रविवार, 16 अप्रैल 2017

पानी

बिक रहा है पानी,पवन बिक न जाए
बिक गयी है धरती, गगन बिक न जाए।

चाँद पर भी बिकने लगी है जमीं
डर है की सूरज की तपन बिक न जाए।

हर जगह बिकने लगी है स्वार्थ नीति
डर है की कहीं धर्म बिक न जाए।

देकर दहॆज ख़रीदा गया है अब दुल्हे को
कही उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए।

हर काम की रिश्वत ले रहे अब ये नेता
कही इन्ही के हाथों वतन बिक न जाए।

सरे आम बिकने लगे अब तो सांसद
डर है की कहीं संसद भवन बिक न जाए।

आदमी मरा तो भी आँखें खुली हुई हैं
डरता है मुर्दा, कहीं कफ़न बिक न जाए।

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