मंगलवार, 12 मई 2020

महाभारत एक परिचय

महाभारत के समय श्रीकृष्ण जी महाराज की भौतिक आयु 89 वर्ष, अर्जुन की भी लगभग इतनी ही थी।
युधिष्ठिर जी 91वर्ष के थे, द्रौपदी लगभग 70 वर्ष की थी।
दुर्योधन 90 वर्ष के, अभिमन्यु 16, शिखंडी सौ के आस पास, धृष्टद्युम्न 70, भीष्म जी 600, कृपाचार्य एवं द्रोणाचार्य 400, बाह्लीक 900 के लगभग, एवं कर्ण की आयु लगभग 140 वर्ष की थी। महाभारत में 18 अक्षौहिणी सेनाओं ने पैंसठ वर्ग किमी के क्षेत्र में युद्ध किया था।

पहले दोनों ओर से नौ नौ अक्षौहिणी सेनाएँ थीं, लेकिन छल से द्वारिका और मद्र देश की सेनाओं को अपने पक्ष में कर लेने से कौरवों की सेना बढ़ कर ग्यारह अक्षौहिणी हो गयी तथा पांडवों की सेना घट कर सात अक्षौहिणी रह गयी।

मनुष्यों के अतिरिक्त इस युद्ध में पांडवों की ओर से भीमपुत्र घटोत्कच के नेतृत्व में लंकापुरी एवं असम के मायांगपुरी की राक्षस सेना तथा भोगवती पुरी से अर्जुनपुत्र इरावान के नेतृत्व में नाग सेना भी युद्ध कर रही थी।
इरावान को छल से अलम्बुष ने मारा था।
कौरवों की ओर से पाताल लोक से अलायुध के नेतृत्व में एवं मर्त्यलोक से अलम्बुष के नेतृत्व में राक्षस सेना युद्ध कर रही थी।
इन दोनों राक्षसों को राक्षसराज घटोत्कच ने मारा था तथा घटोत्कच को कर्ण ने एकवीरघातिनि शक्ति से मारा था।

एक अक्षौहिणी कौरव सेना का संहार केवल घटोत्कच ने अपने मरने के बाद किया था।
जिस समय उसकी मृत्यु हुई उस समय वह आकाश में विचरण कर रहा था, उसने माया से अपना शरीर कई कोस का कर लिया था जिससे उसके शव के गिरने पर कौरवों की एक अक्षौहिणी सेना दब कर मर गयी।

एक अक्षौहिणी सेना में 21870 हाथी, 21870 रथ, 65610 घोड़े तथा 109350 पैदल सैनिक होते हैं।
यदि संख्या का ध्यान न रख कर केवल सेना देखी जाए तो इसे ही चतुरंगिणी सेना कहा जाता है।

हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथी होता है जो बाणों से सुसज्जित होता है, उसके दो साथियों के पास भाले होते हैं और एक रक्षक होता है जो पीछे से सारथी की रक्षा करता है और एक गाड़ीवान होता है।

हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है; कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं और उसका विदूषक होता है जो युद्ध से इतर अवसरों पर उसके आगे चलता है।

तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या 284323 होती है।
जो लोग घुड़सवार होते हैं उनकी संख्या 87480 होती है।
एक अक्षौहिणी में हाथियों की संख्या 21860 होती है, रथों की संख्या भी 21870 होती है, घोड़ों की संख्या 153090 और मनुष्यों की संख्या 459283 होती है।

एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या 634243 होती है।
अठारह अक्षौहिणीयों के लिए यही संख्या 11416374 हो जाती है अर्थात् 393660 हाथी, 2755620 घोड़े, 8267094 मनुष्य।

महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद कौरवों की सेना पूरी तरह समाप्त हो गयी थी परंतु पांडवों की सेना में एक अक्षौहिणी का लगभग चौथाई भाग अब भी बच रहा था।
हालाँकि इसे भी उसी रात अश्वत्थामा ने छल से मार डाला था।

महाभारत युद्ध में पूरे विश्व के सर्वश्रेष्ठ 100 राज्यों में से मात्र एक चौथाई ही आये थे।
बाकी सभी स्थानीय राजा थे।
बाद में इस सभी शेष राजाओं को अर्जुन ने अश्वमेध यज्ञ में समय दिग्विजय में बड़ी कठिनाई से जीता था।

महाभारत युद्ध में 1660020000 लोग मारे गए थे तथा 24165 लोगों का कोई पता नहीं चला था।
यह सूचना आधिकारिक रूप में महाराज युधिष्ठिर ने प्रतिस्मृति सिद्धि के माध्यम से महाराज धृतराष्ट्र को दी थी।

(उपरोक्त जानकारी कई प्राचीन ग्रंथों के अवलोकन एवं समायोजन से प्राप्त हुई है)

साभार जानकारी 

महाभारत गुरुओं से भरी पड़ी है।
यहाँ सब कुछ न कुछ सीखने ही आ जा रहे होते हैं।
शुरुआत में कौशिक नाम के ब्राह्मण एक धर्म व्याध से व्याध गीता सीखने जा रहे होते हैं तो अंत के हिस्से में भीष्म शरसैय्या पर लेटे हुए भी करीब दर्ज़न भर गीताएँ सुना देते हैं।
ज्यादातर ऐसे प्रसंगों में स्त्रियाँ प्रश्न पूछ रही होती हैं, या जवाब दे रही होती हैं।

दार्शनिक मुद्दों पर स्त्रियों का बात करना कई विदेशी अनुवादकों और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की दृष्टि से सही नहीं रहा होगा।
शायद इस वजह से ऐसे प्रसंगों को दबा कर सिर्फ युद्ध पर्व के छोटे से हिस्से पर जोर दिया जाता रहा है।

सीधे स्रोत के बदले, कई जगह से परावर्तित होकर आई महाभारत की जानकारी की वजह से आज अगर महाभारत काल के गुरुओं के बारे में सोचा जाए तो सिर्फ दो नाम याद आते हैं।
महाभारत में, आपस में साले बहनोई रहे कृपाचार्य और द्रोणाचार्य ही सिर्फ गुरु कहने पर याद आते हैं।
कृपाचार्य हस्तिनापुर में कुलगुरु की हैसियत से पहले ही थे, लेकिन वो शस्त्रों की शिक्षा देने के लिए जाने भी नहीं जाते थे और शायद तीन पीढ़ियों में एक पांडु के अलावा कोई अच्छा योद्धा भी नहीं हुआ था, इसलिए ऐसे गुरु की जरूरत भी नहीं पड़ी थी।
द्रोण का समय काफी गरीबी में बीत रहा था इसलिए वो आजीविका की तलाश में भटक रहे थे।

अपने पुत्र अश्वत्थामा को दूध दे पाने में असमर्थ अपनी पत्नी को देखकर वो अपने साथ ही शिक्षा पाए राजा द्रुपद से मदद माँगने गए थे।
यहाँ (संभवतः अग्निवेश नाम के गुरु के पास) द्रुपद और द्रोण साथ होते हैं।
हमें महाभारत से ही पता चलता है कि द्रोण के गुरु परशुराम भी थे। बाद के कई स्वनामधन्य बताते हैं कि परशुराम सबको नहीं, केवल ब्राह्मणों को शिक्षा देते थे।
पता नहीं भीष्म जैसों ने परशुराम से शिक्षा क्यों और कैसे पाई। पांचाल से मदद के बदले दुत्कारे जाने पर क्रुद्ध द्रोण हस्तिनापुर में थे जब युद्ध में कुशल भीष्म को उनकी खबर मिल गई।
भीष्म के बारे में भी महाभारत बताता है कि वो परशुराम के ही शिष्य थे, ब्राह्मण वो भी नहीं होते।

मगर जितनी आसानी से भीष्म को द्रोण का पता चलता है और वो उन्हें आचार्य बनाते हैं, इस से ये जरूर अंदाजा हो जाता है कि उनके पास एक काफी मजबूत जासूसों का तंत्र था।
इतने सजग गुप्तचर जो बच्चों के खेलने पर भी निगाह रखते और कुरु पितामह को सूचित कर रहे होते थे।
द्रोण को चुनने में उन्होंने भूल भी नहीं की थी।
जैसे परशुराम खुद थे उस से बेहतर उन्होंने अपने शिष्यों को बनाया था।
परशुराम के युद्ध में कभी हारने का कोई जिक्र कहीं नहीं आता।
सिर्फ एक बार जब युद्ध बिना निर्णय के समाप्त हुआ था तो वो युद्ध उनके अपने ही शिष्य भीष्म से हुआ था।

भीष्म पहले तो परशुराम से लड़ने के लिए तैयार नहीं थे।
उनका कहना था कि मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त और यंत्र मुक्त चारों तरह के हथियारों की शिक्षा उन्होंने परशुराम से ही ली है।
लड़ाई इस आधार पर शुरू होती है कि उठे हुए शस्त्र का सामना करना क्षत्रिय धर्म है, भले ही उसमें ब्राह्मण का सामना करना पड़े। इसलिए भीष्म के लिए परशुराम से लड़ना पड़ा।
हथियारों के इतने किस्म महाभारत में ?
ये महाकाव्य भी है, और महाकाव्य में सेना के संयोजन और उसके प्रस्थान का जिक्र होना भी एक जरूरी लक्षण होता है।
उसके बिना वो महाकाव्य ही नहीं होता।

अस्त्र-शस्त्रों का इतना ही वृहद् वर्णन रामायण में भी मिल जाएगा, भगत वाली दृष्टि से देखने और दिखाने वालों ने उसे पढ़ाया-बताया नहीं इसलिए आप नहीं जानते।
लड़ाई कई दिन तक चली और अनिर्णीत थी, जब एक दिन विश्वकर्मा के बनाए प्रस्वपन या प्रजापत्य नाम के अस्त्र का संधान करने की सलाह भीष्म को ब्रह्मा ने दी।
अगली सुबह इसका भीष्म संधान कर ही रहे थे कि नारद ने आकर उन्हें रोका।
नारद की सलाह पर भीष्म ने हथियार वापस तो ले लिया मगर जब परशुराम को पता चला तो उन्होंने कहा कि अगर किसी ने मेरे ऊपर चला शस्त्र ये सोचकर रोक लिया कि मैं उसका सामना नहीं कर पाऊँगा तो मुझे हारा हुआ ही मानना चाहिए।
ये सोचकर वो युद्ध आधे में ही रोककर चल दिए।

परशुराम के शिष्यों में सिर्फ भीष्म और द्रोण जैसे ना हारने वाले योद्धा ही नहीं थे।
कृष्ण से उनकी दो मुलाकातों का भी जिक्र महाभारत में आता है। एक बार तो कृष्ण जब अपनी नयी राजधानी के लिए स्थान चुन रहे होते हैं तब वो परशुराम से सलाह लेते हैं।
परशुराम उन्हें बताते हैं कि द्वारका के लिए वो जिस जगह का चुनाव कर रहे हैं, वो जलमग्न हो जायेगी, लेकिन सुरक्षा के लिहाज से द्वारका ही सर्वोत्तम थी।
उसके सिवा किसी और जगह पर परशुराम और कृष्ण एकमत नहीं हो पाए।
महाभारत काल के कृष्ण को खांडववन जलाने से ठीक पहले अग्नि आकर सुदर्शन चक्र देते हैं, लेकिन उसे चलाना कृष्ण ने अपने गुरु संदीपनी से नहीं बल्कि परशुराम से सीखा था।
परशुराम के ये शिष्य ब्राह्मण नहीं बल्कि वही कृष्ण थे जिन्होंने शिशुपाल पर सुदर्शन चक्र चलाया था।
शिशुपाल उस समय श्री कृष्ण को क्षत्रियों के बीच बैठा गाय दुहने वाला, और अन्य तरीकों से नीच घोषित करने पर तुला था।

नाजायज तरीकों से शिक्षा लेने पर गुरु-शिष्य में से एक की मृत्यु होती है, इसी तर्क के साथ महाभारत के शुरुआत में ही उत्तंक अपने गुरु वेद को गुरुदक्षिणा लेने के लिए राजी कर रहा होता है।
इस नियम को तोड़ने के लिए ही परशुराम के एक शिष्य को उन्होंने शाप भी दिया था।
कोई भी शापित होने के बाद परशुराम के क्षेत्र में नहीं रह सकता था इसलिए कर्ण को अधूरी शिक्षा पर ही लौटना पड़ा था।
आज की भाषा में कर्ण ड्रापआउट होते लेकिन फिर भी उन्हें युद्ध में हराने के लिए असाधारण योद्धाओं की जरुरत पड़ती थी।
महाभारत के काल के नील, वृष्णि योद्धाओं और भगदत्त के भी कर्ण से (दिग्विजय के दौरान) हारने का जिक्र आता है।

कर्ण के हारने और भागने का जिक्र एक बार पांडवों के वनवास के दौरान आता है।
जब पांडवों को चिढ़ाने आये दुर्योधन का वन की सीमा पर ही एक चित्रसेन नाम के गन्धर्व से युद्ध हो जाता है।
कर्ण को यहाँ हारकर भागना पड़ता है और दुर्योधन बाँध लिया जाता है, बाद में अर्जुन और भीम आदि पाण्डव आकर दुर्योधन को छुड़ाते हैं।
दूसरी बार कर्ण, भीष्म आदि सभी कौरव योद्धा पांडवों के अज्ञातवास के ख़त्म होने के समय अर्जुन से हारते हैं।
इस लड़ाई में अर्जुन प्रस्वपन या प्रजापत्य नाम का वही हथियार चला देते हैं जिसे शुरू शुरू में भीष्म ने परशुराम पर नहीं चलाया था।
चूँकि कौरवों ने द्रौपदी का वस्त्रहरण करने की कोशिश की थी, इसलिए बेहोश पड़े कौरवों के वस्त्र ले चलने की सलाह भी अर्जुन, राजकुमार उत्तर को देते हैं।
बाद में ये लुटे हुए कपड़े वो उत्तरा को गुड़िया बनाने के लिए दे देते हैं।

कर्ण के अर्जुन से हारने का कारण उनका ड्रॉपआउट होने के अलावा अभ्यास की कमी भी रही होगी।
आज के दौर में भी शिक्षक (और माता-पिता भी) कई बार जब लिखने और नोट्स लेने की सलाह देते हैं तो आलस के मारे वो एक कान से सुनकर दुसरे से निकाल दी जाती है।
कर्ण पर दिव्यास्त्रों का इस्तेमाल भूलने का गुरु का शाप था।
अप्रत्यक्ष रूप से अभ्यास की कमी से ये शाप फलीभूत हुआ।
एक तरफ अर्जुन उलूपी जैसी नागकन्या, अश्वसेन जैसे नागों से लड़ने का अभ्यास करते हैं, चित्रसेन जैसे गन्धर्वों से लड़ते हैं।
हनुमान और शिव जैसे प्रतिद्वंदियों (जहाँ हारना अवश्यंभावी था) से उलझने से भी अर्जुन नहीं चूकते।
वो द्रोणाचार्य से सीखने पर ही नहीं रुके, इंद्र से, शिव से भी उन्होंने शिक्षा ली, अप्सराओं से नृत्य भी सीखा और अज्ञातवास में सिखाया। दूसरी तरफ कर्ण बेचारे एक तो मानवों से ऊपर किसी से लड़े नहीं, तो दिव्यास्त्रों के इस्तेमाल का अनुभव नहीं रहा।
दुसरे एक बार जब शिक्षा छूट गई, तो फिर से किसी से सीखने की भी कोई ख़ास मेहनत नहीं की।
अर्जुन के गाण्डीव से निपटने के लिए विजया नाम का धनुष जुटाने के अलावा उन्होंने कोई विशेष अभ्यास नहीं किया।
इसलिए वो अर्जुन से हारते रहे, उनसे हमेशा निम्न रहे।

हथियारों के दक्षिण भारतीय युद्ध कला कलारीपयट्टू में शामिल होने का कारण भी परशुराम को ही बताया जाता है।
माना जाता है कि परशुराम से पहले ये कला अगस्त्यमुनि ने सिखाई थी मगर उनके काल में इसमें हथियार इस्तेमाल नहीं होते थे।
भारत के कई अजीब से हथियार (जो समय के साथ तेजी से ख़त्म हो रहे हैं) उनके होने का श्रेय परशुराम को ही जाता है।
दक्षिण भारत का एक बड़ा सा क्षेत्र आज भी परशुराम क्षेत्र कहलाता है।
महाभारत काल के इस गुरु के बाद से गुरुकुलों और युद्धकला सीखने सिखाने के केन्द्रों की जानकारी भी आश्चर्यजनक रूप से लुप्त हो जाती है

साभार

शुक्रवार, 8 मई 2020

इस दुःखी संसार में..

इस दुखी संसार में सब सुखी हों राम।
लॉक में जाये जनता सबका बनता काम।।

घर में रहते हैं सभी खाएं सब मिल बैठ।
राजा करती चाकरी जनता करती ऐठ।।

पशु पक्षि है मौज में करे न कोई हलाल।
प्रकृति बदला ले रही करो न कोई सवाल।।

जल निर्मल है भया नभ भी हो गया साफ।
फेर करो जो गंदगी कबहुं करों न माफ।।

जो दुखी हैं भूख से करो दया सब धाय।
यह दसा हे रामजी कोहू को न आय।।

प्रकृति

बहुत किया तू ताण्डव मानव,
अब ताण्डव प्रकृति को देख।
मौसम बदले खेती सूखे,
मिटे तेरो मस्तक को रेख।।

ईश्वर ने था स्वयं बनाया, 
धर लिया तू राक्षस को भेष।
घुट घुट जीले नरक जवानी,
बचा तेरा जो जीवन शेष।।

हां जी हां मजदूर हूं मैं..

हां जी हां मजदूर हूं मैं.. 
तुम्हारे शहर को तारासा मैंने।
सड़कों गलियों को सवारा मैंने।।
अपने ही फुटपाथों में कुचलने को मसहूर हूं मैं। 
हां जी हां मजदूर हूं मैं..

जलते सूरज में तप्ती राह हूं।
नहीं विकल्प कोई मैं तो कोहिनूर हूं।।

सारा अम्बर ही मेरा छत है
इस धरा पर हरी घास मेरा बिस्तर है।
ये मेरे शौक नहीं बस रहने को मजबूर हूं मैं।
हां जी हां मजदूर हूं मैं...

चार पैसों के लिए आता हूं शहर
ठहरता ही नही बस करता हूँ सफर।
कभी चोर तो कभी बेकसूर हूं मैं।
हां जी हां मजदूर हूं मैं...

धरती चीरुं तो हरा इस धरा को करदूँ।
ज़िद पे आऊं तो पर्वतों को खाई करदूँ।।
समृद्धि हो देश की इसी में गमगीन हूं मैं।
हां जी हां मजदूर हूं मैं...

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

देवरहा बाबा

 बाबा का जन्म अज्ञात है। यहाँ तक कि उनकी सही उम्र का आकलन भी नहीं है। वह यूपी के देवरिया जिले के रहने वाले थे। मंगलवार, 19 जून सन् 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपना प्राण त्यागने वाले इस बाबा के जन्म के बारे में संशय है। कहा जाता है कि वह करीब 900 साल तक जिन्दा थे। (बाबा के संपूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत है, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल मानते हैं.)

भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्तपुरुष थे देवरहा बाबा. डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था. पूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे।

श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे. प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी।

श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है. जनश्रूति के मुताबिक, वह खेचरी मुद्रा की वजह से आवागमन से कहीं भी कभी भी चले जाते थे. उनके आस-पास उगने वाले बबूल के पेड़ों में कांटे नहीं होते थे. चारों तरफ सुंगध ही सुंगध होता था।

लोगों में विश्वास है कि बाबा जल पर चलते भी थे और अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी सवारी नहीं की और ना ही उन्हें कभी किसी सवारी से कहीं जाते हुए देखा गया. बाबा हर साल कुंभ के समय प्रयाग आते थे।

 मार्कण्डेय सिंह के मुताबिक, वह किसी महिला के गर्भ से नहीं बल्कि पानी से अवतरित हुए थे. यमुना के किनारे वृन्दावन में वह 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे. उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवारों को वह पल भर में काबू कर लेते थे।

लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई. वह अवतारी व्यक्ति थे. उनका जीवन बहुत सरल और सौम्य था।वह फोटो कैमरे और टीवी जैसी चीजों को देख अचंभित रह जाते थे। वह उनसे अपनी फोटो लेने के लिए कहते थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि उनका फोटो नहीं बनता था। वह नहीं चाहते तो रिवाल्वर से गोली नहीं चलती थी. उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था।

अपनी उम्र, कठिन तप और सिद्धियों के बारे में देवरहा बाबा ने कभी भी कोई चमत्कारिक दावा नहीं किया, लेकिन उनके इर्द-गिर्द हर तरह के लोगों की भीड़ ऐसी भी रही जो हमेशा उनमें चमत्कार खोजते देखी गई।अत्यंत सहज, सरल और सुलभ बाबा के सानिध्य में जैसे वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे. भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें अपने बचपन में देखा था।

 देश-दुनिया के महान लोग उनसे मिलने आते थे और विख्यात साधू-संतों का भी उनके आश्रम में समागम होता रहता था. उनसे जुड़ीं कई घटनाएं इस सिद्ध संत को मानवता, ज्ञान, तप और योग के लिए विख्यात बनाती हैं।

मुझे अच्छी तरह याद है और मैं वहाँ मौजूद भी था. कोई 1987 की बात होगी, जून का ही महीना था. वृंदावन में यमुना पार देवरहा बाबा का डेरा जमा हुआ था. अधिकारियों में अफरातफरी मची थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बाबा के दर्शन करने आना था।प्रधानमंत्री के आगमन और यात्रा के लिए इलाके की मार्किंग कर ली गई।

आला अफसरों ने हैलीपैड बनाने के लिए वहां लगे एक बबूल के पेड़ की डाल काटने के निर्देश दिए. भनक लगते ही बाबा ने एक बड़े पुलिस अफसर को बुलाया और पूछा कि पेड़ को क्यों काटना चाहते हो? अफसर ने कहा, प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जरूरी है. बाबा बोले, तुम यहां अपने पीएम को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, पीएम का नाम भी होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है, लेकिन इसका दंड तो बेचारे पेड़ को भुगतना पड़ेगा!

वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो मैं उसे क्या जवाब दूंगा? नही! यह पेड़ नहीं काटा जाएगा. अफसरों ने अपनी मजबूरी बताई कि यह दिल्ली से आए अफसरों का है, इसलिए इसे काटा ही जाएगा और फिर पूरा पेड़ तो नहीं कटना है, इसकी एक टहनी ही काटी जानी है, मगर बाबा जरा भी राजी नहीं हुए. उन्होंने कहा कि यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन रात मुझसे बतियाता है, यह पेड़ नहीं कट सकता।

इस घटनाक्रम से बाकी अफसरों की दुविधा बढ़ती जा रही थी, आखिर बाबा ने ही उन्हें तसल्ली दी और कहा कि घबड़ा मत, अब पीएम का कार्यक्रम टल जाएगा, तुम्हारे पीएम का कार्यक्रम मैं कैंसिल करा देता हूं. आश्चर्य कि दो घंटे बाद ही पीएम आफिस से रेडियोग्राम आ गया कि प्रोग्राम स्थगित हो गया है, कुछ हफ्तों बाद राजीव गांधी वहां आए, लेकिन पेड़ नहीं कटा. इसे क्या कहेंगे चमत्कार या संयोग.

बाबा की शरण में आने वाले कई विशिष्ट लोग थे. उनके भक्तों में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं. उनके पास लोग हठयोग सीखने भी जाते थे. सुपात्र देखकर वह हठयोग की दसों मुद्राएं सिखाते थे. योग विद्या पर उनका गहन ज्ञान था. ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक समाधि आदि पर वह गूढ़ विवेचन करते थे. कई बड़े सिद्ध सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जाता, तो वह संबंधित विषयों पर अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते।

 लोग यही सोचते कि इस बाबा ने इतना सब कब और कैसे जान लिया. ध्यान, प्रणायाम, समाधि की पद्धतियों के वह सिद्ध थे ही. धर्माचार्य, पंडित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे कई तरह के संवाद करते थे. उन्होंने जीवन में लंबी लंबी साधनाएं कीं. जन कल्याण के लिए वृक्षों-वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य जीवन के प्रति उनका अनुराग जग जाहिर था.

देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इंदिरा गांधी हार गईं तो वह भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं. उन्होंने अपने हाथ के पंजे से उन्हें आशीर्वाद दिया. वहां से वापस आने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा निर्धारित कर दिया. इसके बाद 1980 में इंदिरा के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और वह देश की प्रधानमंत्री बनीं।

 वहीं, यह भी मान्यता है कि इन्दिरा गांधी आपातकाल के समय कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती से आर्शीवाद लेने गयीं थी. वहां उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर आर्शीवाद दिया और हाथ का पंजा पार्टी का चुनाव निशान बनाने को कहा।

बाबा महान योगी और सिद्ध संत थे. उनके चमत्कार हज़ारों लोगों को झंकृत करते रहे. आशीर्वाद देने का उनका ढंग निराला था. मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो गया. पेड़-पौधे भी उनसे बात करते थे. उनके आश्रम में बबूल तो थे, मगर कांटेविहीन. यही नहीं यह खुशबू भी बिखेरते थे।

उनके दर्शनों को प्रतिदिन विशाल जनसमूह उमड़ता था. बाबा भक्तों के मन की बात भी बिना बताए जान लेते थे. उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया. दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया. श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था।

देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते थे।

ख्याति इतनी कि जार्ज पंचम जब भारत आया तो अपने पूरे लाव लश्कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गांव तक उनके आश्रम तक पहुंच गया. दरअसल, इंग्लैंड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि क्या वास्तव में इंडिया के साधु संत महान होते हैं।

प्रिंस फिलिप ने जवाब दिया- हां, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना. यह सन 1911 की बात है. जार्ज पंचम की यह यात्रा तब विश्वयुद्ध के मंडरा रहे माहौल के चलते भारत के लोगों को बरतानिया हुकूमत के पक्ष में करने की थी. उससे हुई बातचीत बाबा ने अपने कुछ शिष्यों को बतायी भी थी, लेकिन कोई भी उस बारे में बातचीत करने को आज भी तैयार नहीं।

डाक्टर राजेंद्र प्रसाद तब रहे होंगे कोई दो-तीन साल के, जब अपने माता-पिता के साथ वे बाबा के यहां गये थे. बाबा देखते ही बोल पड़े-यह बच्चा तो राजा बनेगा. बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने बाबा को एक पत्र लिखकर कृतज्ञता प्रकट की और सन 54 के प्रयाग कुंभ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन भी किया।

बाबा देवरहा 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे. उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी. खतरनाक जंगली जानवरों को वह पल भर में काबू कर लेते थे.

उनके भक्त उन्हें दया का महासमुंदर बताते हैं. और अपनी यह सम्पत्ति बाबा ने मुक्त हस्तज लुटाई. जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया. वितरण में कोई विभेद नहीं. वर्षाजल की भांति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा और खूब बरसा. मान्यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवाई है।

कहा जाता है कि बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है. दिव्यदृष्ठि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी. याददाश्त इतनी कि दशकों बाद भी मिले व्यक्ति को पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते, किसी तेज कम्प्युटर की तरह।

हां, बलिष्ठ कदकाठी भी थी. लेकिन देह त्याहगने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे. उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता. लकडी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे. मइल में वे साल में आठ महीना बिताते थे. कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे।

खुद कभी कुछ नहीं खाया, लेकिन भक्तनगण जो कुछ भी लेकर पहुंचे, उसे भक्तों पर ही बरसा दिया. उनका बताशा-मखाना हासिल करने के लिए सैकडों लोगों की भीड हर जगह जुटती थी. और फिर अचानक ११ जून १९९० को उन्होंने दर्शन देना बंद कर दिया।

लगा जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है. मौसम तक का मिजाज बदल गया. यमुना की लहरें तक बेचैन होने लगीं. मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे. डॉक्टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि पारा अंतिम सीमा को तोड निकलने पर आमादा है.१९ तारीख को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी।

 आकाश में काले बादल छा गये, तेज आंधियां तूफान ले आयीं. यमुना जैसे समुंदर को मात करने पर उतावली थी। लहरों का उछाल बाबा की मचान तक पहुंचने लगा. और इन्हीं सबके बीच शाम चार बजे बाबा का शरीर स्पंदनरहित हो गया।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

किचकिन्धा

रामायण की कहानी देखें तो यह उत्तर से दक्षिण की ओर यात्रा कराती है। अयोध्या से लंका तक का सफर हमें भारत के कई स्थानों पर ले जाता है। रामायण में जिन स्थानों का वर्णन मिलता है, उनमें से अधिकतर आज भी उस काल की निशानियों को सहेजे हुए हैं।

ऐसा ही एक स्थान है किष्किंधा नगर किष्किंधा नगर वानरों का साम्राज्य था जिस पर सुग्रीव के भाई बाली का राज था। श्रीराम ने बाली को मार कर सु्ग्रीव को राजा बनाया। हनुमानजी और श्रीराम की पहली मुलाकात भी इसी नगर के पास जंगलों में हुई थी। इस क्षेत्र में आज भी उस काल की यादों बसी हुई हैं। यह नगर पर्यटन का प्रमुख केंद्र भी है।

उस काल का  किष्किंधा नगर आज भी कर्नाटक राज्य में है। राज्य के दो जिले कोप्पल और बेल्लारी में रामायण काल के प्रसिद्ध किष्किंधा क्षेत्र के अस्तित्व के अवशेष आज भी पाए जाते हैं।

दण्डक वन का एक भाग था किष्किंधा

यहां छोटी-बड़ी चट्टानों से बने पर्वत एक-दूसरे से सटे खड़े हैं। यहां चावल की खेती बड़े पैमाने पर होती है। रामायण में यहां की एक नदी तुंगभद्रा का उल्लेख मिलता है। ये नदी अभी भी है और कर्नाटक की प्रमुख नदियों में गिनी जाती है।

श्रीराम के युग में यानी त्रेतायुग में किष्किंधा दण्डक वन का एक भाग हुआ करता था। दण्डक वन का विस्तार विंध्याचल से आरंभ होता था और दक्षिण भारत के समुद्री क्षेत्रों तक पहुंचता था। भगवान श्रीराम को जब वनवास मिला तो अपने भाई और पत्नी के साथ उन्होंने दण्डक वन में प्रवेश किया। यहां से रावण ने सीता का अपहरण कर लिया था। श्रीराम सीता को खोजते हुए किष्किंधा में आए।

ऋष्यमूक पर्वत

किष्किंधा उस समय वानरों का देश हुआ करता था। बाली जिसका राजा था। बाली ने सुग्रीव को मार कर नगर से बाहर भगा दिया था। वो ऋष्यमूक पर्वत पर जाकर बस गया क्योंकि बाली को एक ऋषि ने शाप दिया था कि वो अगर #ऋष्यमूक पर्वत पर चढ़ेगा तो मारा जाएगा। इस कारण सुग्रीव अपनी जान बचाने के लिए हमेशा इसी पहाड़ पर रहते थे।

पंपा सरोवर

ब्रह्माजी ने सृष्टि के आरंभ में जिन चार सरोवरों की स्थापना की थी, पंपा सरोवर उन्हीं में से एक है। यह सरोवर कमल के फूलों से भरा रहता है। रामायण में उल्लेख आता है कि सुग्रीव को खोजते हुए भगवान राम और लक्ष्मण यहां आये थे। पंपा सरोवर के किनारे लक्ष्मी देवी का मंदिर है।

तुंगभद्रा को पार कर पहुंचे ऋष्यमूक पर...
शांत मुद्रा में स्थित ऋषम्यूक पर्वत के तक पहुंचने के लिए उसके सामने से गुजरती तुंगभ्रदा नदी के शोर को पार करना पड़ता है। नदी पार करने के लिए सरकार ने कोई औपचारिक पुल नहीं बनाया है, लेकिन स्थानीय लोगों ने बिजली के खंभों को लिटाकर अनौपाचारिक पुल का निर्माण कर दिया है। 

यह वही पर्वत है, जहां बाली से भयभीत होकर सुग्रीव अपने चार मंत्रियों के साथ रहते थे। शाप के कारण बाली यहां नहीं आ सकता था। जब रावण सीता का हरण करके आकाश मार्ग से उन्हें ले जा रहा था, तो सीता ने इसी पर्वत पर बैठे सुग्रीव आदि अन्य वानरों को देख अपने आभूषण गिराये थे। इसी पर्वत पर हनुमानजी ने भगवान राम और सुग्रीव की मित्रता करवाई थी।

अंजनी पर्वत हनुमान जी की जन्मस्थली

आप क्यों किष्किंधा घूमने जाएं। यहां की दो बातें लोगों को बड़ी संख्या में यहां आकर्षित करती हैं-पहली है अंजनि पर्वत, जहां पवनसुत हनुमान का जन्म हुआ और दूसरा अंजनी पर्वत के करीब स्थित ब्रह्म सरोवर, जो काफी पवित्र माना जाता है। 

अंजनी पर्वत एक ऊंचा पहाड़ है। यही हनुमान जी की जन्मस्थली है। पहाड़ के ऊपर हनुमान जी का एक मंदिर है, जहां अखंड पूजा चलती रहती है। लगातार हनुमान चालिसा पढ़ी जाती रहती है। 

लेकिन यह मत सोचिए कि इस मंदिर तक पहुंचना आसान है। शायद यह मुश्किल ही इसके दर्शनों को और खास भी बनाती है। इसके लिए 500 से अधिक सीढि़यां चढ़नी होती हैं। यह आसान तो कतई नहीं। सीढि़यां चढ़ने के दौरान आप पाते हैं कि कई जगहों पर ये सीढि़यां पहाडि़यों को काटकर बनाई गई हैं, तो कई जगह ये पहाड़ की गुफाओं के बीच से गुजरती हैं। 

सीढि़यों के साथ ऊपर चढ़ने के दौरान कई बार ऐसी चट्टानें भी मिलती हैं कि उनके बीच से प्रकृति की खूबसूरती का कैनवस दिखता है। ऊपर पहुंचने पर हनुमान मंदिर में दर्शन के दौरान आप एक अलग आनंद से भर उठेंगे। मंदिर में जगह-जगह लोग आंखें बंद करके हनुमान अर्चना में लीन दिखेंगे। है तो ये कर्नाटक की ठेठ जगह, जहां हिन्दी में बहुत कम जानने और बात करने वाले मिले, लेकिन मंदिर में जो पुजारी-पंडे नजर आते हैं वह उत्तर भारत के हैं।

 अंजनी पर्वत पर ऊपर पहुंचने के बाद आप किष्किंधा नगरी का दूर तक विहंगम दृश्य भी देख सकते हैं, जहां कंक्रीट के जंगल नहीं, बल्कि पहाडि़यां, हरियाली और उनके बीच गुजरती तुंगभद्रा नदी दिखती है। वैसे, अंजनी पर्वत की एक और खासियत है, उसका ऊपरी सिरा बिल्कुल लगता है मानो हनुमान जी का चेहरा। 

बाली की गुफा आकर्षण का केंद्र

बाली जिस गुफा में रहता था, वह गुफा भी आकर्षण का केंद्र है। यह अंधेरी, लेकिन काफी लंबी-चौड़ी गुफा है। जहां एक साथ कई अंदर जा सकते हैं।

 इसी गुफा से ललकार कर राम ने बाली को निकाला। जब उनके हाथों बाली की मृत्यु हो गई तो सुग्रीव को राजपाट सौंपा गया यानी यहां रामायण में उल्लेख हुई ढेरों बातें देखने को मिल जाएंगी। 

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

रामायण में भोग नहीं त्याग है

भरत जी नंदिग्राम में रहते हैं, शत्रुघ्न जी  उनके आदेश से राज्य संचालन करते हैं।

एक रात की बात हैं,माता कौशिल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी। नींद खुल गई । पूछा कौन हैं ?

मालूम पड़ा श्रुतिकीर्ति जी हैं ।नीचे बुलाया गया ।

श्रुतिकीर्ति जी, जो सबसे छोटी हैं, आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं ।

माता कौशिल्या जी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बिटिया ? क्या नींद नहीं आ रही ?

शत्रुघ्न कहाँ है ?

श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी, गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए ।

उफ ! कौशल्या जी का ह्रदय काँप गया।

तुरंत आवाज लगी, सेवक दौड़े आए । आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी, माँ चली।

आपको मालूम है शत्रुघ्न जी कहाँ मिले ?

अयोध्या जी के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले ।

माँ सिराहने बैठ गईं, बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी ने आँखें
खोलीं, माँ !

उठे, चरणों में गिरे, माँ ! आपने क्यों कष्ट किया ? मुझे बुलवा लिया होता ।

माँ ने कहा, शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ?"

शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया राम जी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए, भैया लक्ष्मण जी उनके पीछे चले गए, भैया भरत जी भी नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं ?

माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं ।

देखो यह रामकथा हैं...

यह भोग की नहीं त्याग की कथा हैं, यहाँ त्याग की प्रतियोगिता चल रही हैं और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहा..

चारो भाइयों का प्रेम और त्याग एक दूसरे के प्रति अद्भुत-अभिनव और अलौकिक हैं ।

रामायण जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती हैं ।🌸🌸🌸ॐ नमों नारायणय 🌸🌸🌸

भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी माँ सीता ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया। परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते! माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की.. परन्तु जब पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी, परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा!! क्या कहूंगा!!

यहीं सोच विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेके खड़ी थीं और बोलीं- "आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु की सेवा में वन को जाओ। मैं आपको नहीं रोकूँगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।"

लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था। परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया। वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है। पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे!!

लक्ष्मण जी चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया। वन में भैया-भाभी की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया। 

मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण को शक्ति लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये संजीवनी का पहाड़ लेके लौट रहे होते हैं, तो बीच में अयोध्या में भरत जी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी गिर जाते हैं। तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि सीता जी को रावण ले गया, लक्ष्मण जी मूर्छित हैं। 

यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे। माता सुमित्रा कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं। अभी शत्रुघ्न है। मैं उसे भेज दूंगी। मेरे दोनों पुत्र राम सेवा के लिये ही तो जन्मे हैं। माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं? क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं??

हनुमान जी पूछते हैं- देवी! आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं। सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा। उर्मिला जी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा। वे बोलीं- "
मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता। रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता। आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं। जो योगेश्वर राम की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता। यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं। मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये नहीं हैं। उन्होंने न सोने का प्रण लिया था। इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं। और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया। वे उठ जायेंगे। और शक्ति मेरे पति को लगी ही नहीं शक्ति तो राम जी को लगी है। मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में हैं ही सिर्फ राम, तो शक्ति राम जी को ही लगी, दर्द राम जी को ही हो रहा। इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होके जाएँ। सूर्य उदित नहीं होगा।"

राम राज्य की नींव जनक की बेटियां ही थीं... कभी सीता तो कभी उर्मिला। भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया परन्तु वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण , बलिदान से ही आया ।
          "जय जय सियाराम"

शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

विवाह रात्रि में ही क्यों

हिन्दुओं में विवाह रात्रि में क्यों होने लगे |

क्या कभी आपने सोचा है कि हिन्दुओं में रात्रि को विवाह क्यों होने लगे हैं, जबकि हिन्दुओं में रात में शुभकार्य करना अच्छा नहीं माना जाता है क्योंकि ये निशाचरी समय होता है ?

रात को देर तक जागना और सुबह को देर तक सोने को, राक्षसी प्रवृति बताया जाता है। रात में जागने वाले को निशाचर कहते हैं।

केवल तंत्र सिद्धि करने वालों को ही रात्रि में हवन व यज्ञ की अनुमति है।

वैसे भी प्राचीन समय से ही सनातन धर्मी हिन्दू दिन के प्रकाश में ही शुभ कार्य करने के समर्थक रहे हैं। तब हिन्दुओं में रात की विवाह की परम्परा कैसे पड़ी ?

कभी हम अपने पूर्वजों के सामने यह सवाल क्यों नहीं उठाते हैं  या  स्वयं इस प्रश्न का हल क्यों नहीं खोजते हैं ?

दरअसल भारत में सभी उत्सव, सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं संस्कार दिन में ही किये जाते थे चूंकि ये सनातनी परम्परा है। सीता और द्रौपदी का स्वयंवर भी दिन में ही हुआ था। शिव विवाह से लेकर संयोगिता स्वयंवर (बाद में पृथ्वीराज चौहान जी द्वारा संयोगिता जी की इच्छा से उनका अपहरण) आदि सभी शुभ कार्यक्रम दिन में ही होते थे।

प्राचीन काल से लेकर मुगलों के आने तक भारत में विवाह दिन में ही हुआ करते थे। मुस्लिम  आक्रमणकारियों के भारत पर हमले करने के बाद ही, हिन्दुओं को अपनी कई प्राचीन परम्पराएं तोड़ने को विवश होना पड़ा था।

मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा भारत पर अतिक्रमण करने के बाद भारतीयों पर बहुत अत्याचार किये गये। यह आक्रमणकारी  हिन्दुओं के विवाह के समय वहां पहुंचकर लूटपाट मचाते थे। अकबर के शासन काल में, जब अत्याचार चरमसीमा पर थे, मुग़ल सैनिक हिन्दू लड़कियों को बलपूर्वक उठा लेते थे और उन्हें अपने आकाओं को सौंप देते थे।

भारतीय ज्ञात इतिहास में सबसे पहली बार रात्रि में विवाह सुन्दरी और मुंदरी नाम की दो ब्राह्मण बहनों का हुआ था, जिनकी विवाह दुल्ला भट्टी ने अपने संरक्षण में ब्राह्मण युवकों से कराया था।
उस समय दुल्ला भट्टी ने अत्याचार के खिलाफ हथियार उठाये थे। दुल्ला भट्टी ने ऐसी अनेकों लड़कियों को मुगलों से छुड़ाकर, उनका हिन्दू लड़कों से विवाह कराया।

उसके बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों के आतंक से बचने के लिए हिन्दू रात के अँधेरे में विवाह करने पर मजबूर होने लगे। लेकिन रात्रि में विवाह करते समय भी यह ध्यान रखा जाता है कि ...... नाचना-गाना, दावत, जयमाला, आदि भले ही रात्रि में हो जाए लेकिन वैदिक मन्त्रों के साथ फेरे प्रातः पौ फटने के बाद ही हों।

पंजाब से प्रारम्भ हुई परंपरा को पंजाब में ही समाप्त किया गया।
फिल्लौर से लेकर काबुल तक महाराजा रंजीत सिंह का राज हो जाने के बाद उनके सेनापति हरीसिंह नलवा ने सनातन वैदिक परम्परा अनुसार दिन में खुले आम विवाह करने और उनको सुरक्षा देने की घोषणा की थी। 
हरीसिंह नलवा के संरक्षण में हिन्दुओं ने दिनदहाड़े - बैंडबाजे के साथ विवाह शुरू किये।
तब से पंजाब में फिर से दिन में विवाह का प्रचालन शुरू हुआ। पंजाब में अधिकांश विवाह आज भी दिन में ही होते हैं।
महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र, कर्नाटक, केरल, असम, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा एवम् अन्य राज्य भी धीरे धीरे अपनी जड़ों की ओर लोटने लगे हैं। अतः इन प्रदेशों में दिन में विवाह होते हैं।
हरीसिंह नलवा ने मुसलमान बने हिन्दुओं की घर वापसी कराई, मुसलमानों पर जजिया कर लगाया, हिन्दू धर्म की परम्पराओं को फिर से स्थापित किया, इसीलिए उनको “पुष्यमित्र शुंग” का अवतार कहा जाता है।

सभी विवाह सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त ब्रह्ममुहूर्त में ही संपादित किये जाते हैं।  ध्रुवतारा को स्थिरता के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो ब्रह्ममुहूर्त में ही सबसे अच्छा दृष्टिगोचर होता है ।

लेकिन साक्षी सूर्य के प्रतीक स्वरूप अग्नि को ही माना जाता है। इसीलिए अग्नि के ही चारों ओर फेरे लिए जाने की विधि है।

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में रात्रि विवाह का पूर्ण खण्डन किया है।  पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार भी हिन्दू गायत्री परिवार में  विवाह दिन में ही सम्पन्न किये जाते हैं ....!!

आज भी, हम भारत के लोग, खासकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं बिहार के लोग, जबकि 400 साल हो गए मुगल यहां से चले गए, किन्तु आज भी उसे परंपरा मानकर उसे चला रहे हैं! असल में हम गुलामी की मानसिकता से उबरना ही नहीं चाहते हैं !

आप सभी से विनम्र निवेदन है कि इस प्रथा पर आप सब एक बार अवश्य विचार करें एवं अपनी पुरानी धुरी पर अवश्य वापस लौटें ।