम की तरफ़ एक एक हाथ लम्बी दस रेखायें खींचे,फ़िर उत्तर से दक्षिण की भी उतनी ही लम्बी चौडी रेखायें खींचे,इस प्रकार उसमे बराबर के ८१ पद बन जायेंगे,उनके अन्दर आगे बताये जाने वाले ४५ देवताओं का यथोक्त स्थान में नामोल्लेख करें,बत्तीस देवता बाहर वाली प्राचीर और तेरह देवता भीतर पूजनीय होते हैं। उनके लिये सारणी को इस प्रकार से बना लेवें:

शिखी पर्जन्य जयन्त इन्द्र सूर्य सत्य भृश आकाश वायु
दिति आप जयन्त इन्द्र सूर्य सत्य भृश सावित्र पूषा
अदिति अदिति आपवत्स अर्यमा अर्यमा अर्यमा सविता वितथ वितथ
सर्प सर्प पृथ्वीधर विवस्वान गृहक्षत गृहक्षत
सोम सोम पृथ्वीधर ब्रह्मा विवस्वान यम यम
भल्लाटक भल्लाटक पृथ्वीधर विवस्वान गन्धर्व गन्धर्व
मुख्य मुख्य राज्यक्षमा मित्र मित्र मित्र विवुधिप भृंग भृंग
अहि रुद्र शेष असुर वरुण पुष्पदन्त सुग्रीव जय मृग
रोग राज्यक्षमा शेष असुर वरुण पुष्पदन्त सुग्रीव दौवारिक पितर

इस प्रकार से ४५ देवताओं को स्थापित कर लेना चाहिये,और यही ४५ देवता पूजनीय होते है,आप,आपवर्स पर्जन्य अग्नि और दिति यह पांच देवता एक पद होते है,और यह ईशान में पूजनीय होते है,उसी प्रकार से अन्य कोणों में भी पांच पांच देवता भी एक पद के भागी है,अन्य झो बाह्य पंक्ति के बीस देवता है,वे सब द्विपद के भागी है,तथा ब्रह्मा सी पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशामें जो अर्यमा विवस्वान मित्र और पृथ्वीधर ये चार देवता है,वे त्रिपद के भागी है,अत: वास्तु की जानकारी रखने वाले लोग ब्रह्माजी सहित इन एक पद,द्विपद और त्रिपद देवताओं का वास्तु मन्त्रों से दूर्वा,दही,अक्षत,फ़ूल,चन्दन धूप दीप और नैवैद्य आदि से विधिवत पूजन करें,अथवा ब्राह्ममंत्र से आवहनादि षोडस या पन्च उपचारों द्वारा उन्हे दो सफ़ेद वस्त्र समर्पित करें,नैवैद्य में तीन प्रकार के भक्ष्य,भोज्य,और लेह्य अन्न मांगलिक गीत और वाद्य के साथ अर्पण करे,अन्त में ताम्बूल अर्पण करके वास्तु पुरुष की इस प्रकार से प्रार्थना करे- "वास्तुपुरुष नमस्तेऽस्तु भूशय्या निरत प्रभो,मदगृहं धनधान्यादिसमृद्धं कुरु सर्वदा", भूमि शय्या पर शयन करने वाले वास्तुपुरुष ! आपको मेरा नमस्कार है। प्रभो ! आप मेरे घरको धन धान्य आदि से सम्पन्न कीजिये।
इस प्रकार प्रार्थना करके देवताओं के समक्ष पूजा कराने वाले पुरोहित को यथाशक्ति दक्षिणा दे तथा अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हे भी दक्षिणा दे,जो मनुष्य सावधान होकर गृहारम्भ में या गृहप्रवेश के समय इस विधि से वास्तुपूजा करता है,वह आरोग्य पुत्र धन और धान्य प्राप्त करके सुखी होता है,जो मनुष्य वास्तु पूजा न करके नये घर में प्रवेश करता है,वह नाना प्रकार के रोगों,क्लेश,और संकटों से जूझता रहता है।
जिन मकानों में किवाड नही लगाये गये हो,जिनके ऊपर छाया नही की गयी हो,जिस मकान के अन्दर अपनी परम्परा के अनुसार पूजा और वास्तुकर्म नही किये गये हो,उस घर में प्रवेश करने का अर्थ नरक मे प्रवेश करना होता है॥

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

Kundali

शरीर, परिश्रम, धन आदि तभी सार्थक होंगे जब कार्य करने की भावना होगी, रूचि होगी अन्यथा सब व्यर्थ है। अत: कामनाओं, भावनाओं को चतुर्थ भाव रखा गया है। चतुर्थ भाव का संबंध मन-भावनाओं के विकास से है। मनुष्य के पास शरीर, धन, परिश्रम, शक्ति, इच्छा सभी हों, किंतु कार्य करने की तकनीकी जानकारी का अभाव हो अर्थात वैचारिक शक्ति का अभाव हो अथवा कर्म विधि का ज्ञान न हो तो जीवन में उन्नति मिलना मुश्किल है। पंचम भाव का संबंध मनुष्यकी वैचारिक शक्ति के विकास से है यदि मनुष्य अड़चनों, विरोधी शक्तियों, मुश्किलों आदि से लड़ न पाए तो जीवन निखरता नहीं है। अत: षष्ठ भाव शत्रु, विरोध, कठिनाइयों आदि से संबंधित है। मनुष्य में यदि दूसरों से मिलकर चलने की शक्ति न हो और वीर्य शक्ति न हो तो वह जीवन में असफल समझा जाएगा। अत: मिलकर चलने की आदत व वीर्यशक्ति आवश्यक है और उसके लिए भागीदार, जीवनसाथी की आवश्यकता होती ही है। 

अत: वीर्य जीवनसाथी, भागीदार आदि का विचार सप्तम भाव से किया जाता है। यदि मनुष्य अपने साथ आयु लेकर न आए तो उसका रंग-रूप, स्वास्थ्य, गुण, व्यापार आदि कोशिशें सब बेकार अर्थात व्यर्थ हो जाएंगी। अत: अष्टम भाव को आयु भाव माना गया है। आयु का विचार अष्टम से करना चाहिए। नवम स्थान को धर्म व भाग्य स्थान माना है। धर्म-कर्म अच्छे होने पर मनुष्य के भाग्य में उन्नति होती है और इसीलिए धर्म और भाग्य का स्थान नवम माना गया है। दसवें स्थान अथवा भाव को कर्म का स्थान दिया गया है। अत: जैसा कर्म हमने अपने पूर्व में किया होगा उसी के अनुसार हमें फल मिलेगा। एकादश स्थान प्राप्ति स्थान है। हमने जैसे धर्म-कर्म किए होंगे उसी के अनुसार हमें प्राप्ति होगी अर्थात अर्थ लाभ होगा, क्योंकि बिना अर्थ सब व्यर्थ है आज इस अर्थ प्रधान युग में। द्वादश भाव को मोक्ष स्थान माना गया है। अत: संसार में आने और जन्म लेने के उद्देश्य को हमारी जन्मकुंडली क्रम से इसी तथ्य को व्यक्त करती है।

विधि का विधान है कि मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष तक पहुंचे अर्थात प्रथम भाव से द्वादश भाव तक पहुंचे। किसी भी मनुष्य के जीवनारंभ से लेकर मृत्यु तक जो भी सांसारिक अथवा जिन अन्य वस्तुओं आदि की आवश्यकता मनुष्य को पड़ती है उसका संबंध प्रथम (पहले) भाव से द्वादश (बारहवें) भाव से होता है। मनुष्य के लिए संसार में सबसे पहली घटना उसका इस पृथ्वी पर जन्म है, इसीलिए प्रथम भाव जन्म भाव कहलाता है। 

जन्म लेने पर जो वस्तुएं मनुष्य को प्राप्त होती हैं उन सब वस्तुओं का विचार अथवा संबंध प्रथम भाव से होता है जैसे- रंग-रूप, कद, जाति, जन्म स्थान तथा जन्म समय की बातें। मनुष्य को शरीर तो प्राप्त हो गया, किंतु शरीर को गतिमान बनाए रखने के लिए खाद्य पदार्थों, धन अथवा कुटुंब की आवश्यकता होती है। इसीलिए खाद्य पदार्थ, धन, कुटुंब आदि का संबंध द्वितीय भाव से है। धन अथवा अन्य आवश्यकता की वस्तुएं बिना श्रम के प्राप्त नहीं हो सकतीं और बिना परिश्रम के धन टिक नहीं सकता। धन-धान्य इत्यादि वस्तुएं आदि रखने के लिए बल आदि की आवश्यकता होती है इसीलिए तृतीय भाव का संबंध, बल, परिश्रम व बाहु से होता है।

क्या चढ़ाने से हो सकती है आपकी शिव पूजा बेकार, जानें

भोलेनाथ को देवों के देव यानी महादेव भी कहा जाता है। कहते हैं कि शिव आदि और अनंत हैं। शिव ही एक मात्र ऐसे देवता हैं जिनकी लिंग रूप में भी पूजा जाता है। शिव को प्रसन्न करने के लिए उन्हें अनेक ऐसी चीजें पूजा में अर्पित की जाती हैं जो और किसी देवता को नहीं चढ़ाई जाती। जैसे आंक, बिल्वपत्र, भांग आदि। लेकिन शास्त्रों के अनुसार, कुछ चीज़ें शिव पूजा में कभी उपयोग नहीं करनी चाहिए...
हल्दी
धार्मिक कार्यों में हल्दी का महत्वपूर्ण स्थान है। कई पूजन कार्य हल्दी के बिना पूर्ण नहीं माने जाते। लेकिन हल्दी, शिवजी के अलावा सभी देवी-देवताओं को अर्पित की जाती है। हल्दी का स्त्री सौंदर्य प्रसाधन में मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार शिवलिंग पुरुषत्व का प्रतीक है, इसी वजह से महादेव को हल्दी इसीलिए नहीं चढ़ाई जाती है। शिवलिंग पर हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए परंतु जलाधारी पर चढ़ाई जानी चाहिए। शिवलिंग दो भागों से मिलकर बनी होती है। एक भाग शिवजी का प्रतीक है और दूसरा हिस्सा माता पार्वती का। शिवलिंग चूंकि पुरुषत्व का प्रतिनिधित्व करता है अत: इस पर हल्दी नहीं चढ़ाई जाती है। हल्दी स्त्री सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री है और जलाधारी मां पार्वती से संबंधित है अत: इस पर हल्दी जाती है।
फूल
शिव को कनेर, और कमल के अलावा लाल रंग के फूल प्रिय नहीं हैं। शिव को केतकी और केवड़े के फूल चढ़ाने का निषेध किया गया है। सफेद रंग के फूलों से शिव जल्दी प्रसन्न होते हैं। कारण शिव कल्याण के देवता हैं। सफेद शुभ्रता का प्रतीक रंग है। जो शुभ्र है, सौम्य है, शाश्वत है वह श्वेत भाव वाला है। यानि सात्विक भाव वाला। पूजा में शिव को आक और धतूरा के फूल अत्यधिक प्रिय हैं। इसका कारण शिव वनस्पतियों के देवता हैं। अन्य देवताओं को जो फूल बिल्कुल नहीं चढ़ाए जाते, वे शिव को प्रिय हैं। उन्हें मौलसिरी चढ़ाने का उल्लेख मिलता है। एक धारना के अनुसार, शिव पूजा में तरह-तरह के फूलों को चढ़ाने से अलग-अलग तरह की इच्छाएं पूरी हो जाती है। जानिए किस कामना के लिए कैसा फूल शिव को चढ़ाएं.. वाहन सुख के लिए चमेली का फूल। दौलतमंद बनने के लिए कमल का फूल, शंखपुष्पी या बिल्वपत्र। विवाह में समस्या दूर करने के लिए बेला के फूल। इससे योग्य वर-वधू मिलते हैं। पुत्र प्राप्ति के लिए धतुरे का लाल फूल वाला धतूरा शिव को चढ़ाएं। यह न मिलने पर सामान्य धतूरा ही चढ़ाएं। मानसिक तनाव दूर करने के लिए शिव को शेफालिका के फूल चढ़ाएं। जूही के फूल को अर्पित करने से अपार अन्न-धन की कमी नहीं होती।
अगस्त्य के फूल से शिव पूजा करने पर पद, सम्मान मिलता है। शिव पूजा में कनेर के फूलों के अर्पण से वस्त्र-आभूषण की इच्छा पूरी होती है। लंबी आयु के लिए दुर्वाओं से शिव पूजन करें। सुख-शांति और मोक्ष के लिए महादेव की सफेद कमल के फूलों से पूजा करें।
अनाज
इसी तरह भगवान शिव की प्रसन्नता से मनोरथ पूरे करने के लिए शिव पूजा में कई तरह के अनाज चढ़ाने का महत्व बताया गया है। इसलिए श्रद्धा और आस्था के साथ इस उपाय को भी करना न चूकें। जानिए किस अन्न के चढ़ावे से कैसी कामना पूरी होती है...शिव पूजा में गेहूं से बने व्यंजन चढ़ाने पर कुंटुब की वृद्धि होती है। मूंग से शिव पूजा करने पर हर सुख और ऐश्वर्य मिलता है। चने की दाल अर्पित करने पर श्रेष्ठ जीवन साथी मिलता है। कच्चे चावल अर्पित करने पर कलह से मुक्ति और शांति मिलती है। तिलों से शिवजी पूजा और हवन में एक लाख आहुतियां करने से हर पाप का अंत हो जाता है। उड़द चढ़ाने से ग्रहदोष और खासतौर पर शनि पीड़ा शांति होती है।

भगवान शिव के १२ ज्योर्तिलिंग देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित हैं. जिसे साक्षात शिवस्वरूप माना जाता है. शास्त्रों के मुताबिक हर दिन भगवान शिव २४ घंटे में एक बार शिवलिंग में स्थित होते हैं इसलिए अपनी राशि के मुताबिक ज्योर्तिर्लिंग का ध्यान करते हुए शिव आराधना करने से विशेष लाभ मिलते हैं...शिव की पूजा के बाद ऽह्रीं ओम नमः शिवाय ह्रींऽ इस मंत्र का १०८ बार जप करें. शहद, गु़ड़, गन्ने का रस, लाल पुष्प चढ़ाएं. इस राशि के व्यक्ति मल्लिकार्जुन का ध्यान करते हुए ऽओम नमः शिवायऽ मंत्र का जप करें और कच्चे दूध, दही, श्वेत पुष्प चढ़ाएं. महाकालेश्वर का ध्यान करते हुए ऽओम नमो भगवते रूद्रायऽ मंत्र का यथासंभव जप करें. हरे फलों का रस, मूंग, बेलपत्र आदि चढाएं. शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए ऽओम हौं जूं सःऽ मंत्र का जितना संभव हो जप करें और शिवलिंग पर कच्चा दूध, मक्खन, मूंग, बेलपत्र आदि चढाएं. ऽओम त्र्यंबकं यजामहे सुगंधि पुष्टिवर्धनम, उर्वारूकमिव बन्ध्नान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्.ऽ इस मंत्र का कम से कम ५१ बार जप करें. इसके साथ ही ज्योतिर्लिंग पर शहद, गु़ड़, शुद्ध घी, लाल पुष्प आदि चढाएं. ओम नमो भगवते रूद्रायऽ मंत्र का यथासंभव जप करें. हरे फलों का रस, बिल्वपत्र, मूंग, हरे व नीले पुष्प. शिव पंचाक्षरी मंत्र ऽओम नमः शिवायऽ का १०८ बार जप करें और दूध, दही, घी, मक्खन, मिश्री चढ़ाएं.

‘ह्रीं ओम नमः शिवाय ह्रींऽ मंत्र का जप करें और शहद, शुद्ध घी, गु़ड़, बेलपत्र, लाल पुष्प शिवलिंग पर अर्पित करें.
इस राशि वाले ऽओम तत्पुरूषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रूद्रः प्रचोदयात॥ऽ इस मंत्र से शिव की पूजा करें. धनु राशि वाले मंत्र जाप के अलावा शिवलिंग पर शुद्ध घी, शहद, मिश्री, बादाम, पीले पुष्प, पीले फल चढ़ाएं. त्रयम्बकेश्वर का ध्यान करते हुए ऽओम नमः शिवायऽ मंत्र का ५ माला जप करें. इसके अलावा भगवान शिव का सरसों का तेल, तिल का तेल, कच्चा दूध, जामुन, नीले पुष्प से अभिषेक करें. कुंभ राशि के स्वामी भी शनि देव हैं इसलिए इस राशि के व्यक्ति भी मकर राशि की तरह ऽओम नमः शिवायऽ का जप करें. जप के समय केदरनाथ का ध्यान करें. कच्चा दूध, सरसों का तेल, तिल का तेल, नीले पुष्प चढाएं. ओम तत्पुरूषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रूद्र प्रचोदयात॥ इस मंत्र का जितना अधिक हो सके जप करें. गन्ने का रस, शहद, बादाम, बेलपत्र, पीले पुष्प, पीले फल चढाएं.

रूद्राभिषेक महत्वपूर्ण पूजा विधि

भोले में समायी है सारी दुनिया. जगत के कण-कण में है महादेव का वास. तभी तो महादेव हर रूप में करते हैं भक्तों का कल्याण. फिर चाहे महादेव की प्रतिमा की पूजा हो या फिर लिंग रूप उनकी आराधना.
धरती पर शिवलिंग को शिव का साक्षात स्वरूप माना जाता है तभी तो शिवलिंग के दर्शन को स्वयं महादेव का दर्शन माना जाता है और इसी मान्यता के चलते भक्त शिवलिंग को मंदिरों में और घरों में स्थापित कर उसकी पूजा अर्चना करते हैं. यू को भोले भंडारी एक छोटी सी पूजा से हो जाते हैं प्रसन्न लेकिन शिव आराधना की सबसे महत्वपूर्ण पूजा विधि रूद्राभिषेक को माना जाता है. रूद्राभिषेक... क्योंकि मान्यता है कि जल की धारा भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है और उसी से हुई है रूद्रभिषेक की उत्पत्ति. रूद्र यानी भगवान शिव और अभिषेक का अर्थ होता है स्नान करना. शुद्ध जल या फिर गंगाजल से महादेव के अभिषेक की विधि सदियों पुरानी है क्योंकि मान्यता है कि भोलभंडारी भाव के भूखे हैं. वह जल के स्पर्श मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं. वो पूजा विधि जिससे भक्तों को उनका वरदान ही नहीं मिलता बल्कि हर दर्द हर तकलीफ से छुटकारा भी मिल जाता है.

साधारण रूप से भगवान शिव का अभिषेक जल या गंगाजल से होता है परंतु विशेष अवसर व विशेष मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए दूध, दही, घी, शहद, चने की दाल, सरसों तेल, काले तिल, आदि कई सामग्रियों से महादेव के अभिषेक की विधि प्रचिलत है. तो कैसे महादेव का अभिषेक कर आप उनका आशीर्वाद पाएं उससे पहले ये जानना बहुत जरूरी है कि किस सामग्री से किया गया अभिषेक आपकी कौन सी मनोकामनाओं को पूरा कर सकता है साथ ही रूद्राभिषेक को करने का सही विधि-विधान क्या हो क्योंकि मान्यता है कि अभिषेक के दौरान पूजन विधि के साथ-साथ मंत्रों का जाप भी बेहद आवश्यक माना गया है फिर महामृत्युंजय मंत्र का जाप हो, गायत्री मंत्र हो या फिर भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र.

१) जल से अभिषेक
  1. - हर तरह के दुखों से छुटकारा पाने के लिए भगवान शिव का जल से अभिषेक करें
  2. - भगवान शिव के बाल स्वरूप का मानसिक ध्यान करें
  3. - ताम्बे के पात्र में ऽशुद्ध जलऽ भर कर पात्र पर कुमकुम का तिलक करें
  4. - ॐ इन्द्राय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें
  5. - पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय" का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें
  6. - शिवलिंग पर जल की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें
  7. - अभिषेक करेत हुए ॐ तं त्रिलोकीनाथाय स्वाहा मंत्र का जाप करें
  8. - शिवलिंग को वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें
२) दूध से अभिषेक
  1. - शिव को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद पाने के लिए दूध से अभिषेक करें 
  2. - भगवान शिव के ऽप्रकाशमयऽ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें
  3. - ताम्बे के पात्र में ऽदूधऽ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें
  4. - ॐ श्री कामधेनवे नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें
  5. - पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवायऽ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें 
  6. - शिवलिंग पर दूध की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें. 
  7. - अभिषेक करते हुए ॐ सकल लोकैक गुरुर्वै नम: मंत्र का जाप करें 
  8. - शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें 
३) फलों का रस
  1. - अखंड धन लाभ व हर तरह के कर्ज से मुक्ति के लिए भगवान शिव का फलों के रस से अभिषेक करें
  2. - भगवान शिव के ऽनील कंठऽ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें 
  3. - ताम्बे के पात्र में ऽगन्ने का रसऽ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें
  4. - ॐ कुबेराय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें
  5. - पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें
  6. - शिवलिंग पर फलों का रस की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें
  7. - अभिषेक करते हुए -ॐ ह्रुं नीलकंठाय स्वाहा मंत्र का जाप करें
  8. - शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें
४) सरसों के तेल से अभिषेक
  1. - ग्रहबाधा नाश हेतु भगवान शिव का सरसों के तेल से अभिषेक करें
  2. - भगवान शिव के ऽप्रलयंकरऽ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें
  3. - ताम्बे के पात्र में ऽसरसों का तेलऽ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें
  4. - ॐ भं भैरवाय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें
  5. - पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय" का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें 
  6. - शिवलिंग पर सरसों के तेल की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें.
  7. - अभिषेक करते हुए ॐ नाथ नाथाय नाथाय स्वाहा मंत्र का जाप करें
  8. - शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करे
५) चने की दाल
  1. - किसी भी शुभ कार्य के आरंभ होने व कार्य में उन्नति के लिए भगवान शिव का चने की दाल से अभिषेक करें
  2. - भगवान शिव के ऽसमाधी स्थितऽ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें
  3. - ताम्बे के पात्र में ऽचने की दालऽ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें
  4. - ॐ यक्षनाथाय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें
  5. - पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें
  6. - शिवलिंग पर चने की दाल की धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें
  7. - अभिषेक करेत हुए -ॐ शं शम्भवाय नम: मंत्र का जाप करें
  8. - शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें
६) काले तिल से अभिषेक
  1. - तंत्र बाधा नाश हेतु व बुरी नजर से बचाव के लिए काले तिल से अभिषेक करें
  2. - भगवान शिव के ऽनीलवर्णऽ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें
  3. - ताम्बे के पात्र में ऽकाले तिलऽ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें
  4. - ॐ हुं कालेश्वराय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें
  5. - पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें
  6. - शिवलिंग पर काले तिल की धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें
  7. - अभिषेक करते हुए -ॐ क्षौं ह्रौं हुं शिवाय नम: का जाप करें
  8. - शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें
७) शहद मिश्रित गंगा जल
  1. - संतान प्राप्ति व पारिवारिक सुख-शांति हेतु शहद मिश्रित गंगा जल से अभिषेक करें
  2. - भगवान शिव के ऽचंद्रमौलेश्वरऽ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें
  3. - ताम्बे के पात्र में " शहद मिश्रित गंगा जल" भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें
  4. - ॐ चन्द्रमसे नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें
  5. - पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवायऽ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें
  6. - शिवलिंग पर शहद मिश्रित गंगा जल की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें
  7. - अभिषेक करते हुए -ॐ वं चन्द्रमौलेश्वराय स्वाहाऽ का जाप करें
  8. - शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें
८) घी व शहद
  1. - रोगों के नाश व लम्बी आयु के लिए घी व शहद से अभिषेक करें
  2. - भगवान शिव के ऽत्रयम्बकऽ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें
  3. - ताम्बे के पात्र में ऽघी व शहदऽ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें
  4. - ॐ धन्वन्तरयै नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें
  5. - पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय" का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें
  6. - शिवलिंग पर घी व शहद की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें.
  7. - अभिषेक करते हुए -ॐ ह्रौं जूं स: त्रयम्बकाय स्वाहा" का जाप करें 
  8. - शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें
९ ) कुमकुम केसर हल्दी
  1. - आकर्षक व्यक्तित्व का प्राप्ति हेतु भगवान शिव का कुमकुम केसर हल्दी से अभिषेक करें 
  2. - भगवान शिव के ऽनीलकंठऽ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें
  3. - ताम्बे के पात्र में ऽकुमकुम केसर हल्दी और पंचामृतऽ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें - ऽॐ उमायै नम:ऽ का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें
  4. - पंचाक्षरी मंत्र ऽॐ नम: शिवायऽ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें 
  5. - पंचाक्षरी मंत्र पढ़ते हुए पात्र में फूलों की कुछ पंखुडियां दाल दें-ऽॐ नम: शिवायऽ
  6. - फिर शिवलिंग पर पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें.
  7. - अभिषेक का मंत्र-ॐ ह्रौं ह्रौं ह्रौं नीलकंठाय स्वाहाऽ
  8. - शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

रक्षाबन्धन

रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छिदम्।
सदा सन्निहितं वीरं तत्र मां दृक्ष्यते भवान्॥ भागवत​.
रक्षाबन्धन एक हिन्दू त्यौहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार २०१४ में रक्षाबन्धन रविवार​, १० अगस्त को मनाया जायेगा। रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है। राखी कच्चे सूत से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की होती है। राखी बहनें भाई को बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बन्धियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी कभी सार्वजनिक रूप से किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है।

अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बाँधने की परम्परा भी प्रारम्भ हो गयी है। भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरुष सदस्य परस्पर भाईचारे के लिये एक दूसरे को भगवा रंग की राखी बाँधते हैं। हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है। इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ, तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न होना।
येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥

राखी और आधुनिक तकनीकी माध्यम
आज के आधुनिक तकनीकी युग एवं सूचना सम्प्रेषण युग का प्रभाव राखी जैसे त्योहार पर भी पड़ा है। मेरे ही जैसे बहुत सारे भाई अपनी बहनों से दूर प्रदेशों में व्यवसाय या नौकरी करते है पर किन्हीं कारण छुट्टी न मिलने से इनका यह त्योहार फीका हो जाता है। इण्टरनेट के आने के बाद कई सारी ई-कॉमर्स साइट खुल गयी हैं जो ऑनलाइन आर्डर लेकर राखी दिये गये पते पर पहुँचाती है। मैं भी इस बार की राखी में अपने घर पहुँचने में असमर्थ हूँ। पर जबलपुर की मेरी बहन ने मुझे राखी मेरे पते पर मुम्ब​ई भेजदिया। मैं बहुत खुश हूँ। पर मुझे अपनी बहनों से मिलने का दुख पूरे साल तक सताएगा।

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

शिव ने पार्वती को बताए थे मृत्यु के ये 11 संकेत, कब होगी किसकी मौत

धर्म ग्रंथों में भगवान शिव को कालों का काल कहा यानी महाकाल कहा गया है। महाकाल यानी मृत्यु जिसके अधीन हो। भगवान शिव जन्म-मृत्यु, काल आदि सभी से मुक्त हैं। शिवमहापुराण में भगवान शिव ने माता पार्वती को मृत्यु के संबंध में कुछ ऐसे संकेत बताए हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। इन संकेतों को समझकर यह जाना जा सकता है कि किस व्यक्ति की मौत कितने समय में होगी।

  1. यदि अचानक शरीर सफेद या पीला पड़ जाए और लाल निशान दिखाई दे तो समझना चाहिए कि उस मनुष्य की मृत्यु ६ महीने के भीतर हो जाएगी। जब मुंह, कान, आंख और जीभ ठीक से काम न करें तो भी ६ महीने के भीतर ही मृत्यु जाननी चाहिए।
  2. जो मनुष्य हिरण के पीछे होने वाली शिकारियों की भयानक आवाज को भी जल्दी नहीं सुनता उसकी मृत्यु भी ६ महीने के भीतर हो जाती है। जिसे सूर्य, चंद्रमा या अग्नि काप्रकाश ठीक से दिखाई न दे और चारों ओर काला अंधकार दिखाई दे तो उसका जीवन भी ६ महीने के भीतर समाप्त हो जाता है।
  3. ब किसी मनुष्य का बायां हाथ लगातार एक सप्ताह तक फड़कता ही रहे, तब उसका जीवन एक मास ही शेष है-ऐसा जानना चाहिए। जब सारे अंगों में अंगड़ाई आने लगे और तालू सूख जाए, तब वह मनुष्य एक मास तक ही जीवित रहता है।
  4. त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) में जिसकी नाक बहने लगे, उसका जीवन पंद्रह दिन से अधिक नहीं चलता। यदि किसी व्यक्ति के मुंह और कंठ बार-बार सूखने लगे तो यह जानना चाहिए कि 6 महीने बीत-बीतते उसकी आयु समाप्त हो जाएगी।
  5. जब किसी व्यक्ति को जल, तेल, घी तथा दर्पण में अपनी परछाई न दिखाई दे तो समझना चाहिए कि उसकी आयु 6 माह से अधिक नहीं है। जब कोई अपनी छाया को सिर से रहित देके अथवा अपने को छाया से रहित पाए तो ऐसा मनुष्य एक महीने भी जीवित नहीं रहता।
  6. जब चंद्रमा व सूर्य के आस-पास के चमकीला घेरा काला या लाला दिखाई दे तब 15 दिन के अंदर ही उस मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। अरूंधती तारा व चंद्रमा जिसे न दिखाई दे अथवा जिसे अन्य तारे भी ठीक से न दिखाई दें, ऐसा मनुष्य की मृत्यु एक महीने के भीतर हो जाती है।
  7. यदि ग्रहों का दर्शन होने पर भी दिशाओं का ज्ञान न हो, मन में बैचेनी छाई रहे तो उस मनुष्य की मृत्यु ६ महीने में हो जाती है। जिसे आकाश में सप्तर्षि तारे न दिखाई दे, उस मनुष्य की आयु ६ महीने ही शेष समझनी चाहिए।
  8. जिस मनुष्य को उतथ्य व ध्रुव तारा अथवा सूर्यमंडल का भी दर्शन न हो, रात में इंद्रधनुष और दोपहर में उल्कापात होता दिखाई दे तथा गीध और कौवे घेरे रहें तो उसकी आयु ६ महीने से अधिक नहीं होती।
  9. जो मनुष्य अचानक सूर्य और चंद्रमा को राहू से ग्रस्त देखता है (चंद्रमा और सूर्य काले दिखाई देने लगते हैं) और संपूर्ण दिशाएं जिसे घुमती दिखाई देती हैं वह अवश्य ही ६ महीने में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
  10. जिस व्यक्ति को अचानक नीली मक्खियां आकर घेर लें तो वास्तव में उसकी आयु एक महीना ही शेष जाननी चाहिए। 
  11. यदि गीध, कौवा अथवा कबूतर सिर पर आकर बैठ जाए तो वह मनुष्य एक महीने के भीतर ही मर जाता है-इसमें कोई संशय नहीं है।

बगला मुखी दिग्बन्धन रक्षा स्त्रोतम

ब्रह्मास्त्र प्रवक्ष्यामि बगलां नारदसेविताम् ।देवगन्धर्वयक्षादि सेवितपादपंकजाम् ।।
त्रैलोक्य-स्तम्भिनी विद्या सर्व-शत्रु-वशंकरी आकर्षणकरी उच्चाटनकरी विद्वेषणकरी जारणकरी मारणकरी जृम्भणकरी स्तम्भनकरी ब्रह्मास्त्रेण सर्व-वश्यं कुरु कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लां द्राविणि-द्राविणि भ्रामिणि एहि एहि सर्वभूतान् उच्चाटय-उच्चाटय सर्व-दुष्टान निवारय-निवारय भूत प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनीः छिन्धि-छिन्धि खड्गेन भिन्धि-भिन्धि मुद्गरेण संमारय संमारय, दुष्टान् भक्षय-भक्षय, ससैन्यं भुपर्ति कीलय कीलय मुखस्तम्भनं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
आत्मा रक्षा ब्रह्म रक्षा विष्णु रक्षा रुद्र रक्षा इन्द्र रक्षा अग्नि रक्षा यम रक्षा नैऋत रक्षा वरुण रक्षा वायु रक्षा कुबेर रक्षा ईशान रक्षा सर्व रक्षा भुत-प्रेत-पिशाच-डाकिनी-शाकिनी रक्षा अग्नि-वैताल रक्षा गण गन्धर्व रक्षा तस्मात् सर्व-रक्षा कुरु-कुरु, व्याघ्र-गज-सिंह रक्षा रणतस्कर रक्षा तस्मात् सर्व बन्धयामि ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लीं भो बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बगलामुखि एहि-एहि पूर्वदिशायां बन्धय बन्धय इन्द्रस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय इन्द्रशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं पीताम्बरे एहि-एहि अग्निदिशायां बन्धय बन्धय अग्निमुखं स्तम्भय स्तम्भय अग्निशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं अग्निस्तम्भं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं महिषमर्दिनि एहि-एहि दक्षिणदिशायां बन्धय बन्धय यमस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय यमशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं हृज्जृम्भणं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं चण्डिके एहि-एहि नैऋत्यदिशायां बन्धय बन्धय नैऋत्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय नैऋत्यशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं करालनयने एहि-एहि पश्चिमदिशायां बन्धय बन्धय वरुण मुखं स्तम्भय स्तम्भय वरुणशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं कालिके एहि-एहि वायव्यदिशायां बन्धय बन्धय वायु मुखं स्तम्भय स्तम्भय वायुशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं महा-त्रिपुर-सुन्दरि एहि-एहि उत्तरदिशायां बन्धय बन्धय कुबेर मुखं स्तम्भय स्तम्भय कुबेरशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं महा-भैरवि एहि-एहि ईशानदिशायां बन्धय बन्धय ईशान मुखं स्तम्भय स्तम्भय ईशानशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं गांगेश्वरि एहि-एहि ऊर्ध्वदिशायां बन्धय बन्धय ब्रह्माणं चतुर्मुखं मुखं स्तम्भय स्तम्भय ब्रह्मशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ललितादेवि एहि-एहि अन्तरिक्ष दिशायां बन्धय बन्धय विष्णु मुखं स्तम्भय स्तम्भय विष्णुशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं चक्रधारिणि एहि-एहि अधो दिशायां बन्धय बन्धय वासुकि मुखं स्तम्भय स्तम्भय वासुकिशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
दुष्टमन्त्रं दुष्टयन्त्रं दुष्टपुरुषं बन्धयामि शिखां बन्ध ललाटं बन्ध भ्रुवौ बन्ध नेत्रे बन्ध कर्णौ बन्ध नसौ बन्ध ओष्ठौ बन्ध अधरौ बन्ध जिह्वा बन्ध रसनां बन्ध बुद्धिं बन्ध कण्ठं बन्ध हृदयं बन्ध कुक्षिं बन्ध हस्तौ बन्ध नाभिं बन्ध लिंगं बन्ध गुह्यं बन्ध ऊरू बन्ध जानू बन्ध हंघे बन्ध गुल्फौ बन्ध पादौ बन्ध स्वर्ग मृत्यु पातालं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि इन्द्राय सुराधिपतये ऐरावतवाहनाय स्वेतवर्णाय वज्रहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् निरासय निरासय विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि अग्नये तेजोधिपतये छागवाहनाय रक्तवर्णाय शक्तिहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि यमाय प्रेताधिपतये महिषवाहनाय कृष्णवर्णाय दण्डहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वरूणाय जलाधिपतये मकरवाहनाय श्वेतवर्णाय पाशहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वायव्याय मृगवाहनाय धूम्रवर्णाय ध्वजाहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि ईशानाय भूताधिपतये वृषवाहनाय कर्पूरवर्णाय त्रिशूलहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि ब्रह्मणे ऊर्ध्वदिग्लोकपालाधिपतये हंसवाहनाय श्वेतवर्णाय कमण्डलुहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वैष्णवीसहिताय नागाधिपतये गरुडवाहनाय श्यामवर्णाय चक्रहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि रविमण्डलमध्याद् अवतर अवतर सान्निध्यं कुरु-कुरु । ॐ ऐं परमेश्वरीम् आवाहयामि नमः । मम सान्निध्यं कुरु कुरु । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः बगले चतुर्भुजे मुद्गरशरसंयुक्ते दक्षिणे जिह्वावज्रसंयुक्ते वामे श्रीमहाविद्ये पीतवस्त्रे पञ्चमहाप्रेताधिरुढे सिद्धविद्याधरवन्दिते ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-पूजिते आनन्द-सवरुपे विश्व-सृष्टि-स्वरुपे महा-भैरव-रुप धारिणि स्वर्ग-मृत्यु-पाताल-स्तम्भिनी वाममार्गाश्रिते श्रीबगले ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-रुप-निर्मिते षोडश-कला-परिपूरिते दानव-रुप सहस्रादित्य-शोभिते त्रिवर्णे एहि एहि मम हृदयं प्रवेशय प्रवेशय शत्रुमुखं स्तम्भय स्तम्भय अन्य-भूत-पिशाचान् खादय-खादय अरि-सैन्यं विदारय-विदारय पर-विद्यां पर-चक्रं छेदय-छेदय वीरचक्रं धनुषां संभारय-संभारय त्रिशूलेन् छिन्ध-छिन्धि पाशेन् बन्धय-बन्धय भूपतिं वश्यं कुरु-कुरु सम्मोहय-सम्मोहय विना जाप्येन सिद्धय-सिद्धय विना मन्त्रेण सिद्धि कुरु-कुरु सकलदुष्टान् घातय-घातय मम त्रैलोक्यं वश्यं कुरु-कुरु सकल-कुल-राक्षसान् दह-दह पच-पच मथ-मथ हन-हन मर्दय-मर्दय मारय-मारय भक्षय-भक्षय मां रक्ष-रक्ष विस्फोटकादीन् नाशय-नाशय ॐ ह्लीं विष-ज्वरं नाशय-नाशय विषं निर्विषं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ क्लीं क्लीं ह्लीं बगलामुखि सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं विनाशय विनाशय क्लीं क्लीं ह्लीं स्वाहा ।
ॐ बगलामुखि स्वाहा । ॐ पीताम्बरे स्वाहा । ॐ त्रिपुरभैरवि स्वाहा । ॐ विजयायै स्वाहा । ॐ जयायै स्वाहा । ॐ शारदायै स्वाहा । ॐ सुरेश्वर्यै स्वाहा । ॐ रुद्राण्यै स्वाहा । ॐ विन्ध्यवासिन्यै स्वाहा । ॐ त्रिपुरसुन्दर्यै स्वाहा । ॐ दुर्गायै स्वाहा । ॐ भवान्यै स्वाहा । ॐ भुवनेश्वर्यै स्वाहा । ॐ महा-मायायै स्वाहा । ॐ कमल-लोचनायै स्वाहा । ॐ तारायै स्वाहा । ॐ योगिन्यै स्वाहा । ॐ कौमार्यै स्वाहा । ॐ शिवायै स्वाहा । ॐ इन्द्राण्यै स्वाहा । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लीं शिव-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि स्वाहा । ॐ ह्लीं माया-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि हृदयाय स्वाहा । ॐ ह्लीं विद्या-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि शिरसे स्वाहा । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः शिरो रक्षतु बगलामुखि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः भालं रक्षतु पीताम्बरे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नेत्रे रक्षतु महा-भैरवि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः कर्णौ रक्षतु विजये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नसौ रक्षतु जये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः वदनं रक्षतु शारदे विन्ध्यवासिनि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः बाहू त्रिपुर-सुन्दरि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः करौ रक्षतु दुर्गे रक्ष रक्ष स्वाहा ।
ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः हृदयं रक्षतु भवानी रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु भुवनेश्वरि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नाभिं रक्षतु महामाये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः कटिं रक्षतु कमललोचने रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु तारे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः सर्वांगं रक्षतु महातारे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः अग्रे रक्षतु योगिनि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः पृष्ठे रक्षतु कौमारि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः दक्षिणपार्श्वे रक्षतु शिवे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः वामपार्श्वे रक्षतु इन्द्राणि रक्ष रक्ष स्वाहा ।
ॐ गं गां गूं गैं गौं गः गणपतये सर्वजनमुखस्तम्भनाय आगच्छ आगच्छ मम विघ्नान् नाशय नाशय दुष्टं खादय खादय दुष्टस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय अकालमृत्युं हन हन भो गणाधिपते ॐ ह्लीम वश्यं कुरु कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
अष्टौ ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा सिद्धिर्भवति नान्यथा । भ्रूयुग्मं तु पठेत नात्र कार्यं संख्याविचारणम् ।।
यन्त्रिणां बगला राज्ञी सुराणां बगलामुखि । शूराणां बगलेश्वरी ज्ञानिनां मोक्षदायिनी ।।
एतत् स्तोत्रं पठेन् नित्यं त्रिसन्ध्यं बगलामुखि । विना जाप्येन सिद्धयेत साधकस्य न संशयः ।।
निशायां पायसतिलाज्यहोमं नित्यं तु कारयेत् । सिद्धयन्ति सर्वकार्याणि देवी तुष्टा सदा भवेत् ।।
मासमेकं पठेत् नित्यं त्रैलोक्ये चातिदुर्लभम् । सर्व-सिद्धिमवाप्नोति देव्या लोकं स गच्छति ।।

गणेश चालीसा

||दोहा||
जय गणपति सदगुणसदन, कविवर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥
 ||चौपाई ||
जय जय जय गणपति गणराजू।मंगल भरण करण शुभ काजू ॥
जै गजबदन सदन सुखदाता। विश्व विनायक बुद्घि विधाता॥
वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन। तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥
राजत मणि मुक्तन उर माला। स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥
पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं । मोदक भोग सुगन्धित फूलं ॥
सुन्दर पीताम्बर तन साजित । चरण पादुका मुनि मन राजित ॥
धनि शिवसुवन षडानन भ्राता । गौरी ललन विश्वविख्याता ॥
ऋद्घिसिद्घि तव चंवर सुधारे । मूषक वाहन सोहत द्घारे ॥
कहौ जन्म शुभकथा तुम्हारी । अति शुचि पावन मंगलकारी ॥
एक समय गिरिराज कुमारी । पुत्र हेतु तप कीन्हो भारी ॥
भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा । तब पहुंच्यो तुम धरि द्घिज रुपा ॥
अतिथि जानि कै गौरि सुखारी । बहुविधि सेवा करी तुम्हारी ॥
अति प्रसन्न है तुम वर दीन्हा । मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा ॥
मिलहि पुत्र तुहि, बुद्घि विशाला । बिना गर्भ धारण, यहि काला ॥
गणनायक, गुण ज्ञान निधाना । पूजित प्रथम, रुप भगवाना ॥
अस कहि अन्तर्धान रुप है । पलना पर बालक स्वरुप है ॥
बनि शिशु, रुदन जबहिं तुम ठाना। लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना ॥
सकल मगन, सुखमंगल गावहिं । नभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं ॥
शम्भु, उमा, बहु दान लुटावहिं । सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं ॥
लखि अति आनन्द मंगल साजा । देखन भी आये शनि राजा ॥
निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं । बालक, देखन चाहत नाहीं ॥
गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो । उत्सव मोर, न शनि तुहि भायो ॥
कहन लगे शनि, मन सकुचाई । का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई ॥
नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ । शनि सों बालक देखन कहाऊ ॥
पडतहिं, शनि दृग कोण प्रकाशा । बोलक सिर उड़ि गयो अकाशा ॥
गिरिजा गिरीं विकल है धरणी । सो दुख दशा गयो नहीं वरणी ॥
हाहाकार मच्यो कैलाशा । शनि कीन्हो लखि सुत को नाशा ॥
तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो । काटि चक्र सो गज शिर लाये ॥
बालक के धड़ ऊपर धारयो । प्राण, मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो ॥
नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे । प्रथम पूज्य बुद्घि निधि, वन दीन्हे ॥
बुद्घ परीक्षा जब शिव कीन्हा । पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा ॥
चले षडानन, भरमि भुलाई। रचे बैठ तुम बुद्घि उपाई ॥
चरण मातुपितु के धर लीन्हें । तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें ॥
तुम्हरी महिमा बुद्घि बड़ाई । शेष सहसमुख सके न गाई ॥
मैं मतिहीन मलीन दुखारी । करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी ॥
भजत रामसुन्दर प्रभुदासा । जग प्रयाग, ककरा, दर्वासा ॥
अब प्रभु दया दीन पर कीजै । अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै ॥
॥दोहा॥
श्री गणेश यह चालीसा, पाठ करै कर ध्यान।
नित नव मंगल गृह बसै, लहे जगत सन्मान॥
सम्बन्ध अपने सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश।
पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ति गणेश ॥