शनिवार, 22 मार्च 2025

वृंदावन प्रस्थान

आप सत्कर्म भगवान को समर्पित कर सकते हो पाप कर्म नहीं। कोई यदि यह सोचे कि अच्छे बुरे करते रहो दिन भर और शाम को लौटकर मंदिर में जाये भगवान को कह दें- “कायेन बाचा मनसेन्द्रियेर्वा” कायिक, वाचिक, मानसिक जो भी हमारे कर्म के बंधन से मुक्त हो जाएंगे, ऐसा बिल्कुल मत समझना। चोर चोरी करेगा, डाका डालेगा और शाम को मंदिर जाएं, कहे भगवन हमारे मन वाणी इंद्रियों से कर्म बने हैं वो सब आपको समर्पित है। लेकिन चोरी करके जो धन लाया है वह समर्पित नहीं करेंगे। भगवान को सत्कर्म समर्पित किया जा सकता है। दुष्कर्म का फल तो दुख को भोगना पड़ेगा। राजा ने अगर कुछ इनाम दिया तो आप उसे लौटा सकते हैं, पर राजा ने यदि कुछ सजा दी है तो आप उसे वापस नहीं कर सकते यह तो आपको ही भुगतनी पड़ेगी। भगवान ने सुखिया पर कृपा की निष्काम कर्म का फल है भक्ति। सुखिया धन्य हुई। 

भक्ति का धन आया जिसके जीवन में वही हकीकत में सुखी है, धनवान है। भगवान अपने धाम को छोड़कर ऐसे भक्त के पास आते हैं। क्योंकि भगवान भी भक्तिसूत्र में बंधे हैं। भगवान भक्ताधीन है, जगत भगवान पर आधीन है। सुखिया पर भगवान ने अनुग्रह किया। 

बाबा नंद और ग्वाल बाल सभी बैल गाड़ी में घर का सामान रख रहे हैं। सब गोपियाँ भी अपने अपने बच्चों को लेकर बैलगाड़ी में बैठीं और गायों के वृंद को लेकर सब ग्वाल गोकुल को छोड़ कर चले। गोकुल से वृन्दावन की दूरी 26 km है। आये वृन्दावन, वहां बसाई बस्ती। वृन्दा याने तुलसी, और वन इसलिए इसका नाम वृंदावन। अब वृन्दावन की शोभा देखने चले श्रीकृष्ण और दाऊ अपने मित्रों के साथ, वृंदावन की शोभा देखते ही भगवान अति प्रसन्न हो गए। गोविंद को तुलसी अति प्रिय है, फिर यह तो तुलसी का वन है। 

कन्हैया, दाऊ दादा से बोले- दादा यहां घूमने का मन कर रहा है। चलो ऐसा करते हैं दादा गाय चराएँ, तो माँ और बाबा इस तरह से घूमने तो नहीं जाने देंगे। कहेंगे जंगल है बच्चों को नहीं जाना चाहिए। लेकिन यदि हम गाय चराएँ तो हमें घूमने को मिलेगा। तो आए श्रीकृष्ण और दाऊ बाबा नंद के पास और बोले बाबा हम तो ग्वाल है न, हम तो अब बड़े हो गए हैं। हम भी गाय चराएंगे। माता जसोदा ने कहा- बेटा! तुम अभी बहुत छोटे हो तुम गायों को सम्हाल नहीं पाओगे। पर जब बहुत जिद की तो कहा- अच्छा ठीक! अभी बछड़ों को लेकर तुम जाओ, बछड़े चराओ। बछड़े भी छोटे हैं, तुम भी छोटे हो! तुम गायों को सम्हाल नहीं पाओगे। पर जब बहुत जिद की तो कहा, अच्छा ठीक अभी बछड़े को लेकर तुम जाओ, बछड़े चराओ। बछड़े भी छोटे हैं तुम भी छोटे हो। कन्हैया ने कहा- दाऊ बछड़े तो बछड़े हैं चलो घूमने को तो मिलेगा। कन्हैया अब बछड़े चराने लगे।

शनिवार, 4 मई 2024

दधि मंथन

अमावस्या के दिन तथा जिस दिन घरमें श्राद्ध हो ( पार्वण या एकोद्दिष्ट) तो इन अवसरों पर यदि मंथन - क्रिया (दही बिलोना) किया जाए तो उससे होने वाला मट्ठा मदिराके समान तथा घी शास्त्रोंमें गोमांसके समान माना गया है।

प्रमाण

अमावस्यां पितृश्राद्धे मन्थनं यस्तु कारयेत्।
तत्तक्रं मदिरातुल्यं घृतं गोमांसवत्स्मृतम् ।।
 (स्कंदपुराण_प्रभास-206/56, व्याघ्रपादस्मृति-15
तात्पर्य
अमावस्या और श्राद्ध वाले दिन में दधि-मंथन न करके दही को ही निमंत्रित ब्राह्मणोंको खिलाकर  खुद भी खाना चाहिए। इसी प्रकार दुग्ध आदिका भी उस दिन प्रयोग करना चाहिए ।

यदि कोई व्यक्ति यूं कहें कि हम तो श्राद्ध आदि करते नहीं, तो क्या उसके ऊपर शास्त्रका निषेध लागू नहीं होगा?

  निषेध तो लागू होगा ही, वह तो दोगुना अपराधी माना जाएगा ।

 एक अपराध श्राद्ध न करना 
और दूसरा उस दिन मंथन आदि करना ।

इसलिए अपने माता-पिताका एकोद्दिष्ट , महालय / पार्वण आदि श्राद्ध तो अवश्य करें ही।
 उस दिन दधि मंथन कार्य को भी बंद रखें। 

शास्त्रोंमें निषेध और भी हो सकते हैं।

हम सभीका शास्त्रकी आज्ञाका पालन करनेमें ही परम कल्याण है, प्रमादी बनकर मनमानी करने में नहीं हैं।

हिन्दू या हिन्दु कौन?

अद्भुतकोषके अनुसार हिन्दु और हिन्दू दोनों शब्द पुल्लिंग है। दुष्टों का दमन करने वाले हिंदू कहे जाते हैं। सुंदर रूपसे सुशोभित और दुष्टोंके दमनमें दक्ष । इन दोनों अर्थोंमें भी इन शब्दों का प्रयोग होता है-
हिंदुहिंदूश्च पुंसि दुष्टानां च विघर्षणे।रूपशालिनि दैत्यारौ (अद्भुतकोष)

हेमंतकवि कोषके अनुसार हिंदू उसे कहा जाता है जो परंपरासे नारायण आदि देवताओं का भक्त हो।हिंदूर्हि नारायणादि देवताभक्ततः।

मेरुतंत्रके अनुसार जो हीनाचरण को निंद्य समझ कर, उसका त्याग करें वह हिंदू कहलाता है।
हीनं च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये।

शब्दकल्पद्रुम कोश के अनुसार
हीनता से रहित साधु जाति विशेष हिंदू है। हीनं दूषयति इति हिन्दू

पारिजात हरण नाटक के अनुसार
जो अपनी तपस्यासे, दैहिक पापों तथा चित्तको दूषित करने वाले दोषोंका नाश करता है, तथा जो शस्त्रोंसे अपने शत्रु समुदायका भी नाश करता है वह हिंदू कहलाता है।

रामकोष के अनुसार- हिंदू दुर्जन नहीं होता, न अनार्य होता है, ना निंदक ही होता है। जो सद्धर्म पालक विद्वान् और श्रौतधर्म परायण है , वह हिंदू है।
हिंदुर्दुष्टो न भवति नानार्यो न विदूषकः।
सद्धर्मपालको विद्वान् श्रौतधर्मपरायणः।।

हिंदूशब्द के अर्थ - सौम्य, सुंदर, सुशोभित, शीलनिधि, दमशील और दुष्टदलनमें दक्ष। (विचारपीयूष)

अरबी कोषमें हिंदू शब्दका अर्थ खालिस अर्थात् शुद्ध होता है। ना कि चोर आदि मलिन निकृष्ट अर्थ।

यहूदियोंके मत में हिंदूका अर्थ शक्तिशाली वीर पुरुष होता है।

हिन्दुपद वाच्यों की कतिपय मुख्य परिभाषाएं

वेदादि शास्त्रोंको मानने वाली  जाति ही हिंदू जाति है ।

जो श्रुति - स्मृति - पुराण - इतिहास  प्रतिपादित कर्मोंके आधार पर अपनी लौकिक पारलौकिक उन्नति पर विश्वास रखता है वह हिंदू है ।

अपने वर्णाश्रम धर्मानुकूल आचार - विचारके द्वारा जीवन व्यतीत करने वाला  और  वेद शास्त्रोंको अपना  धर्म ग्रंथ मानने वाला ही हिंदू है ।

श्रुतिस्मृत्यादिशास्त्रेषु प्रामाण्यबुद्ध्यावलंब्य श्रुत्यादिप्रोक्ते धर्मे विश्वासं-निष्ठां च यः करोति स एव वास्तव हिंदुपदवाच्यः।

वेदशास्त्रोक्तधर्मेषु वेदाद्युक्ताधिकारिवान्।
आस्थावान् सुप्रतिष्ठिश्च सोऽयं हिंदुः प्रकीर्तितः।।

2. जो गोभक्ति संपन्न है, वेद और प्रणवादिमें जिसकी दृढ़ आस्था है, तथा पुनर्जन्मोंमें जिसका विश्वास है, वही वास्तवमें हिंदू कहने योग्य है। (इस परिभाषाके अनुसार जैन, बौद्ध , सिक्ख आदि हिंदू मान्य हैं) 

गोषु भक्तिर्भवेद्यस्य प्रणवादौ दृढामतिः। पुनर्जन्मनि विश्वासः स वै हिंदुरिति स्मृतः।।

3. श्रुति स्मृति पुराण इतिहास में निरूपित समस्त दुर्गुणों का/ दोषोंका जो हनन करें वह हिंदू है। श्रुत्यादि प्रोक्तानि सर्वाणि दूषणानि हिनस्तीति हिन्दुः।

4. वृद्ध स्मृति के अनुसार हिंसा से दुखित होने वाला, सदाचरण तत्पर (वर्ण उचित आचरण संपन्न ) वेद, गोवंश और देव प्रतिमा की सेवा करने वाला  हिंदू कहलाने योग्य है-

हिंसया दूयते यश्च सदाचारतत्परः।
वेदगोप्रतिमासेवी स हिंदुमुख शब्दभाक्।।

5. आधुनिक सुधारक हिंदुओंके मतमें हिंदू शब्द विचार नवनीत ग्रंथमें RSS के गुरु माने जाने वाले गोलवलकर जी पृष्ठ 44 और 45 पर हिंदू अपरिभाष्य है - इस शीर्षकसे आप कहते हैं कि - "जैसे सूर्य चंद्रकी परिभाषा हो सकने पर भी चरम सत्यकी परिभाषा नहीं हो सकती, वैसे ही मुसलमान ईसाईकी परिभाषा है, पर हिंदू अपरिभाषित ही है"।

इस बातका खंडन करते हुए धर्मसम्राट स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज विचारपीयूष नामक ग्रंथमें कहते हैं। जिन ग्रंथोंको आप प्रमाण रूप में उपस्थित करते हैं उन्हीं ग्रंथोंमें ईश्वर तककी परिभाषाएं बतलाई गई हैं।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म विज्ञानमानन्दं ब्रह्म आदि आदि !

आश्चर्य है कि जो हिंदुत्वके संबंधमें कुछ भी नहीं जानता' जो उसकी परिभाषा भी नहीं कर सकता, वही दुनियाके सामने बढ़-चढ़कर घमंड की बात करता है। ऐसे  संघ समूहोंकी संसारमें कमी नहीं, जो संसारमें अपनेको ही सर्वोत्कृष्ट मानते हैं।
( विचारपीयूष ग्रंथमें पृष्ठ 336 से 348 तक तथा पृष्ठ 5 से 50 तक)

इसी विचारधाराको मानने वाले कुछ लोग कहते हैं कि सिंधु से लेकर सिंधु पर्वतपर्यंत भारत भूमिको जो पितृभू और पुण्यभू मानता है वही हिंदू है।
किंतु उनकी यह परिभाषा अव्याप्ति, अतिव्याप्ति दोषोंसे पूर्ण है। इसके अनुसार प्राचीन कालके वे हिंदू जो दूसरे द्वीपोंमें रहते थे, हिंदू ही नहीं कहे जा सकते।

इसी विचारधारा के कुछ लोग कहते हैं कि जो हिंदुस्तानमें रहता है वह हिंदू है। पर ऐसा नहीं है, ऐसा मानने पर यहां विभिन्न धर्मोंके रहने वाले लोग हिंदू कहे जाने लगेंगे, जबकि वे स्वयं स्वीकार नहीं है और हमारी उपर्युक्त परिभाषाओंके अंतर्गत भी वे नहीं आते इसलिए यह विचार पूर्ण नहीं है। यहां तक लेखको पढ़नेके बाद, और हमारे द्वाराअनेक धर्म ग्रंथोंके उद्धरण देनेके बाद, आप लोग यह तो समझ ही गए होंगे कि, हमारे यहां यानी धर्मशास्त्रोंमें हिंदू शब्द परिभाष्य है या अपरिभाष्य।

सारगर्भित_परिभाषा जो वेदादि शास्त्रानुसार वेद शास्त्रोक्त धर्म में विश्वासवान् तथा स्थित है। वह हिंदू है। वेदादि शास्त्रों में वेदाध्ययन, अग्निहोत्र, बाजपेय, राजसूय, आदि कुछ धर्म ऐसे हैं जिनका अनुष्ठान जन्मना ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य ही कर सकते हैं । निषादस्थपतियाग, रथकारेष्टि जैसे कुछ कर्मोंका शूद्र ही अनुष्ठान कर सकते हैं।

कुछ सत्य ,दया ,क्षमा ,अहिंसा ईश्वरभक्ति  तत्वज्ञान आदिका अनुष्ठान मनुष्य मात्र कर सकते हैं । किंतु वे सभी वेदादि शास्त्रोंका प्रामाण्य मानने वाले तथा अपने अधिकार अनुसार वेदादि शास्त्रोक्त धर्मका अनुष्ठान करने वाले हिंदू हैं। जन्मना ब्राह्मण आदि का भी सब कर्मोंमें अधिकार नहीं है।

 ब्राह्मण एवं वैश्य का राजसूययज्ञमें अधिकार नहीं है । ब्राह्मण क्षत्रिय दोनोंका वैश्यस्तोमयागमें अधिकार नहीं है । निषादस्थपतीष्टि में उक्त तीनों का अधिकार नहीं है। 

विशेषतः- हिंदूशास्त्रानुसार जिनके पुनर्जन्म विश्वास पूर्वक दाएभाग ,विवाह, अंत्येष्टि, मृतक श्राद्धादि कर्म होते हैं ,वे सभी हिंदू हैं। गाय में जिसकी भक्ति हो, प्रणव आदि ईश्वर नामों में यथा अधिकार जिसकी निष्ठा हो, तथा पुनर्जन्म में जिसका विश्वास हो, वह हिंदू है।

भारतका नाम ऋग्वेद में सप्तसिंधु या संक्षिप्त नाम सिंधु आया है। न कि आर्यावर्त या भारतवर्ष ।

वेदों में सप्तसिंधवः देशके अतिरिक्त किसी देशका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। सनातन प्रसिद्धिके अनुसारवे सातों नदियां अखंड भारतको द्योतित करती हैं ।

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिंधुकावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।।

सिन्धवः शब्द सिंधु नदी के पार्श्ववर्ती देशों एवं वहां के निवासियों के लिए भी प्रयुक्त हुआ है ।

वेदों में सकार के स्थान में हकार का भी प्रयोग हो जाता है। इस संबंधमें सरस्वती का हरस्वती आदि वैदिक उदाहरण हैं। केसरी तथा केहरी आदि लौकिक उदाहरण भी प्रसिद्ध हैं।
तथा सिंधु -सिंधवः, हिन्धु- हिन्धवः चलने लगा ।

कालक्र से धकारका परिवर्तन दकार रूप में हुआ और हिंदू नाम चल पड़ा ।

लक्षणा वृत्ति से हिंदू शब्द के हिंदू देश यानी हिंदुस्तान और वहां के निवासी हिंदू दोनों अर्थ होते हैं।

हिमालयं समारभ्य यावदिन्दुसरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते।।

विशेष जानकारीके लिए प्रत्येक हिन्दू धर्मसम्राट् स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराजका #विचार_पीयूष ग्रन्थ अवश्य पढ़ें ।

मंगलवार, 19 जनवरी 2021

वेद और विज्ञान

एक पंडितजी को नदी में तर्पण करते देख एक फकीर अपनी बाल्टी से पानी गिराकर जप करने लगे ,

" मेरी प्यासी गाय को पानी मिले।"

पंडितजी के पुछने पर बोले जब आपके चढाये जल भोग आपके पुरखों को मिल जाते हैं तो मेरी गाय को भी मिल जाएगा।

पंडितजी बहुत लज्जित हुए।"

कहानी सुनाकर एक इंजीनियर मित्र जोर से ठठाकर हँसने लगे। बोले - " सब पाखण्ड है पंडित जी। "

शायद मैं कुछ ज्यादा ही सहिष्णु हूँ इसलिए लोग मुझसे ऐसे कुतर्क करने से पहले ज्यादा सोचते नहीं , लगभग हिंदुओं का यही हाल है

खैर मैने कुछ कहा नहीं बस सामने मेज पर से 'कैलकुलेटर' उठाकर एक नंबर डायल किया और कान से लगा लिया। बात हो सकी तो इंजीनियर साहब से शिकायत की, वो भड़क गए

बोले- " ये क्या मज़ाक है? 'कैलकुलेटर ' में मोबाइल का फंक्शन कैसे काम करेगा। "

तब मैंने कहा , ठीक वैसे हिं स्थूल शरीर छोड़ चुके लोगों के लिए बनी व्यवस्था जीवित प्राणियों पर कैसे काम करेगी।

साहब झेंप मिटाते हुए कहने लगे- " ये सब पाखण्ड है, अगर सच है तो सिद्ध करके दिखाइए।"

मैने कहा ये सब छोड़िए, ये बताइए न्युक्लीअर पर न्युट्रान के बम्बारमेण्ट करने से क्या ऊर्जा निकलती है ?

वो बोले - " बिल्कुल! इट्स कॉल्ड एटॉमिक एनर्जी।"

फिर मैने उन्हें एक चॉक और पेपरवेट देकर कहा, अब आपके हाथ में बहुत सारे न्युक्लीयर्स भी हैं और न्युट्रांस भी अब एनर्जी निकाल के दिखाइए।

साहब समझ गए और तनिक लजा भी गए और बोले- पंडित जी , एक काम याद गया; बाद में बात करते हैं। "

दोस्तों यदि हम किसी विषय/तथ्य को प्रत्यक्षतः सिद्ध नहीं कर सकते तो इसका अर्थ है कि हमारे पास समुचित ज्ञान,संसाधन वा अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं है ,

यह नहीं कि वह तथ्य ही गलत है।

हमारे द्वारा श्रद्धा से किए गए सभी कर्म दान आदि आध्यात्मिक ऊर्जा के रूप में हमारे पितरों तक अवश्य पहुँचते हैं।

कुतर्को मे फँसकर अपने धर्म संस्कार के प्रति कुण्ठा पालें।

~ पर अफसोस !

हजारों वर्षों पहले प्रतिपादित अपने वैदिक नियमों को तब मानते हैं जब विदेशी वैज्ञानिक उस पर रिसर्च करके हमें उसका महत्व बताते है।

मैकाले शिष्य समूह समर्थक अभी 200 वर्ष पहले जान पाए हैं की पीपल गाय 24 घंटे ऑक्सीजन देने वालों में है !

हमने युगो से उनको पूज्य संरक्षित कर रखा है !

रुद्राक्ष कई लाख साल से हमारी परंपरा मे है आधुनिक विज्ञान अब जाकर जाना है कि वह शरीर में रसायनिक प्रक्रियाओं को संतुलित करता है, हारमोंस का डिसऑर्डर रोकता है लेकिन यह मैकाले मिश्रित डीएनए के प्रभाव वाले दोगले हिंदू जब तक कुछ इनको आधुनिक विज्ञान नहीं बताएगा नहीं मानेंगे !

यदि धर्म को जानने के लिए आधुनिक विज्ञान तुच्छ है तो इसमें धर्म क्या करें

मंगलवार, 12 मई 2020

महाभारत एक परिचय

महाभारत के समय श्रीकृष्ण जी महाराज की भौतिक आयु 89 वर्ष, अर्जुन की भी लगभग इतनी ही थी।
युधिष्ठिर जी 91वर्ष के थे, द्रौपदी लगभग 70 वर्ष की थी।
दुर्योधन 90 वर्ष के, अभिमन्यु 16, शिखंडी सौ के आस पास, धृष्टद्युम्न 70, भीष्म जी 600, कृपाचार्य एवं द्रोणाचार्य 400, बाह्लीक 900 के लगभग, एवं कर्ण की आयु लगभग 140 वर्ष की थी। महाभारत में 18 अक्षौहिणी सेनाओं ने पैंसठ वर्ग किमी के क्षेत्र में युद्ध किया था।

पहले दोनों ओर से नौ नौ अक्षौहिणी सेनाएँ थीं, लेकिन छल से द्वारिका और मद्र देश की सेनाओं को अपने पक्ष में कर लेने से कौरवों की सेना बढ़ कर ग्यारह अक्षौहिणी हो गयी तथा पांडवों की सेना घट कर सात अक्षौहिणी रह गयी।

मनुष्यों के अतिरिक्त इस युद्ध में पांडवों की ओर से भीमपुत्र घटोत्कच के नेतृत्व में लंकापुरी एवं असम के मायांगपुरी की राक्षस सेना तथा भोगवती पुरी से अर्जुनपुत्र इरावान के नेतृत्व में नाग सेना भी युद्ध कर रही थी।
इरावान को छल से अलम्बुष ने मारा था।
कौरवों की ओर से पाताल लोक से अलायुध के नेतृत्व में एवं मर्त्यलोक से अलम्बुष के नेतृत्व में राक्षस सेना युद्ध कर रही थी।
इन दोनों राक्षसों को राक्षसराज घटोत्कच ने मारा था तथा घटोत्कच को कर्ण ने एकवीरघातिनि शक्ति से मारा था।

एक अक्षौहिणी कौरव सेना का संहार केवल घटोत्कच ने अपने मरने के बाद किया था।
जिस समय उसकी मृत्यु हुई उस समय वह आकाश में विचरण कर रहा था, उसने माया से अपना शरीर कई कोस का कर लिया था जिससे उसके शव के गिरने पर कौरवों की एक अक्षौहिणी सेना दब कर मर गयी।

एक अक्षौहिणी सेना में 21870 हाथी, 21870 रथ, 65610 घोड़े तथा 109350 पैदल सैनिक होते हैं।
यदि संख्या का ध्यान न रख कर केवल सेना देखी जाए तो इसे ही चतुरंगिणी सेना कहा जाता है।

हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथी होता है जो बाणों से सुसज्जित होता है, उसके दो साथियों के पास भाले होते हैं और एक रक्षक होता है जो पीछे से सारथी की रक्षा करता है और एक गाड़ीवान होता है।

हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है; कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं और उसका विदूषक होता है जो युद्ध से इतर अवसरों पर उसके आगे चलता है।

तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या 284323 होती है।
जो लोग घुड़सवार होते हैं उनकी संख्या 87480 होती है।
एक अक्षौहिणी में हाथियों की संख्या 21860 होती है, रथों की संख्या भी 21870 होती है, घोड़ों की संख्या 153090 और मनुष्यों की संख्या 459283 होती है।

एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या 634243 होती है।
अठारह अक्षौहिणीयों के लिए यही संख्या 11416374 हो जाती है अर्थात् 393660 हाथी, 2755620 घोड़े, 8267094 मनुष्य।

महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद कौरवों की सेना पूरी तरह समाप्त हो गयी थी परंतु पांडवों की सेना में एक अक्षौहिणी का लगभग चौथाई भाग अब भी बच रहा था।
हालाँकि इसे भी उसी रात अश्वत्थामा ने छल से मार डाला था।

महाभारत युद्ध में पूरे विश्व के सर्वश्रेष्ठ 100 राज्यों में से मात्र एक चौथाई ही आये थे।
बाकी सभी स्थानीय राजा थे।
बाद में इस सभी शेष राजाओं को अर्जुन ने अश्वमेध यज्ञ में समय दिग्विजय में बड़ी कठिनाई से जीता था।

महाभारत युद्ध में 1660020000 लोग मारे गए थे तथा 24165 लोगों का कोई पता नहीं चला था।
यह सूचना आधिकारिक रूप में महाराज युधिष्ठिर ने प्रतिस्मृति सिद्धि के माध्यम से महाराज धृतराष्ट्र को दी थी।

(उपरोक्त जानकारी कई प्राचीन ग्रंथों के अवलोकन एवं समायोजन से प्राप्त हुई है)

साभार जानकारी 

महाभारत गुरुओं से भरी पड़ी है।
यहाँ सब कुछ न कुछ सीखने ही आ जा रहे होते हैं।
शुरुआत में कौशिक नाम के ब्राह्मण एक धर्म व्याध से व्याध गीता सीखने जा रहे होते हैं तो अंत के हिस्से में भीष्म शरसैय्या पर लेटे हुए भी करीब दर्ज़न भर गीताएँ सुना देते हैं।
ज्यादातर ऐसे प्रसंगों में स्त्रियाँ प्रश्न पूछ रही होती हैं, या जवाब दे रही होती हैं।

दार्शनिक मुद्दों पर स्त्रियों का बात करना कई विदेशी अनुवादकों और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की दृष्टि से सही नहीं रहा होगा।
शायद इस वजह से ऐसे प्रसंगों को दबा कर सिर्फ युद्ध पर्व के छोटे से हिस्से पर जोर दिया जाता रहा है।

सीधे स्रोत के बदले, कई जगह से परावर्तित होकर आई महाभारत की जानकारी की वजह से आज अगर महाभारत काल के गुरुओं के बारे में सोचा जाए तो सिर्फ दो नाम याद आते हैं।
महाभारत में, आपस में साले बहनोई रहे कृपाचार्य और द्रोणाचार्य ही सिर्फ गुरु कहने पर याद आते हैं।
कृपाचार्य हस्तिनापुर में कुलगुरु की हैसियत से पहले ही थे, लेकिन वो शस्त्रों की शिक्षा देने के लिए जाने भी नहीं जाते थे और शायद तीन पीढ़ियों में एक पांडु के अलावा कोई अच्छा योद्धा भी नहीं हुआ था, इसलिए ऐसे गुरु की जरूरत भी नहीं पड़ी थी।
द्रोण का समय काफी गरीबी में बीत रहा था इसलिए वो आजीविका की तलाश में भटक रहे थे।

अपने पुत्र अश्वत्थामा को दूध दे पाने में असमर्थ अपनी पत्नी को देखकर वो अपने साथ ही शिक्षा पाए राजा द्रुपद से मदद माँगने गए थे।
यहाँ (संभवतः अग्निवेश नाम के गुरु के पास) द्रुपद और द्रोण साथ होते हैं।
हमें महाभारत से ही पता चलता है कि द्रोण के गुरु परशुराम भी थे। बाद के कई स्वनामधन्य बताते हैं कि परशुराम सबको नहीं, केवल ब्राह्मणों को शिक्षा देते थे।
पता नहीं भीष्म जैसों ने परशुराम से शिक्षा क्यों और कैसे पाई। पांचाल से मदद के बदले दुत्कारे जाने पर क्रुद्ध द्रोण हस्तिनापुर में थे जब युद्ध में कुशल भीष्म को उनकी खबर मिल गई।
भीष्म के बारे में भी महाभारत बताता है कि वो परशुराम के ही शिष्य थे, ब्राह्मण वो भी नहीं होते।

मगर जितनी आसानी से भीष्म को द्रोण का पता चलता है और वो उन्हें आचार्य बनाते हैं, इस से ये जरूर अंदाजा हो जाता है कि उनके पास एक काफी मजबूत जासूसों का तंत्र था।
इतने सजग गुप्तचर जो बच्चों के खेलने पर भी निगाह रखते और कुरु पितामह को सूचित कर रहे होते थे।
द्रोण को चुनने में उन्होंने भूल भी नहीं की थी।
जैसे परशुराम खुद थे उस से बेहतर उन्होंने अपने शिष्यों को बनाया था।
परशुराम के युद्ध में कभी हारने का कोई जिक्र कहीं नहीं आता।
सिर्फ एक बार जब युद्ध बिना निर्णय के समाप्त हुआ था तो वो युद्ध उनके अपने ही शिष्य भीष्म से हुआ था।

भीष्म पहले तो परशुराम से लड़ने के लिए तैयार नहीं थे।
उनका कहना था कि मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त और यंत्र मुक्त चारों तरह के हथियारों की शिक्षा उन्होंने परशुराम से ही ली है।
लड़ाई इस आधार पर शुरू होती है कि उठे हुए शस्त्र का सामना करना क्षत्रिय धर्म है, भले ही उसमें ब्राह्मण का सामना करना पड़े। इसलिए भीष्म के लिए परशुराम से लड़ना पड़ा।
हथियारों के इतने किस्म महाभारत में ?
ये महाकाव्य भी है, और महाकाव्य में सेना के संयोजन और उसके प्रस्थान का जिक्र होना भी एक जरूरी लक्षण होता है।
उसके बिना वो महाकाव्य ही नहीं होता।

अस्त्र-शस्त्रों का इतना ही वृहद् वर्णन रामायण में भी मिल जाएगा, भगत वाली दृष्टि से देखने और दिखाने वालों ने उसे पढ़ाया-बताया नहीं इसलिए आप नहीं जानते।
लड़ाई कई दिन तक चली और अनिर्णीत थी, जब एक दिन विश्वकर्मा के बनाए प्रस्वपन या प्रजापत्य नाम के अस्त्र का संधान करने की सलाह भीष्म को ब्रह्मा ने दी।
अगली सुबह इसका भीष्म संधान कर ही रहे थे कि नारद ने आकर उन्हें रोका।
नारद की सलाह पर भीष्म ने हथियार वापस तो ले लिया मगर जब परशुराम को पता चला तो उन्होंने कहा कि अगर किसी ने मेरे ऊपर चला शस्त्र ये सोचकर रोक लिया कि मैं उसका सामना नहीं कर पाऊँगा तो मुझे हारा हुआ ही मानना चाहिए।
ये सोचकर वो युद्ध आधे में ही रोककर चल दिए।

परशुराम के शिष्यों में सिर्फ भीष्म और द्रोण जैसे ना हारने वाले योद्धा ही नहीं थे।
कृष्ण से उनकी दो मुलाकातों का भी जिक्र महाभारत में आता है। एक बार तो कृष्ण जब अपनी नयी राजधानी के लिए स्थान चुन रहे होते हैं तब वो परशुराम से सलाह लेते हैं।
परशुराम उन्हें बताते हैं कि द्वारका के लिए वो जिस जगह का चुनाव कर रहे हैं, वो जलमग्न हो जायेगी, लेकिन सुरक्षा के लिहाज से द्वारका ही सर्वोत्तम थी।
उसके सिवा किसी और जगह पर परशुराम और कृष्ण एकमत नहीं हो पाए।
महाभारत काल के कृष्ण को खांडववन जलाने से ठीक पहले अग्नि आकर सुदर्शन चक्र देते हैं, लेकिन उसे चलाना कृष्ण ने अपने गुरु संदीपनी से नहीं बल्कि परशुराम से सीखा था।
परशुराम के ये शिष्य ब्राह्मण नहीं बल्कि वही कृष्ण थे जिन्होंने शिशुपाल पर सुदर्शन चक्र चलाया था।
शिशुपाल उस समय श्री कृष्ण को क्षत्रियों के बीच बैठा गाय दुहने वाला, और अन्य तरीकों से नीच घोषित करने पर तुला था।

नाजायज तरीकों से शिक्षा लेने पर गुरु-शिष्य में से एक की मृत्यु होती है, इसी तर्क के साथ महाभारत के शुरुआत में ही उत्तंक अपने गुरु वेद को गुरुदक्षिणा लेने के लिए राजी कर रहा होता है।
इस नियम को तोड़ने के लिए ही परशुराम के एक शिष्य को उन्होंने शाप भी दिया था।
कोई भी शापित होने के बाद परशुराम के क्षेत्र में नहीं रह सकता था इसलिए कर्ण को अधूरी शिक्षा पर ही लौटना पड़ा था।
आज की भाषा में कर्ण ड्रापआउट होते लेकिन फिर भी उन्हें युद्ध में हराने के लिए असाधारण योद्धाओं की जरुरत पड़ती थी।
महाभारत के काल के नील, वृष्णि योद्धाओं और भगदत्त के भी कर्ण से (दिग्विजय के दौरान) हारने का जिक्र आता है।

कर्ण के हारने और भागने का जिक्र एक बार पांडवों के वनवास के दौरान आता है।
जब पांडवों को चिढ़ाने आये दुर्योधन का वन की सीमा पर ही एक चित्रसेन नाम के गन्धर्व से युद्ध हो जाता है।
कर्ण को यहाँ हारकर भागना पड़ता है और दुर्योधन बाँध लिया जाता है, बाद में अर्जुन और भीम आदि पाण्डव आकर दुर्योधन को छुड़ाते हैं।
दूसरी बार कर्ण, भीष्म आदि सभी कौरव योद्धा पांडवों के अज्ञातवास के ख़त्म होने के समय अर्जुन से हारते हैं।
इस लड़ाई में अर्जुन प्रस्वपन या प्रजापत्य नाम का वही हथियार चला देते हैं जिसे शुरू शुरू में भीष्म ने परशुराम पर नहीं चलाया था।
चूँकि कौरवों ने द्रौपदी का वस्त्रहरण करने की कोशिश की थी, इसलिए बेहोश पड़े कौरवों के वस्त्र ले चलने की सलाह भी अर्जुन, राजकुमार उत्तर को देते हैं।
बाद में ये लुटे हुए कपड़े वो उत्तरा को गुड़िया बनाने के लिए दे देते हैं।

कर्ण के अर्जुन से हारने का कारण उनका ड्रॉपआउट होने के अलावा अभ्यास की कमी भी रही होगी।
आज के दौर में भी शिक्षक (और माता-पिता भी) कई बार जब लिखने और नोट्स लेने की सलाह देते हैं तो आलस के मारे वो एक कान से सुनकर दुसरे से निकाल दी जाती है।
कर्ण पर दिव्यास्त्रों का इस्तेमाल भूलने का गुरु का शाप था।
अप्रत्यक्ष रूप से अभ्यास की कमी से ये शाप फलीभूत हुआ।
एक तरफ अर्जुन उलूपी जैसी नागकन्या, अश्वसेन जैसे नागों से लड़ने का अभ्यास करते हैं, चित्रसेन जैसे गन्धर्वों से लड़ते हैं।
हनुमान और शिव जैसे प्रतिद्वंदियों (जहाँ हारना अवश्यंभावी था) से उलझने से भी अर्जुन नहीं चूकते।
वो द्रोणाचार्य से सीखने पर ही नहीं रुके, इंद्र से, शिव से भी उन्होंने शिक्षा ली, अप्सराओं से नृत्य भी सीखा और अज्ञातवास में सिखाया। दूसरी तरफ कर्ण बेचारे एक तो मानवों से ऊपर किसी से लड़े नहीं, तो दिव्यास्त्रों के इस्तेमाल का अनुभव नहीं रहा।
दुसरे एक बार जब शिक्षा छूट गई, तो फिर से किसी से सीखने की भी कोई ख़ास मेहनत नहीं की।
अर्जुन के गाण्डीव से निपटने के लिए विजया नाम का धनुष जुटाने के अलावा उन्होंने कोई विशेष अभ्यास नहीं किया।
इसलिए वो अर्जुन से हारते रहे, उनसे हमेशा निम्न रहे।

हथियारों के दक्षिण भारतीय युद्ध कला कलारीपयट्टू में शामिल होने का कारण भी परशुराम को ही बताया जाता है।
माना जाता है कि परशुराम से पहले ये कला अगस्त्यमुनि ने सिखाई थी मगर उनके काल में इसमें हथियार इस्तेमाल नहीं होते थे।
भारत के कई अजीब से हथियार (जो समय के साथ तेजी से ख़त्म हो रहे हैं) उनके होने का श्रेय परशुराम को ही जाता है।
दक्षिण भारत का एक बड़ा सा क्षेत्र आज भी परशुराम क्षेत्र कहलाता है।
महाभारत काल के इस गुरु के बाद से गुरुकुलों और युद्धकला सीखने सिखाने के केन्द्रों की जानकारी भी आश्चर्यजनक रूप से लुप्त हो जाती है

साभार

शुक्रवार, 8 मई 2020

इस दुःखी संसार में..

इस दुखी संसार में सब सुखी हों राम।
लॉक में जाये जनता सबका बनता काम।।

घर में रहते हैं सभी खाएं सब मिल बैठ।
राजा करती चाकरी जनता करती ऐठ।।

पशु पक्षि है मौज में करे न कोई हलाल।
प्रकृति बदला ले रही करो न कोई सवाल।।

जल निर्मल है भया नभ भी हो गया साफ।
फेर करो जो गंदगी कबहुं करों न माफ।।

जो दुखी हैं भूख से करो दया सब धाय।
यह दसा हे रामजी कोहू को न आय।।

प्रकृति

बहुत किया तू ताण्डव मानव,
अब ताण्डव प्रकृति को देख।
मौसम बदले खेती सूखे,
मिटे तेरो मस्तक को रेख।।

ईश्वर ने था स्वयं बनाया, 
धर लिया तू राक्षस को भेष।
घुट घुट जीले नरक जवानी,
बचा तेरा जो जीवन शेष।।