सोमवार, 30 जून 2014

वास्तु विशेष भाग​-१ पेज-१


दिशा ज्ञान​:-   आचार्य राकेश तिवारी         
विभिन्न अकारों के भूखंडों का महत्व​:-

भवन का निर्माण वर्गाकार या आयताकार करना चाहिए। आयताकार भवनों के लिए यह आवश्यक है कि चौड़ाई और लंबाई का अनुपात वास्तु नियमों के अंतर्गत होना चाहिए। 
1:1/4, 1:1/2, 1:1/3, 1/2 । 


  1. वर्गाकार​- इस आका के भूखंड सर्वोत्तम होते हैं एवं इनमें रहने वाले लोगों को संपन्नता तथा प्रसन्नता प्राप्त होती है।
  2. आयताकार- ऐसे भूखंडों में लोगों को स्वास्थ्य​, धनलाभ तथा संपन्नता मिलती है। 
  3. त्रिकोणाकार​- ये बिलकुल भी अच्छे नहीं होते, इस तरह के भूखंडों में निवास से मुकदमें जैसी क​ई समस्याएँ आ सकती हैं।
  4. गोलाकार या वृृत्ताकार- ऐसे भूखंड निवास के लिए अच्छे नहीं होते, ये निरंतर न​ई समस्याओं के जन्मदाता होते हैं।
  5. कोण विचार​- पाँच कोण्, षट्कोण, अष्टकोण, बहुभुजाओं या अन्य आकार वाले भूखंड कत​ई अच्छे नहीं होते। ऐसे भूखंड जीवन में मानसिक उद्वेग और विभिन्न क्षेत्रों में अस्थिरता लाते हैं। 
भूमि स्तर (Level) या ढाल का प्रभाव:- 

  • ​पूर्व​, उत्तईशार और न दिशा में नीची भूमि सब मनुष्यों के लिए अत्यंत वृृद्धि कारक है। अन्य दिशाओं में नीची भूमि सबके लिए हानिकारक होती है।
ऊँँची भूमि के लिए:-

  1. पूर्व में पुत्र और धन का नाश होता है।
  2. आग्नेय में धन देने वाली होती है।
  3. दक्षिण में सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली तथा निरोग करने वाली है।
  4. नैऋत्य में धनदायक है।
  5. पश्चिम में पुत्रप्रद तथा धन​-धान्य की वृद्धि करने वाली है।
  6. वायव्य में धनदायक है।
  7. उत्तर में पुत्र और धन का नाश करने वाली है।
  8. ईशान में महाक्लेश कारक है।

 नीची भूमि के लिए:-

  1. पूर्व में पुत्र दायक तथा धन की वृृद्धि करने वाली है।
  2. आग्नेय में धन का नाश करने वाली, मृत्यु तथा शोक देने वाली और अग्निभय करने वाली है।
  3. दक्षिण में मृृृत्युदायक, रोगदायक​, पुत्र​- पौत्रविनाशक, क्षयकारक और अनेक दोष करने वाली है।
  4. नैऋत्य में धन की हानि करने वाली, महान भयदायक, रोगदायक और चोरभय करने वाली है।
  5. पश्चिम में धननाशक, धान्यनाशक, कीर्तिनाशक​, शोकदायक​, पुत्रक्षयकारक तथा कलहकारक है।
  6. वायव्य में परदेश वास क अराने वाली, उद्वेगकारक, मृत्युकारक, कलहकारक, रोगदायक तथा धान्य नाश्क है।
  7. उत्तर में धन- धान्यप्रद और वंशवृद्धि करने वाली अर्थात पुत्रदायक है।
  8. ईशान में विद्या देने वाली, धनदायक, रत्नसंचय करने वाली और सुखदायक है।
  9. मध्य में नीची भूमि रोगप्रद, तथा सर्वनाश करने वाली है।
द्विदिशा भूमि के लिए:-

  1. पूर्व व अग्नेय के मध्य ऊँँची और पश्चिम व  वायव्य के मध्य नीची भूमि पितामह वास्तु कहलाती है। यह सुख​ देने वाली है।
  2. दक्षिण व अग्नेय के मध्य ऊँँची और उत्तर व वायव्य के मध्य नीची भूमि सुपथ वास्तु कहलाती है। यह सब कार्यों में शुभ है।
  3. पूर्व व ईशान में नीची और पश्चिम व नैऋत्य में ऊँची भूमि पुण्यक वास्तु कह लाती है। यह शुभ है।
  4. पूर्व व आग्नेय के मध्य नीची और वायव्य व पश्चिम के मध्य ऊँँची भूमि अपथ वास्तु कहलाती है। यह बैर तथा कलह कराने वाली है।
  5. दक्षिण व आग्नेय के मध्य नीची और उत्तर व वायव्य के मध्य ऊँची भूमि रोगकर वास्तु कहलाती है। यह रोग​ पैदा करने वाली है।
  6. पूर्व व ईशान के मध्य ऊँची और पश्चिम व नैऋत्य के मध्य नीची भूमि श्मशान वास्तु कहलाती है। यह कुल का नाश करती है।
  7. आग्नेय में नीची और नैऋत्य, ईशान तथा वायव्य में ऊँची भूमि शोक वास्तु कहलाती है। यह मृत्युदायक है।
  8. ईशान​,आग्नेय व पश्चिम में ऊँची और नैऋत्य में नीची भूमि श्वमुख वास्तु कहलाती है। यह दरिद्र करने वाली है।
  9. नैऋत्य,आग्नेय व ईशान में ऊँची तथा पूर्व व वायव्य मेम नीची भूमि ब्रह्मघ्न वास्तु कहलाती है। यह निवाश करने योग्य नहीं है।
  10. आग्नेय में ऊँँची, ईशान तथा वायव्य में नीची भूमि स्थावर वास्तु कहलाती है। यह शुभ है। यह शुभ है।
  11. नैऋत्य में ऊँची और आग्नेय, वायव्य व ईशान में नीची भूमि स्थंडित वास्तु कहलाती है। यह शुभ है
  12. ईशान में ऊँची और वायव्य​, आग्नेय व नैऋत्य में नीची भूमि शांडुल वास्तु कहलाती है। यह अशुभ है।
त्रिदिशा भूमि के लिए:-

  1. दक्षिण, पश्चिम​, नैऋत्य और वायव्य की ओर ऊँची भूमि गजपृष्ठ भूमि कहलाती है। यह धन, आय और वंश की वृद्धि करने वाली है। 
  2. मध्य में ऊँची तथा चारों ओर नीची भूमि कूर्मपृष्ठ भूमि कहलाती है। यह उत्साह​, धन-धान्य तथा सुख देने वाली है।
  3. पूर्व, आग्नेय तथा ईशान में ऊँची भूमि और पश्चिम में नीची भूमि दैत्यपृष्ठ भूमि है। यह धन, पुत्र, पशु आदि की हानि करने वाली तथा प्रेत​-उपद्रव करने वाली है।
  4. पूर्व-पश्चिम की ओर लंबी तथा उत्तर-दक्षिण में ऊँची भूमि नागपृष्ठ भूमि कहलाती है। यह उच्चाटन​, मृत्युभय, स्त्री-पुत्रादि की हानि, शत्रुवृद्धि, मानहानि तथा धनहानि करने वाली है।

शुक्रवार, 27 जून 2014

यज्ञोपवीत संस्कार


यज्ञोपवीत संस्कार जब बालक बालिका का शारीरिक- मानसिक विकास इस योग्य हो जाए कि वह अपने विकास के लिए आत्मनिर्भर होकर संकल्प एवं प्रयास करने लगे, तब उसे श्रेष्ठ आध्यात्मिक एवं सामाजिक अनुशासनों के निर्वाह के लिए अनुबंधित- संकल्पित कराया जाता है। दीक्षा का अर्थ होता है किसी श्रेष्ठ लक्ष्य तक पहुँचने के सुनिश्चित संकल्प के साथ उसके लिए निर्धारित साधना में प्रवृत्त होना। मनुष्य सांसारिक कार्यों में उलझ कर, कहीं जीवन के श्रेष्ठ लक्ष्यों की उपेक्षा न करने लगे, लौकिक के साथ आध्यात्मिक लक्ष्यों की ओर जागरूक और सचेष्ट रहे, इस दृष्टि से दीक्षा संस्कार संकल्प के साथ यज्ञोपवीत संस्कार कराया जाता है। पुरातन काल में गुरुकुल में दोनों संस्कार एक साथ ही होते थे, वर्तमान समय में मनःस्थिति एवं परिस्थितियों के अनुसार इन्हें अलग- अलग या एक साथ सम्पन्न कराया जा सकता है।
  • यज्ञोपवीत संस्कार

शिखा और सूत्र भारतीय संस्कृति के दो सर्वमान्य प्रतीक है। शिखा भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था की प्रतीक है, जो मुण्डन संस्कार के समय स्थापित की जाती है। यज्ञोपवीत सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के संकल्प का प्रतीक है। इसके साथ ही गायत्री मंत्र की गुरुदीक्षा भी दी जाती है। दीक्षा यज्ञोपवीत मिलकर द्विजत्व का संस्कार पूरा करते हैं। इसका अर्थ होता है- 'दूसरा जन्म'। शास्त्रवचन है- 'जन्मना जायते शूद्रः संस्कारवान् द्विज उच्यते !' (स्कन्द ६.२३९.३१)

जन्म से मनुष्य एक प्रकार का पशु ही है। उसमें स्वार्थपरता की वृत्ति अन्य जीवन- जन्तुओं जैसी ही होती है, पर उत्कृष्ट आदर्शवादी मान्यताओं द्वारा वह मनुष्य बनता है। जब मानव की आस्था यह बन जाती है कि उसे इन्सान की तरह ऊँचा जीवन जीना है और उसी आधार पर वह अपनी कार्य पद्धति निर्धारित करता है, तभी कहा जा सकता है कि इसने पशु- योनि छोड़कर मनुष्य योनि में प्रवेश किया है। अन्यथा नर- नारियों से तो यह संसार भरा पड़ा है। स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं । शरीर जन्म माता- पिता के रज- वीर्य से वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है। इसी को द्विजत्व कहते हैं। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म।

हर हिन्दू धर्मानुयायी को आदर्शवादी जीवन जीना चाहिए, द्विज बनना चाहिए। इस मूल तथ्य को अपनाने की प्रक्रिया को समारोहपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार के नाम से सम्पन्न किया जाता है। इस व्रत बंधन को आजीवन स्मरण रखने और व्यवहार में लाने की प्रतिज्ञा का प्रतीक तीन लड़ों वाला यज्ञोपवीत कन्धे पर डाले रहना होता है। यज्ञोपवीत बालक को तब देना चाहिए, जब उसकी बुद्धि और भावना का इतना विकास हो जाए कि इस संस्कार के प्रयोजन को समझकर उसके निर्वाह के लिए उत्साहपूर्वक लग सके।
  • यज्ञोपवीत से सम्बन्धित स्थूल- सूक्ष्म मर्यादाएँ इस प्रकार हैं-

1.  यज्ञोपवीत गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा है। गायत्री त्रिपदा है, गायत्री मन्त्र में तीन चरण हैं, इसी आधार पर यज्ञोपवीत में तीन लड़ें हैं। यज्ञोपवीत की प्रत्येक लड़ में तीन धागे होते हैं। यज्ञोपवीत में तीन गाँठों को भूः, भुवः स्वः तीन व्याहृतियाँ माना गया है। गायत्री के 'ॐ कार' को बड़ी ब्रह्म ग्रन्थि कहा गया है। गायत्री के एक- एक पद को लेकर ही उपवीत की रचना हुई है । इस प्रतिमा को शरीर मन्दिर में स्थापित करने पर उसकी पूजा- अर्चना करने का उत्तरदायित्व भी स्वीकार करना होता है। इसके लिए नित्य कम से कम एक माला गायत्री मन्त्र जप की साधना करनी चाहिए।
2.  यज्ञोपवीत को व्रत बन्ध कहते हैं। व्रतों से बँधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं। यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं। इसीलिए इसे सूत्र (फार्मूले, सहारा) भी कहते हैं। यज्ञोपवीत के नौ धागे नौ गुणों के प्रतीक हैं। प्रत्येक धारण करने वाले को इन गुणों को अपने में बढ़ाने का निरन्तर ध्यान बना रहे, यह स्मरण जनेऊ के धागे दिलाते रहते हैं।
  • गायत्री गीता (गायत्री महाविज्ञान भाग- २) के अनुसार गायत्री मन्त्र के नौ शब्दों में सन्निहित सूत्र इस प्रकार है-

1.  तत्- यह परमात्मा के उस जीवन्त अनुशासन का प्रतीक है, जन्म और मृत्यु जिसके ताने- बाने हैं। इसे आस्तिकता- ईश्वर निष्ठा के सहारे जाना जाता है। उपासना इसका आधार है।
2.  सवितु- सविता, शक्ति उत्पादक केन्द्र है। साधक में शक्ति विकास का क्रम चलना चाहिए। यह जीवन साधना से साध्य है।
3.  वरेण्यं- श्रेष्ठता का वरण, आदर्श- निष्ठा, सत्य, न्याय, ईमानदारी के रूप में यह भाव फलित होता है।
4.  भर्गो-विनाशक तेज है, जो मन्यु साहस के रूप में उभरता और निर्मलता, निर्भयता के रूप में फलित होता है।
5.  देवस्य- दिव्यतावर्द्धक है। सन्तोष, शान्ति, निस्पृहता, संवेदना, करुणा आदि के रूप में प्रकट होता है।
6.  धीमहि- सद्गुण धारण का गुण, जो पात्रता विकास और समृद्धिरूप में फलित होता है।
7. धियो- दिव्य मेधा, विवेक का प्रतीक शब्द है, समझदारी, विचारशीलता, निर्णायक क्षमता आदि का संवर्द्धक है।
8.  यो नः- दिव्य अनुदानों के सुनियोजन, संयम का प्रतीक है। धैर्य, ब्रह्मचर्यादि का उन्नायक है।
9.  प्रचोदयात्- दिव्य प्रेरणा, आत्मीयतामय सेवा साधना, सत्कर्त्तव्य निष्ठा का विकासक है।

यज्ञोपवीत के धागों में नीति का सम्पूर्ण सार सन्निहित कर दिया गया है। जैसे कागज का स्याही के सहारे किसी नगण्य से पत्र या तुच्छ सी लगने वाली पुस्तक में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ज्ञान- विज्ञान भर दिया जाता है, उसी प्रकार सूत्र के इन नौ धागों में जीवन- विकास का सारा मार्गदर्शन समाविष्ट कर दिया गया है। इन धागों को कन्धे पर, कलेजे पर, हृदय पर, पीठ पर प्रतिष्ठित करने का प्रयोजन यह है कि सन्निहित शिक्षा का यज्ञोपवीत के धागे स्मरण कराते रहें, ताकि उन्हें जीवन व्यवहार में उतारा जा सके। यज्ञोपवीत को माँ गायत्री और यज्ञ पिता की संयुक्त प्रतिमा मानते हैं।
  • उसकी मर्यादा के कई नियम हैं, जैसे-

1.  यज्ञोपवीत को मल- मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊँचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार- बार किया जाए।
2.   यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या ६ माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खण्डित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।
3.  जन्म- मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है। जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएँ भी यज्ञोपवीत सँभाल सकती हैं किन्तु उन्हें हर मास मासिक शौच के बाद उसे बदल देना पड़ता है।
4.  यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।
5.  देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बाँधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें। बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएँ, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।
यज्ञोपवीत भारतीय धर्म का पिता है और गायत्री भारतीय संस्कृति की माता, दोनों का जोड़ा है। यज्ञ पिता को कन्धे पर और गायत्री माता को हृदय में एक साथ धारण किया जाता है। गायत्री प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी का गुरु मन्त्र है। उसे यज्ञोपवीत के समय पर ही विधिवत् ग्रहण करना चाहिए। आज उस स्तर के गुरु दीख नहीं पड़ते, जो स्वयं पार हो चले हों और दूसरों को अपनी नाव पर बिठा कर पार लगा सकें। जिधर भी दृष्टि डाली जाती है, नकलीपन और धोखा ही भरा मिलता है। अस्तु, यह अच्छा है कि व्यक्तियों को गुरु न बनाया जाए। अन्तःकरण के प्रकाश को तथा प्रत्यक्ष में ज्ञान- यज्ञ की दिव्य ज्योति- लाल मशाल को सद्गुरु माना जाए और यज्ञोपवीत के समय शुद्ध उच्चारण की दृष्टि से किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति से मन्त्रारम्भ की प्रक्रिया पूरी की जाए।
  • विशेष व्यवस्था

यज्ञोपवीत संस्कार के लिए यज्ञादि की सामान्य व्यवस्था के साथ- साथ नीचे लिखी व्यवस्थाओं पर भी दृष्टि रखनी चाहिए-
1.  पुरानी परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत लेने वाले बालकों का मुण्डन करा दिया जाता था, उद्देश्य था शरीर की शृंगारिकता के प्रति उदासीनता। जिन्हें यज्ञोपवीत लेना हो, उनसे एक दिन पूर्व बाल कटवा, छँटवा कर शालीनता के अनुरूप करा लेने का आग्रह किया जा सकता है।
2. जितनों का यज्ञोपवीत होना है, उसके अनुसार मेखला, कोपीन, दण्ड, यज्ञोपवीत, पीले दुपट्टों की व्यवस्था करा लेनी चाहिए। मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है। मेखला कहते हैं कमर में बाँधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बना लेनी चाहिए। कोपीन लगभग 4 इञ्च चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लँगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टाँक कर भी रखा जा सकता है। दण्ड के लिए लाठी या ब्रह्म दण्ड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत पीले रँगकर रखे जाने चाहिए। न रंग पाएँ, तो उनकी गाँठ को हल्दी से पीला कर देना चाहिए। संस्कार कराने वालों से पहले से ही कहकर रखा जाए कि सभी या कम से कम एक नया वस्त्र धारण करके बैठें। नया दुपट्टा भी लेना पर्याप्त है। संस्कार कराने वाले हर व्यक्ति के लिए पीले दुपट्टे की व्यवस्था करा ही लेनी चाहिए।
3.   गुरु पूजन के लिए लाल मशाल का चित्र रखना चाहिए। गुरु व्यक्ति नहीं चेतना रूप है, ऐसा समझकर युग शक्ति की प्रतीक मशाल को ही गुरु का प्रतीक मानकर रखना अधिक उपयुक्त है।
4.   वेद का अर्थ है- ज्ञान। वेद पूजन के लिए वेद की पुस्तक उपलब्ध न हो, तो कोई पवित्र पुस्तक पीले वस्त्र में लपेट कर पूजा वेदी पर रख देनी चाहिए।
5.  गायत्री, सावित्री एवं सरस्वती पूजन के लिए पूजन वेदी पर चावल की तीन छोटी- छोटी ढेरियाँ रख देनी चाहिए। देव पूजन, रक्षाविधान तक के उपचार पूरे करके विशेष कर्मकाण्डों को क्रमबद्ध रूप से कराया जाता है। समय और परिस्थितियों के अनुरूप प्रेरणाएँ एवं व्याख्याएँ भी की जानी चाहिए। क्रिया- निर्देश और भाव- संयोग का क्रम पूरी सावधानी के साथ बनाया जाए।
  • मेखला- कोपीन धारण

शिक्षण एवं प्रेरणा
मेखला कोपीन धारण करने का प्रयोजन ब्रह्मचर्य पालन और प्रत्येक कार्य में जागरूक, निरालस्य एवं कर्तव्य पालन में कटिबद्ध रहने की प्रेरणा देना है। कोपीन पहनना अर्थात् लँगोट बाँधना। ब्रह्मचारी भी पहलवान की तरह लँगोट बाँधते हैं। लँगोट बाँधना ब्रह्मचर्य पालन का प्रतीक है। किशोरों को यही रीति- नीति अपनानी चाहिए, उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि शारीरिक बढ़ोत्तरी की उम्र में आवश्यक शक्ति का उपयोग शरीर एवं मन को विकसित होने में लगाना चाहिए ।

यदि उस अवधि में उसे नष्ट किया गया, तो शरीर और मन दोनों का ही विकास रुक जायेगा। अपव्यय के कारण जो खोखलापन इन दिनों उत्पन्न हो जायेगा, उसकी क्षतिपूर्ति फिर कभी न हो सकेगी, लड़कियों की शारीरिक अभिवृद्धि २० वर्ष की आयु तक और लड़कों की २५ वर्ष तक होती है। यह समय दोनों के लिए सतर्कतापूर्वक शक्तियों के संरक्षण का है, ताकि उनका उपयोग शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की नींव पक्की करने में हो सके। यह अवधि विद्या पढ़ने, मानसिक विकास करने एवं व्यायाम, ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा शारीरिक परिपुष्टि प्राप्त करने की है। जो कच्ची उम्र में जीवन रस के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर देते हैं। वे एक प्रकार से आत्म- हत्या करते हैं।

कमर में मेखला बाँधने का प्रयोजन वही है, जो पुलिस तथा फौज के सैनिक कमर में पेटी बाँधकर पूरा करते हैं। कमर बाँधकर कटिबद्ध रहना जागरूकता एवं सतर्कता का चिह्न है। आलस्य और प्रमाद छोड़कर अपने नियत कर्तव्य- कर्म के लिए मनुष्य को सदा उत्साह एवं प्रसन्नता के साथ तत्पर रहना चाहिए। आलस्य, प्रमाद, लापरवाही, ढील- पोल, दीर्घसूत्रता जैसे दुर्गुणों को पास भी नहीं फटकने देना चाहिए, आलसी और लापरवाह व्यक्ति हर दिशा में अपनी अपार क्षति करते हैं।

आलस्य चाहे शारीरिक, आर्थिक हो, चाहे मानसिक उसे साक्षात् मूर्तिमान दारिद्र्य या दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। इस बुरी आदत से सर्वथा बचा जाए, इसके लिए मेखला पहनाते हुए यज्ञोपवीत को यह प्रेरणा दी जाती है कि वह कार्य क्षेत्र में संसार में सदा अपने कत्तय पालन के लिए फौजी सैनिक की तरह कटिबद्ध रहें। जागरूकता और सतर्कता को, स्फूर्ति और आशा को, साहस और धैर्य को अपना सच्चा सहचर समझें।
  • क्रिया और भावना

मेखला और कोपीन एकत्रित रखकर आचार्य तीन बार गायत्री मन्त्र बोलते हुए उन पर जल के छींटे लगायें। भावना करें कि इनमें समय और तत्परता के संस्कार पैदा किये जा रहे हैं। सिंचन के बाद उन्हें संस्कार कराने वालों के पास पहुँचा दिया जाए। वे उन्हें हाथों के सम्पुट में रखें। मन्त्रोच्चारण के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति का संरक्षण तथा सही योजना कराने का उत्तरदायित्व हम पर आ रहा है। उसे हम साहस और प्रसन्नतापूवक स्वीकार करते हैं। उस दिशा में मिलने वाले हर विचार, सहयोग एवं भावना को हम सम्मान के साथ स्वीकार करते रहेंगे। मेखला, कोपीन के साथ दैवी संस्कार का वरण हम कर रहे हैं। मन्त्र पूरा होने पर उसे कमर में स्वयं बाँध लें या खोंस लें। लँगोट पहनने का अभ्यास बनाने का आग्रह भी किया जाए।
ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना, वर्णं पवित्रं पुनतीमऽ आगात्। 
प्राणापानाभ्यां बलमादधाना, स्वसादेवी सुभगा मेखलेयम् ॥ -पार०गृ०सू० २.२.८
  • दण्ड धारण

शिक्षण और प्रेरणा
आश्रमवासी ब्रह्मचारियों को दण्ड धारण कराया जाता था। उसके साथ अनेक स्थूल प्रेरणाएँ जुड़ी हैं। दैनिक उपयोग में कुत्ते, साँप, बिच्छू आदि से रक्षा, पानी की थाह लेना, आक्रमणकारियों से आत्मरक्षा, अपनी शक्ति एवं साहसिकता का प्रदर्शन आदि इसके कितने ही छिटपुट लाभ हैं। शस्त्र सज्जा में लाठी सर्वसुलभ और अधिक विश्वस्त है। उसे साथ रखने से साहस बढ़ता है। लाठी चलाना एक बहुत ही उच्च स्तर का व्यायाम है। इससे देहबल तथा मनोबल भी बढ़ता है। लाठी चलाना हर धर्म प्रेमी को आना चाहिए, ताकि दुष्ट, आतताई और अधर्मियों के हौंसले पस्त करने की सामर्थ्य दिखा सकें।

अन्याय सहना अन्याय करने के समान ही पाप है। अन्याय करने वाला मरने के बाद नरक को जाता है और अन्याय सहने वाला इसी जन्म में हानि, अपमान, असुविधा, आघात आदि के कष्ट सहता है। इसलिए हर धर्मप्रेमी को अनीति का प्रबल विरोध करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। इस तत्परता का एक प्रतीक उपकरण लाठी है।

यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ है पशुता का परित्याग एवं मानवता को अंगीकार करना। इस परिवर्तन की प्रक्रिया में यह तो होता ही है कि नर- पशुओं के रोष एवं असंतोष का निमित्त बनना पड़े। जहाँ सौ झूठे रहते हों, वहाँ एक सत्यवादी को सताया एवं तिरस्कृत किया जाता है। ऐसी सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए धैर्य, साहस एवं आत्मबल का एकत्रीकरण करना होता है, इस तैयारी को- इस बात को सदा स्मरण रखने के लिए दण्ड का विधान रखा गया है।

लाठी आमतौर से बाँस की होती है ।। बाँस की अनेक गाँठें मिलकर पूरा दण्ड बनाती है। इसका प्रयोजन यह है कि अनेक व्यक्तियों के मिलजुल कर रहने से, संगठित होने से ही धर्मरक्षा की शक्ति का निर्माण होता है। संघ शक्ति ही इस युग में सर्वोपरि है। उसी के द्वारा धर्म रक्षा एवं अधर्म का प्रतिकार हो सकता है। धर्मात्मा व्यक्ति वैसे ही थोड़े हैं। इस पर भी वे असंगठित रहें, तो फिर उनके आदर्श अच्छे रहते हुए भी व्यवहार की दृष्टि से उन्हें बेवकूफ कहा जायेगा। बेवकूफ सदा पिटते रहते हैं। असंगठित धर्म प्रेमियों को यदि तिरस्कृत एवं असफल रहना पड़े, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। खण्डों से मिलकर बना हुआ दण्ड हाथ में धारण करते समय यज्ञोपवीतधारी- आदर्शों को अपनाने वाले को यह ध्यान रखना पड़ता है कि उसे साहसी- शूरवीर ही नहीं, संगठन की उपयोगिता एवं आवश्यकता को भी समझना और स्वीकार करना है। ‍अपने क्षेत्र के धमप्रेमियों को संगठित करने की बात सदा ध्यान में रखनी चाहिए।
  • क्रिया और भावना

दण्ड पर गायत्री मन्त्र के साथ कलावा बाँध देना चाहिए। यह कार्य पहले से भी करके रखा जा सकता है और उसी समय भी किया जा सकता है। दण्ड मन्त्र के साथ संस्कार कराने वालों को दिया जाए। वे उसे दोनों हाथों से लेकर मस्तक से लगाएँ। भावना करें कि अध्यात्म क्षेत्र के प्रखर अनुशासन को ग्रहण किया जा रहा है, इसके साथ देव शक्तियों द्वारा उसके अनुरूप प्रवृत्ति और शक्ति प्रदान की जा रही है। आचार्य निम्न मन्त्र बोलते हुए ब्रह्मचारी को दण्ड प्रदान करें-
ॐ यो मे दण्ड परापतद्, वैहायसोऽधिभूम्याम् । 
तमहं पुनराददऽ आयुषे, ब्रह्मणे ब्रह्मवचर्साय ॥ -- पार० गृ०सू० २.२.१२
  • यज्ञोपवीत पूजन

यज्ञोपवीत देव प्रतिमा है। उसकी स्थापना के पूर्व उसकी शुद्धि तथा उसमें प्राण- प्रतिष्ठा का उपक्रम किया जाता है। जनेऊ को सबसे प्रथम पवित्र करना चाहिए। उसे शुद्ध जल से सम्भव हो, तो गंगाजल से धोया जाए, ताकि अब तक उस पर पड़े हुए स्पर्श संस्कार दूर हो जाएँ। इसके बाद उसे दोनों हाथों के बीच रखकर १० बार गायत्री मन्त्र का मानसिक जप किया जाए। इतना करने से वह पवित्र एवं अभिमंत्रित हो जाता है। फिर हाथ में अक्षत, पुष्प लेकर यज्ञोपवीत पूजन का मन्त्र बोला जाए। मन्त्र पूरा होने पर अक्षत पुष्प उस पर चढ़ा दिये भावना की जाए कि सूत्र की बनी इस देव प्रतिमा को शुद्ध एवं संस्कारवान् बनाकर उसमें सन्निहित देवत्व के प्रति अपनी भावना आस्था समर्पित की जा रही है।
ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य, बृहस्पतिर्यज्ञमिमं, तनोत्वरिष्टं, यज्ञं समिमं दधातु ।। 
विश्वे देवास ऽ इह मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ ।। -२.१३
  • पञ्च देवावाहन

शिक्षण और प्रेरणा
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यज्ञ और सूर्य -- इन पाँचों देवताओं को पाँच दिव्य भावनाओं का प्रतीक माना गया है ।। ब्रह्मा अर्थात् आत्मबल, विष्णु अर्थात समृद्धि, महेश अर्थात व्यवस्था, यज्ञ अर्थात परमार्थ, सूर्य अर्थात पराक्रम- इन पाँचों गुणों को देवता मानकर हम यज्ञोपवीत के माध्यम से अपने हृदय और कलेजे पर धारण करें अर्थात् उन्हें अपनी आस्था एवं प्रकृति का अंग बनाएँ, तभी वास्तविक कल्याण का मार्ग मिलेगा ।। देवता भावनाओं के प्रतिबिम्ब होते हैं।

(१) ब्रह्मा- जीवन के भौतिक और आत्मिक दोनों ही पहलू सुविकसित होने चाहिए। हमें आत्मबल से सम्पन्न होने के लिए संयमी, सदाचारी, मधुरभाषी, शालीन, नेक, सज्जन, आस्तिक, सद्गुणी होना चाहिए, जिसका व्यक्तित्व जीवन पवित्र एवं सद्भावना युक्त है, उसी का आत्मबल बढ़ता है। यज्ञोपवीत में आवाहित प्रथम ब्रह्मा का धारण करने का तात्पर्य इस मान्यता को हृदयंगम करना एवं उसके लिए प्रयत्नशील रहना ही है।
  • क्रिया और भावना

यज्ञोपवीत खोलकर उसे हाथ के दोनों अँगूठों में फैला लें, ताकि फिर से न उलझे। अब दोनों हाथों के सम्पुट में लें। मंत्रोच्चार के साथ भावना करें कि आवाहित देवशक्ति का प्रवाह इस सूत्र में स्थापित हो रहा है। मन्त्र पूरा होने पर हाथों को मस्तक से लगाएँ।

ॐ ब्रह्म य्ज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्, विसीमतः सुरुचो वेनऽआवः ।। 
सबुध्न्या ऽउपमा ऽ अस्य विष्ठाः, सतश्च योनिमसतश्च विवः ॥

ॐ ब्राह्मणे नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।। -- १३.३, अथर्वर्० ५.६.१

(२) विष्णु- विष्णु लक्ष्मी के स्वामी हैं, हमें भी दीन, दरिद्र, हेय, परावलम्बी, गई- गुजरी स्थिति में नहीं पड़ा रहना चाहिए। स्वास्थ्य, शिक्षा, कुशलता आदि गुणों को बढ़ाना चाहिए, ताकि उसकी कीमत पर सुख साधनों को, समृद्धि को प्राप्त किया जा सके। समृद्धि उपलब्ध करने का सही मार्ग केवल एक ही है, अपनी प्रतिभा एवं योग्यता को बढ़ाना। इस दिशा में जो जितना कर लेगा, उसे उस मूल्य पर आसानी से अधिक सुख- साधन मिल जायेंगे ।। समृद्धि को मनुष्य अपनी तथा दूसरों की सुविधा बढ़ाने में खर्च करें, तो उससे लोक एवं परलोक की सुख- शान्ति बढ़ेगी। यज्ञोपवीत में स्थापित विष्णु का यही सन्देश है।

ॐ इदं विष्णुविर्चक्रमे, त्रेधा निदध पदम् ।। समूढमस्य पा सुरे स्वाहा ॥
ॐ विष्णवे नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।। -५.१५

(३) महेश- महेश का अर्थ है नियंत्रण, व्यवस्था, क्रमबद्धता, उचित का चुनाव। ब्रह्मा को उत्पादन का, विष्णु को पालन का और शिव को संहार का देवता माना गया है। संहार का अर्थ है- अनुपयोगिता एवं अनौचित्य का निवारण। हमारी आधी से अधिक शक्ति सामर्थ्य अव्यवस्था एवं अनौचित्य को अपनाये रहने से नष्ट होती है, इसे बचाया जाना चाहिए। यज्ञोपवीत में शिव देवता का आवाहन इन्हीं मान्यताओं को हृदयंगम करने के लिए किया जाता है ।।

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ, उतो त ऽ इषवे नमः ।। बाहुभ्यामुत ते नमः ।। ॐ रुद्राय नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ॥ -१६.१

(४) यज्ञ- आत्मबल बढ़ाने के लिए एक अनिवार्य माध्यम परमार्थ है, यज्ञ इसी प्रवृत्ति का परिचायक है। धार्मिक व्यक्ति वही है, जिसके जीवन में सेवा, उदारता, सहायता एवं परोपकार की वृत्ति फूट पड़ती है, जिसे सभी अपने लगते हैं, जिसे सभी से प्रेम है, वही सच्चा अध्यात्मवादी कहा जायेगा। उसे अनिवार्यत: अपनी आकांक्षाओं और गतिविधियों में परमार्थ को प्रधानता देनी ही होगी। ब्रह्म और यज्ञ इन दो देवताओं की- वैयक्तिक जीवन की पवित्रता एवं लोक सेवा की प्रवृत्ति को अपनाने से आत्मिक बल बढ़ता है और मनुष्यत्व से देवत्व की ओर प्रगति होती है । यज्ञोपवीत खोलकर कनिष्ठिका व अँगूठे में फँसाकर यज्ञ भगवान् के सामने करें।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धमार्णि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूवेर् साध्याः सन्ति देवाः॥
ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि -३१.१६

(५) सूर्य- सूर्य अर्थात तेजस्विता, पराक्रम, श्रमशीलता। सूर्य की तरह हम निरन्तर कार्य में संलग्न रहें, परिश्रम को अपना जीवन सहचर एवं गौरव का आधार मानें। आलस्य और प्रमाद को पास न फटकने दें। सदा जागरूक एवं चैतन्य रहें। पुरुषार्थी बनें, आत्महीनता एवं दीनता की भावना मन में न आने दें । तेजस्वी बनें। एक पैर से खड़े होकर पानी का लोटा सूर्य के सामने लुढ़का देने से नहीं, सूर्य की सच्ची उपासना उसकी प्रेरणाओं को अपनाने से होती है । यज्ञोपवीत को लिए हुए दोनों हाथ ऊपर उठाएँ, सूर्य भगवान् का ध्यान करें-
ॐ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो, निवेशयन्नमृतं मर्तयं च ।। 
हिरण्ययेन सविता रथेना, देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ 
ॐ सूर्याय नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ॥ -३३.४३
  • यज्ञोपवीत धारण

शिक्षण और प्रेरणा
कोई भी वस्त्र आभूषण हो, अपनी शोभा प्रतिष्ठा तब बढ़ाता है, जब उसे धारण किया जाए। यज्ञोपवीत प्रतीक का धारण करते हुए यह ध्यान रखा जाए कि यह सूत्र नहीं, इस माध्यम से जीवन में दिव्यता- आदर्शवादिता को धारण किया जा रहा है। इसे सहज ही धारण किया जाना चाहिए क्योंकि इसके बिना मनुष्य में मनुष्यता का विकास सम्भव नहीं।
  • क्रिया और भावना

पाँच यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति मिलकर यज्ञोपवीत पहनाते हैं। भाव यह है कि इस दिशा में नया प्रयास, प्रवेश करने वाले को अनुभवियों का सहयोग एवं मार्गदर्शन मिलता रहे। पहनाने वाले जब यज्ञोपवीत पकड़ लें, तो धारण करने वाला उसे छोड़ दे। बायाँ हाथ नीचे कर ले और दाहिना हाथ ऊपर ही उठाये रहे। मन्त्र के साथ यज्ञोपवीत पहना दिया जाए। मन्दिर में प्रतिमा स्थापना जैसा दिव्य भाव बनाये रखें।
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात् ।।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥ -पार० गृ०सू० २.२.११
  • सूर्य दर्शन

शिक्षण एवं प्रेरणा
तदुपरान्त सूर्य दर्शन एवं सूर्य अर्घ्यदान की क्रिया है। संस्काराथीर् सूर्य भगवान् को देखता है और तीन अंजलि भर के उन्हें जल प्रदान करता है। सूर्य के समान तेजस्वी बनना, उष्णता धारण किये रहना, गतिशील रहना, लोक कल्याण के लिए जीवन समर्पित करना, अन्धकार रूपी अज्ञान दूर करना, अपने प्रकाश से दूसरों को प्रकाशित करना जैसी अनेक प्रेरणाएँ सूर्य दर्शन करते हुए ग्रहण की जाती है। सूर्य आगे बढ़ता चलता है, पर साथ में अपने अन्य ग्रह, उपग्रहों को भी घसीटता ले चलता है। यज्ञोपवीतधारी को स्वयं तो प्रगति के पथ पर आगे बढ़ना ही है, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना है कि व्यक्तिगत उन्नति से ही सन्तोष न कर लिया जाए, अपने साथी समीपवर्ती लोगों को भी आगे बढ़ाते हुए साथ चलने का प्रयत्न करना है।

सूर्य उदय और अस्त में, लाभ और हानि में मनुष्य को संतुलित धैर्य युक्त एवं एक सा रहना चाहिए ।। न तो सम्पत्ति से उन्मत्त हों और न विपत्ति में शोकसंतप्त से विक्षुब्ध हों ।। धूप- छाँव की तरह जीवन में प्रिय- अप्रिय परिस्थितियाँ आती- जाती रहती हैं ।। उन्हें हँसते- खेलते एवं क्रीड़ा विनोद की तरह देखना चाहिए और शान्त चित्त से अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर बिना एक क्षण भी उद्वेगों में गँवाये, आगे बढ़ते रहना चाहिए। सूर्य के समान लोककल्याण के आयोजनों में पूरी अभिरुचि रखने का कार्य पद्धति अपनाने की योजना बनानी चाहिए। भगवान् भास्कर अपनी किरणों द्वारा समुद्र के पानी को भाप बनाकर बादलों के रूप में परिणत करते हैं। बादलों से वर्षा होती है। उसी पर वृक्ष, वनस्पति, जीव- जन्तु, पशु- पक्षी और मनुष्य का जीवन निर्भर है ।। सूर्य किरणों की गर्मी निर्जीव प्रकृति को सजीव बनाती है। संसार में जितना जीवन तत्त्व है, वह सब सूर्य से ही आया है। इसलिए सूर्य को जगत् की आत्मा भी कहा गया।

हमें भी सूर्य के दर्शन करते हुए इसी रीति- नीति को अपनाना चाहिए और श्रद्धापूर्वक तीन बार अञ्जलि देते हुए शरीर, मन और धन से इन आदर्शों में तत्पर रहने की सहमति- स्वीकृति प्रकट करनी होती है।
  • क्रिया और भावना

मन्त्रोच्चार के साथ सूर्य नारायण का ध्यान करते हुए हाथ जोड़कर नमस्कार करें, भावना करें कि जगदात्मा सूर्य जिस प्रकार सारी प्रकृति को शक्ति देते हैं, वैसे ही उनका सूक्ष्म प्रवाह हमें भी मिल रहा है, हम उससे धारण और नियोजन की सामथ्यर् पा रहे हैं।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् ।। 
पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं, 
प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः, स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात् ॥ -३६.२४
  • त्रिपदा पूजन

शिक्षण और प्रेरणा
गायत्री माता के तीन चरण कहे गये हैं। यज्ञोपवीत की तीन लड़ें उनकी प्रतीक हैं। उन्हें सूत्र रूप में गायत्री, सरस्वती और सावित्री शक्तियों के रूप में जाना जाता है। इनकी प्रतिनिधि धाराएँ क्रमशः श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा हैं। ये मनुष्य के कारण, सूक्ष्म और स्थूल कलेवरों को नियन्त्रित, विकसित करने वाली हैं। इन्हीं के सहारे देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋणों से मुक्त हुआ जा सकता है। इन्हें ही भक्ति, ज्ञान और कर्म की धाराओं की गंगोत्री माना जाता है। इनका मर्म समझने तथा अनुसरण करने के भाव से त्रिपदा पूजन के अन्तर्गत इन्हीं तीन शक्तियों का पूजन किया जाता है।
  • क्रिया और भावना

पूजन वेदी पर स्थापित चावल की तीन ढेरी को गायत्री, सरस्वती एवं सावित्री का प्रतीक मानकर उनके मन्त्र बोलकर अक्षत, पुष्प उन पर चढ़ाएँ ।। भावना की जाए कि ऊँची सतह का पानी निचली सतह पर आता है ।। इन शक्तियों के आगे उनका पूजन करके झुककर उनके प्रवाह को हम प्राप्त कर रहे हैं ।। गायत्री पूजन के साथ श्रद्धा, सरस्वती के साथ प्रज्ञा और सावित्री के साथ निष्ठा सम्पदाओं के सम्वर्धन की भावना की जाए ।।
  • गायत्री पूजन

ॐ ता सवितुवर्रेण्यस्य, चित्रामाऽहं वृणे सुमतिं विश्वजन्याम् ।। 
यामस्य कण्वो अदुहत्प्रपीना ,, सहस्रधारां पयसा महीं गाम् ।। 
ॐ भूर्भुवः स्वः गायत्र्यै नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ॥- १७.७४
  • सरस्वती पूजन

ॐ पावकः न सरस्वती, वाजेभिवार्जिनीवती ।। यज्ञं वष्टु धियावसुः ॥ ॐ भूर्भवः स्वः सरस्वत्यै नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ॥ -२०.८४
  • सावित्री पूजन

ॐ सवित्रा प्रसवित्रा सरस्वत्या, वाचा त्वष्टा रूपैः पूष्णा पशुभिरिन्द्रेणास्मे, बृहस्पतिना ब्रह्मणा वरुणेनौजसाऽग्निना, तेजसा सोमेन राज्ञा विष्णुना, दशम्या देवताया प्रसूता प्रसपार्मि॥ ॐ भूर्भुवः स्वः सावित्र्यै नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।- १०.३०
  • दीक्षा प्रकरण

यज्ञोपवीत संस्कार के साथ दीक्षा अनिवार्य रूप से जुड़ी है। बहुत बार प्रतिनिधि के रूप में आस्थावान् व्यक्तियों को भी दीक्षा देनी पड़ती है। दोनों ही प्रकरणों में दीक्षा के उद्देश्य, महत्त्व और मर्यादाओं पर उनका ध्यान दिला देना चाहिए।

महत्त्व और मर्यादाएँ- दीक्षा पाने के लिए व्यक्ति बहुधा सहज श्रद्धावश पहुँच जाते हैं। दीक्षा के पूर्व उन्हें इस कृत्य का महत्त्व और उसकी मर्यादाएँ समझा देनी चाहिए। उसके मुख्य सूत्र ये हैं-
(१) गुरु दीक्षा सामान्य कर्मकाण्ड नहीं, एक सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयोग है। उसके अन्तर्गत शिष्य अपनी श्रद्धा और संकल्प के सहारे गुरु के समर्थ व्यक्तित्व के साथ जुड़ता है। कर्मकाण्ड उस सूक्ष्म प्रक्रिया का एक अंग है।
(२) दीक्षा में समर्थ गुरु के विकसित प्राण का एक अंश शिष्य के अन्दर स्थापित किया जाता है। यह कार्य समर्थ गुरु ही कर सकता है। उन्हीं का प्राणानुदान दीक्षा लेने वालों को मिलता है, कर्मकाण्ड कराने वाला स्वयंसेवक मात्र होता है।
(३) व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़ता है, यह उसी प्रकार ठीक है, जैसे पौधा अपनी ही जड़ों से जीवित रहता है और बढ़ता है, किन्तु यह भी सत्य है कि वृक्ष की कलम सामान्य पौधे में बाँध देने पर उसके उत्पादन में भारी परिवर्तन हो जाता है। दीक्षा में साधक रूपी सामान्य पौधे पर गुरु रूपी श्रेष्ठ वृक्ष की टहनी प्राणानुदान के रूप में स्थापित की जाती है। साधक इसका अनुपम लाभ उठा सकता है।
(४) कलम बाँधना एक कार्य है। यह कार्य गुरु द्वारा किया जाता है। उसे रक्षित और विकसित करना दूसरा कार्य है, जिसके लिए शिष्य को पुरुषार्थ करना पड़ता है। दीक्षा लेने वालों को अपने इस दायित्व के प्रति जागरूक रहना चाहिए। इसके लिए गुरु के विचारों के सतत सान्निध्य में रहना आवश्यक है, मिशन की पत्रिकाओं से उनका मार्गदर्शन पाते रहना तथा तदनुरूप जीवन क्रम बनाने का प्रयास करना चाहिए।
(५) दीक्षा के बाद गुरु- शिष्य परम्परा पूरक बन जाते हैं। गुरु की शक्ति शिष्य के उत्कर्ष के लिए लगती रहती है, पर यह तभी सम्भव है, जब शिष्य की शक्ति गुरु के कार्यों- लोकमंगल के लिए नियमित रूप से लगती रहे। इसे देवत्व की साझेदारी कहा जा सकता है। शिष्य को अपने समय, पुरुषार्थ, प्रभाव, ज्ञान एवं धन का एक अंश नियमित रूप से गुरु के कार्य के लिए लगाना होता है। यह क्रम चलता रहे, तो लगाई हुई कलम का फलित होना अवश्यम्भावी है। क्रम व्यवस्था- यदि यज्ञोपवीत के साथ दीक्षा क्रम चलाना है, तो त्रिपदा पूजन के बाद गुरु पूजन- नमस्कार कराके दीक्षा दे दी जाए। (यदि अलग से दीक्षा क्रम चलता है, तो नीचे लिखे क्रम से उपचार कराते हुए आगे बढ़ें।
(१) पहले षट्कर्म- पवित्रीकरण, आचमन, शिखावन्दन, प्राणायाम, न्यास एवं भूमिपूजन कराएँ। इसके साथ संक्षिप्त भावभरी सारगर्भित व्याख्याएँ की जाएँ।
(२) षट्कर्म के बाद देवपूजन एवं सर्वदेव नमस्कार कराएँ।
(३) नमस्कार के बाद हाथ में पुष्प, अक्षत, जल लेकर स्वस्तिवाचन कराया जाए। स्वस्तिवाचन के अक्षत, पुष्प एकत्रित करने के साथ ही नियुक्त स्वयंसेवकों द्वारा ही कलावा बाँधने एवं तिलक करने का क्रम चलाया जाए ।। उसके मन्त्र एवं व्याख्याएँ संचालक बोलते रहें ।। यदि दीक्षा क्रम यज्ञ के साथ चल रहा है, तो उपयुक्त में से जो उपचार पहले कराये जा चुके हैं, उन्हें पुनः कराना आवश्यक नहीं। उस स्थिति में गुरु पूजन करके ही दीक्षा दी जाए ।)
  • गुरु पूजन

जिस प्रकार भगवान् मूर्ति नहीं एक चेतना है, उसी प्रकार गुरु को व्यक्ति नहीं चेतना रूप मानना चाहिए। जो ईश्वर को मूर्तियों, चित्रों तक सीमित मानता है, वह ईश्वरीय सत्ता का समुचित लाभ नहीं उठा सकता। इसी प्रकार जो गुरु को शरीर तक सीमित मानता है, वह गुरु सत्ता का लाभ नहीं उठा सकता ।। जिस प्रकार ईश्वर सर्वसमर्थ है, पर भक्त की मान्यता और भावना के अनुरूप ही प्रत्यक्ष फल देता है, वैसे ही गुरु भी शिष्य की आस्था के अनुरूप फलित होता है। यह ध्यान में रखकर गुरु वन्दना के साथ अन्तःकरण में गुरु चेतना के प्रकटीकरण होने की प्रार्थना की जानी चाहिए। क्रिया और भावना- गुरु के प्रतीक चित्र पर मन्त्र के साथ अक्षत- पुष्प चढ़ाकर उनका पूजन करें। फिर हाथ जोड़कर भावभरी वन्दना करें। भावना करें कि उनकी कृपा से उन्हें चेतना के रूप में समझने, अपनाने की क्षमता का विकास हो रहा है।
ॐ बृहस्पते ऽअति यदयोर्, अहार्द् द्युमद्विभाति क्रतुमज्ज्नेषु। 
यद्दीदयच्छवसऽ ऋतप्रजात, तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम् ।। 
उपयामगृहीतोऽसि बृहस्तपये, त्वैष ते योनिबृर्हस्तपये त्वा।
ॐ श्री गुरवे नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।। 
ततो नमस्कारं करोमि ।। -२६.३, तै०सं० १.८.२२.२, ऋ० २.२३.१५

ॐ वन्दे बोधमयं नित्यं, गुरुं शंकररूपिणम् ।। 
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि, चन्द्रः सवर्त्र वन्द्यते॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य, ज्ञानांजनशलाकया ।। 
चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥ 
नमोऽस्तु गुरवे तस्मै, गायत्रीरूपिणे सदा ।। 
यस्य वागमृतं हन्ति, विषं संसारसंज्ञकम्॥ 
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत मागर्दशिर्का ।। 
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धाप्रज्ञायुता च या॥
  • मन्त्र दीक्षा

शिक्षण और प्रेरणा
गायत्री मन्त्र सहज रूप से एक छन्द है, प्रार्थना है। गुरु जब उसके साथ अपने तप, पुण्य और प्राण को जोड़ देता है, तो वह मन्त्र बन जाता है। यह सब देने की सामर्थ्य जिसमें न हो, वह दीक्षा देने प्रयास करे, तो निरर्थक रूप से पाप का भागी बनता है। स्वयंसेवक भाव से गुरु की चेतना का प्रवाह दीक्षित व्यक्ति से जोड़ने में अपनी सद्भावना का प्रयोग करना उचित है।
  • क्रिया और भावना

अब साधकों को सावधान होकर बैठने को कहें। कमर सीधी, हाथ की अँगुलियाँ परस्पर फँसाकर हाथ के अँगूठों को सीधा रखते हुए परस्पर मिलाए। अँगूठे के नाखूनों पर साधक अपनी दृष्टि टिकाएँ। यह स्थिति मन्त्र दीक्षा चलने तक बनी रहे। कहीं इधर- उधर न देखें। मन्त्र दीक्षा के बाद जब सिंचन हो जाए, तब दृष्टि हटाएँ और हाथ खोलें। उपरोक्त मुद्रा बनाने के बाद दीक्षा कमर्काण्ड कराने वाला स्वयंसेवक गुरु का ध्यान करते हुए गायत्री मन्त्र का एक- एक शब्द अलग- अलग करके बोले। दीक्षा वाले उसे दुहराते चलें। इस क्रम से पाँच बार गायत्री मन्त्र दुहराया जाए। भावना की जाए 'गुरु की दिव्य सामर्थ्य, उनके तप, पुण्य, और प्राण का अंश मन्त्राक्षरों के साथ साधक के अन्दर प्रविष्ट- स्थापित हो रहा है ।' उपयुक्त मनोभूमि में वह फलित होकर ही रहेगा।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ -३६.३
  • सिंचन- अभिषेक

शिक्षण एवं प्रेरणा
वृक्ष, बीज या कलम आरोपित करने के बाद उसमें पानी दिया जाता है । पानी उसके अनुरूप होना चाहिए अन्यथा तेल, साबुन, तेजाबयुक्त पानी पौधे को नष्ट करेगा। गुरु के अनुदानों को दिव्य रस- श्रेष्ठ कर्मों तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट अनुशासनों के पालन में उल्लास की अनुभूति से सींचा जाता है। पेड़ लगे, फले- फूले यह भाव सींचने का है। अभिषेक राजाओं, योद्धाओं, सत्पुरुषों का किया जाता है । दीक्षा लेकर नया श्रेष्ठ जीवन प्रारम्भ किये जाने का अभिनन्दन करते हुए अभिषेक किया जाता है।
  • क्रिया और भावना

कुछ स्वयंसेवक कलश लें । आम के पत्ते, कुश या पुष्प द्वारा मन्त्र के साथ जल के छींटे दीक्षितों पर लगाएँ । भावना की जाए कि सिंचन के साथ दैवी शक्तियों, स्नेहियों के सद्भावों की वर्षा हो रही है, साधकों की साधना फलीभूत होने की स्थिति बन रही है ।
ॐ आपो हिष्ठा मयोभुवः तानऽऊजेर् दधातन ।। महे रणाय चक्षसे ।।
ॐ यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः ।। उशतीरिव मातरः ।।
ॐ तस्मा ऽअरं गमाम वो, यस्य क्षयाय जिन्वथ ।।
 आपोजनयथा च नः ।। -३६.१४-१६, ११.५०- ५२
(यदि केवल दीक्षा क्रम अलग से चल रहा हैं, तो सिंचन के बाद गुरु दक्षिणा संकल्प कराएँ ।। यज्ञोपवीत के साथ दीक्षा है, तो यज्ञोपवीत के शेष कर्म पूरे कराकर संकल्प कराएँ ।)
  • भिक्षाचरण

शिक्षण एवं प्रेरणा
गुरु दक्षिणा द्वारा साधक अपने विकास की सुनिश्चित मर्यादा घोषित करता है । सदुद्देश्य के लिए अपना अंशदान देता है, परन्तु बात यहीं समाप्त नहीं होती । सत्कार्यों में अपने योगदान के लिए औरों के योगदान भी जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए । इसके लिए देने की स्थिति और इच्छा जिनमें हैं, उनसे लेकर उसे सत्कार्यों में लगाना परम पुनीत कार्य माना जाता है । भिक्षा की परम्परा इसी दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती थी । शिष्य इस परिपाटी के पालन का साहस करे । अपने अहं को गलाकर जन सहयोग एकत्रित करके गुरुकार्य में लगाए । इसी भाव से यज्ञोपवीत के साथ भिक्षा चरण का क्रम भी जुड़ा रहता है ।
  • क्रिया और भावना

शिष्य दुपट्टे की झोली बनाकर भिक्षा माँगे । पहले माँ के पास जाए, कहे 'भवति भिक्षां देहि' फिर पिता के पास जाकर कहे 'भवान् भिक्षां देहि' । फिर इसी प्रकार कहता हुआ अपने कुटुम्बियों महिलाओं- पुरुषों से याचना करें, जो मिले उसे गुरु के सम्मुख अर्पित कर दे । भिक्षा देने वालों के हाथों में अक्षत दे दिये जाएँ । अपनी इच्छा से वे कुछ द्रव्य डालना चाहें, तो डाल सकते हैं । 'भवति भिक्षां देहि' (महिलाओं से ) और 'भवान् भिक्षां देहि' (पुरुषों से) कहते हुए भिक्षा पूरी करके उपलब्ध सामान गुरु के सम्मुख चढ़ा दिया जाता है ।
  • वेद पूजन- अध्ययन

वेदों का सार गायत्री है । गायत्री को ही वेदमाता, वेदबीज या वेदमूल कहते हैं । वेदमाता गायत्री के निर्देशों के अनुरूप, जीवन निर्माण की अपनी आस्था के प्रतीक रूप में वेद भगवान् का पूजन किया जाता है ।
क्रिया और भावना
हाथ में पुष्प- अक्षत लेकर वेदों का प्रतीक पूजन किया जाए । फिर नीचे दिये प्रत्येक वेद के एक- एक मन्त्र बुलवाये जाएँ । आचार्य कहें, दीक्षित व्यक्ति दुहराएँ ।
ॐ वेदोऽसि येन त्वं देव वेद, देवेभ्यो वेदोऽभवस्तेन मह्यं वेदो भूयः ।।
 देवा गातुविदो गात वित्त्वा गातुमित ।।
 मनसस्पत ऽइमं देव, यज्ञ स्वाहा वाते धाः ।।
 ॐ वेदपुरुषाय नमः ।। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।। -२.२१
वेदाध्ययन
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं, यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।। होतारं रतनधातमम्॥ -- ऋ० १.१.१
ॐ इषे त्वोजेर् त्वा वायव स्थ देवो वः, सविता प्रापर्यतु श्रेष्ठतमाय कमर्णऽ, आप्यायध्व मघ्न्याऽइन्द्राय भागं, प्रजावतीरनमीवा अयक्ष्मा, मा व स्तेनऽईशत माघश, सो ध्रुवा ऽअस्मिन् गोपतौ स्यात, बह्वीयर्जमानस्य पशून्पाहि॥१.१
 ॐ अग्न आ याहि वीतये, गृणानोहव्य दातये ।। निहोता सत्सि बहिर्षि॥ -साम०१.१.१
ॐ ये त्रिषप्ताः परियन्ति, विश्वारूपाणि बिभ्रतः ।। वाचस्पतिबर्ला तेषां, तन्वोऽ अद्य दधातु मे॥ -अथर्वर्० १.१.१
  • विशेष- आहुति

इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियों तक के उपचार पूरे करें । स्विष्टकृत् आहुति के पूर्व विशेष आहुतियाँ प्रदान करें ।

शिक्षण एवं प्रेरणा
यज्ञोपवीत व्रतबन्ध है । व्रतशील तेजस्वी जीवन जीने का आरम्भ यहाँ से किया जाता है । इस व्रतशीलता के लिए पाँच व्रतपति देवताओं के नाम की आहुतियाँ डालते हैं । ये देवशक्तियाँ हैं- अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र और इन्द्र ।
अग्नि से ऊष्मा, प्रकाश, ऊँचे उठना, सबको अपने जैसा बनाना तथा प्राप्त को वितरित करके अपने लिए कुछ शेष न रखना आदि प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं ।
वायु से सतत गतिशीलता, जीवों की प्राण रक्षा के लिए स्वयं उन तक पहुँचना, सहज उपलब्ध रहना, बादल, सुगन्धि जैसी सत्प्रवृत्तियों के प्रसार- वितरण का माध्यम बनने की प्रेरणाएँ उभरती हैं ।
सूर्य से प्रकाश, नियमितता, सतत चलते रहना, बिना भेदभाव सब तक अपनी किरणें पहुँचाने जैसा श्रेष्ठ शिक्षण प्राप्त होता है।
चन्द्र स्वयंप्रकाशित नहीं, फिर भी प्रकाश देता है । स्वयं सूर्य ताप सहकर शीतल प्रकाश फैलाता है- ऐसी सत्प्रवृत्तियों के प्रतीक चन्द्रदेव से प्रेरणाएँ प्राप्त करते हैं ।
इन्द्र देवत्व के संगठक हैं । बिखराव से ही देवत्व का पराभव होता है, देववृत्तियों के एकीकरण तथा हजार नेत्रों से सतत जागरूकता की प्रेरणा इन्द्रदेव से प्राप्त होती है ।
  • क्रिया और भावना

मन्त्र के साथ आहुतियाँ दें । प्रत्येक आहुति के साथ भावना करें कि इस देवशक्ति के पोषण के लिए यह हमारा योगदान है । वह हमें संरक्षण और मार्गदर्शन देंगे । यह वृत्तियाँ उनके आशीर्वाद से हमें मिल रही हैं, जिससे हमारा कल्याण होता है ।
ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् ।।
तेनध्यार्समिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा ।।
 इदं अग्नये इदं न मम् ।।
ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् ।।
 तेनध्यार्समिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा ।।
 इदं वायवे इदं न मम् । ॐ सूय व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् ।
तेनध्यार्समिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा ।
इदं सूर्याय इदं न मम् ।
ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् ।
 तेनध्यार्समिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा ।
 इदं चन्द्राय इदं न मम् ।
ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम् ।
 तेनध्यार्समिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि स्वाहा । इदं सूर्याय इदं न मम् - म०ब्रा० १.६.९-१३
वैश्वानरः -- नमस्कार
हाथ जोड़कर अग्निदेव को नमस्कार करें । भावना करें कि यज्ञाग्नि जिसके सान्निध्य से देवत्व मिलता है, उसके प्रति हम श्रद्धा प्रकट कर रहे हैं ।
ॐ वैश्वानरो नऽऊतयऽ, आ प्रयातु परावतः । अग्निर् सुष्टुतीरुप ।
इसके बाद पूर्णाहुति आदि कृत्य कराए जाएँ । विसर्जन के पूर्व गुरु दक्षिणा संकल्प कराएँ ।
  • गुरु दक्षिणा संकल्प

शिक्षण एवं प्रेरणा
दीक्षा के साथ व्रतशीलता की शर्त जुड़ी है । व्रत कहते हैं सुनिश्चित लक्ष्य के लिए सुनिश्चित साधना- क्रम बनाना । जो व्रतशील नहीं, वह जीवन के ढर्रे को बदल नहीं सकता । उसे बदले बिना दीक्षा फलित नहीं होती । यह ढर्रा बदलने के लिए गुरु दक्षिणा दी जाती है । अपने समय, प्रभाव, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश गुरु के निर्देशानुसार खर्च करने का संकल्प ही गुरु दक्षिणा में किया जाता है । इसके लिए न्यूनतम पच्चीस पैसे से एक रुपया तक तथा दो घण्टे का समय प्रतिदिन निकालना चाहिए । इससे अधिक करने की जिनकी स्थिति हो, वे महीने में एक दिन का वेतन दे सकते हैं ।

दीक्षा लेने वालों के संकल्प पत्र पहले से भरवा लेने चाहिए । संकल्प के साथ संकल्प पत्र में ऊपरी बातों का स्मरण किया जाता है । गुरु, दीक्षा के साथ अपनी शक्ति देता है, शिष्य दक्षिणा देकर अपनी पात्रता, प्रामाणिकता सिद्ध करता है । दीक्षा आहार प्रदान करने जैसा है । दक्षिणा उसे पचाने की क्रिया है । दीक्षा कलम लगाने जैसी प्रक्रिया है, दक्षिणा जड़ों का रस उस कलम तक पहुँचाकर उसे विकसित फलित करने का उपक्रम है । क्रिया और भावना- साधकों के हाथ में अक्षत, पुष्प देकर दक्षिणा संकल्प बोला जाए । भावना की जाए कि इस दिव्य आदान- प्रदान द्वारा गुरु- शिष्य का व्यक्तित्व मिलकर एक नया व्यक्तित्व बन रहा है ।
  • संकल्प

गोत्र और नाम तक यथावत क्रम से बोला जाए । आगे जोड़ा जाए- ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये परर्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपे, भारतर्वषे, भरतखण्डे, आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते, .......... क्षेत्रे, .......... विक्रमाब्दे .......... संवत्सरे .......... मासानां मासोत्तमेमासे .......... मासे .......... पक्षे .......... तिथौ .......... वासरे .......... गोत्रोत्पन्नः .......श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त- फलप्राप्त्यर्थं मम कायिक- वाचिक मानसिक ज्ञाताज्ञात- सकलदोषनिवारणार्थं, आत्मकल्याणलोककल्याणार्थं- गायत्री महाविद्यायां श्रद्धापूर्वकं दीक्षितो भवामि । तन्निमित्तकं युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्येण, वन्दनीया माता भगवती देवी शर्माणा च निर्धारितानि अनुशासनानि स्वीकृत्य, तयोः प्राणतपः पुण्यांशं स्वान्तः करणे दधामि, तत्साधयितुं च समयप्रतिभा- साधनानां एकांशं ......... नवनिमार्णकार्येषु प्रयोक्तुम् गुरुदक्षिणायाः संकल्पं अहं करिष्ये ।

संकल्प बोले जाने के बाद इतने व्रतों की घोषणा सहित संकल्प- पत्र दक्षिणा, फल आदि गुरुदेव के प्रतीक के आगे चढ़वाये जाएँ । आचार्य की भूमिका निभा रहे स्वयंसेवक या कोई वरिष्ठ साधक कार्यकर्त्ता उन्हें तिलक करे । दीक्षित व्यक्ति सबको नमस्कार प्रणाम करे, सभी लोग उन पर शुभकामना, आशीर्वाद के अक्षत- पुष्प छोड़ें ।
जय घोष आदि के साथ संस्कार क्रम समाप्त किया जाए ।

ससुराल में सुखी रहने का मारक उपाए



हर लड़की एक ना एक दिन विवाह कर ससुराल जाती है. उसका ससुराल अच्छा रहे यह सभी विवाहिता की कामना होती है.  सास आप को प्यार करें. ससुर बेटी की तरह माने. जेठ-देवर आप का सम्मान करे और ननद के साथ आपके रिश्ते मधुर रहे ऐसे सुख इच्छा हर लड़की होती है.  गृहस्थ जीवन का सुख व्यक्ति आगे ही लेकर जाता है. परंतु परिवार में कलह व्यक्ति के जीवन में  परेशानियां पैदा करता है.  ससुराल में जीवन को सुखमय एवं खुशहाल बनाने के लिए ज्योतिष में कुछ उपाए बताए गए हैं. उनमें से एक यह मारक उपाय है.  ससुराल में सुखी रहने के लिए कन्या अपने हाथ से हल्दी की साबुत गांठें, पीतल का एक टुकड़ा और थोड़ा-सा गुड़ ससुराल की ओर फेंक दें. ऐसा करने से ससुराल में सुख एवं शांति का वास रहता है.  और इसका लाभ को मिलना शुरू हो जाएगा.

शरीर में तिल तथा उसके पड़ने वाले प्रभाव  मनुष्य के शरीर में उपस्थित सभी प्रकार के चिन्ह, मनुष्य के जीवन में घटित होने वाले घटनाओं का संकेत करता हैं। सभी उपस्थित चिन्हों में प्रमुख चिन्ह हैं, तिल। 

तो आइये इस लेख के माध्यम से जानते हैं की शरीर अंग में उपस्थित तिल हमारे जीवन के किस भाव को प्रभावित करता है।  
  • शरीर अंग जीवन में पड़ने वाले प्रभाव 
  1. ललाट पर तिल.  धनवान होना 
  2. माथे के दाहिने ओर तिल. मान प्रतिष्ठा में वृद्धि हो 
  3. दोनो भौंह के मध्य में तिल. यात्रा कारक अर्थात जीवन में यात्रा अधिक करता है 
  4. बायीं आँख पर तिल.  दाम्पत्य जीवन में कलह कराता हैं 
  5. दाहिनी आँख पर तिल.  औरत से विशेष प्यार 
  6. ठोडी पर तिल.  औरत से प्यार कम होता है 
  7. बायें गाल पर तिल. हो तो खर्चीला स्वभाव का व्यक्ति होता 
  8. दाहिने गाल पर.  धन की बढोत्तरी होवें ऊपर के 
  9. होंठो पर तिल. विषयवासना में रत रहे 
  10. नीचे के होंठ पर तिल धन की कमी रहें 
  11. कान पर तिल. आयु मध्यम रहे 
  12. दाहिने भुजा पर तिल. मान प्रतिष्ठा प्राप्त हो 
  13. बांयी भुजा पर तिल. झगड़ा होते रहे जीवन में 
  14. नाक पर तिल. यात्रा कारक है 
  15. बायीं छाती पर तिल. दाम्पत्य जीवन में कलह 
  16. दाहिनी छाती पर तिल. पत्नी से प्यार 
  17. दोनों छातियों के मध्य में. जीवन सुखमय रहे 
  18. हृदय पर तिल हो. बुध्दिमानी का द्योतक 
  19. पसली पर तिल. डरपोक स्वभाव के होते हैं 
  20. पीठ पर तिल हो.  यात्रा में रहा करे 
  21. पेट पर तिल हो. श्रेष्ठ भोजन की इच्छा रहे 
  22. बगल में तिल हो. दूसरों को हानि पहुँचावे 
  23. बायें हाथ के उपरी भाग पर. व्यय अधिक होवे 
  24. बायीं हथेली पर तिल. व्यय कारक 
  25. दाहिनी हथेली पर तिल. धनवान होते जातक 
  26. कमर पर तिल. जातक का मन अशान्त रहे 
  27. बायें पैर पर तिल. अपव्यय कारक 
  28. दाहिने पैर पर तिल.  यात्रा कारक 
  29. पाँव के तलवे में तिल  यात्रा अधिक होवे



  

नवग्रह के दोष दूर करने के अचूक उपाय

 

ज्योतिष की मानें तो हर कोई किसी न किसी ग्रह दोष से ग्रस्त रहता है. कई बार उसे पता नहीं चलता कि किस वजह से उसकी जिंदगी में तूफान थमने का नाम नहीं ले रही. किस वजह से जीना मुहाल हो रहा है. तो क्या हैं नवग्रह दोष के लक्षण और उससे निजात पाने के उपाय.  अगर बिना बात घर में कलह क्लेश हो, हर काम बनते-बनते बिगड़ जाते हैं, शत्रु अकारण परेशान कर रहे हों , सेहत नहीं दे रही साथ, मान सम्मान का हो रहा हो नाश, बच्चे की बुद्धि का नहीं हो रहा विकास तो आप नवग्रह दोषों से ग्रस्त हैं. फिर तो आप जान लीजिए वो 9 उपाय जो खत्म करेगा 9 ग्रहों के दोष. ज्योतिषाचार्य राजकुमार शास्त्री ने हर ग्रह के बारे में विस्तार से बताया है.  

1. सूर्य दोष के लक्षण:- असाध्य रोगों के कारण परेशानी, सिरदर्द, बुखार, नेत्र संबंधी कष्ट, सरकार के कर विभाग से परेशानी, नौकरी में बाधा 

उपाय:- भगवान विष्णु की आराधना करें [ ऊं नमो भगवते नारायणाय ] मंत्र का 1 माला लाल चंदन की माला से जाप करें गुड़ खाकर पानी पीकर कार्य आरंभ करें बहते जल में 250 ग्राम गुड़ प्रवाहित करें सवा पांच रत्ती का माणिक तांबे की अंगूठी में बनवायें रविवार को सूर्योंदय के समय दाएं हाथ की मध्यमा अंगूली में धारण करें मकान के दक्षिण दिशा के कमरे में अंधेरा रखें पशु-पक्षियों के लिए पीने के पानी की व्यवस्था करें घर में मां, दादी का आशीर्वाद जरूर लें. 

2. चंद्रमा दोष के लक्षण:- जुखाम, पेट की बीमारियों से परेशानी, घर में असमय पशुओं की मत्यु की आशंका, अकारण शत्रुओं का बढ़ना, धन का हानि 
उपाय:- भगवान शिव की आराधना करें [ ऊं नम: शिवाय ] मंत्र का रूद्राक्ष की माला से 11 माला जाप करें बड़े बुजुर्गों, ब्रह्मणों, गुरूओं का आशीर्वाद लें सोमवार को सफेद कपड़े में मिश्री बांधकर जल में प्रवाहित करें चांदी की अंगूठी में चार रत्ती का मोती सोमवार को जाएं हाथ अनामिका में धारण करें शीशे की गिलास में दूध, पानी पीने से परेहज करें 28 वर्ष के बाद विवाह का निर्णय लें लाल रंग का रूमाल हमेशा जेब में रखें माता-पिता की सेवा से विशेष लाभ.  

3. मंगल दोष के लक्षण:- घर में चोरी होने का डर, घर-परिवार में लड़ाई-झगड़े की आशंका, भाई के साथ संबंधों में अनबन, दांपत्य जीवन में तनाव, अकाल मृत्यु की आशंका. 

उपाय: भगवान हनुमान की आराधना करें [ ऊं हं हनुमते रूद्रात्मकाय हुं फट कपिभ्यो नम: ] का 1 माला जाप करें हनुमान चालीसा या बजरंगबाण का रोज पाठ करें त्रिधातु की अंगुठी बाएं हाथ की अनामिका अंगूली में धारण करें 400 ग्राम चावल दूध से धोकर 14 दिन तक पिवत्र जल में प्रवाहित करें घर में नीम का पौधा लगायें बहन, बेटी, मौसी, बुआ, साली को मीठा खिलायें बहन, बुआ को कपड़े भेंट न दें तंदूर की बनी रोटी कुत्तों को खिलायें.  

4. बुध दोष के लक्षण: स्वभाव में चिड़चिड़ापन, जुए-सट्टे के कारण धन की बड़ी हानि, दांत से जुड़े रोगों के कारण परेशानी सिर दर्द. अधिक तनाव की स्थिति. 

उपाय: मां दुर्गा की आराधना करें ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र का 5 माला जाप करें देवी के सामने अखंड घी का दीया जलायें घर की पूर्व दिशा में लाल झंडा लगायें सोने के आभूषण धारण करें, हरे रंग से परहेज करें खाली बर्तनों को ढ़ककर न रखें चौड़े पत्ते वाले पौधे घर में लगायें, मुख्य द्वार पंचपल्लव का तोरण लगायें 100 ग्रíम चावल, चने की दाल बहते जल में प्रवाहित करें.  

5. गुरू दोष के लक्षण:- सोने की हानि, चोरी की आशंका उच्च शिक्षा की राह में बाधाएं झूठे आरोप के कारण मान-सम्मान में कमी पिता को हानि होने की आशंका. 

उपाय:- परमपिता ब्रह्मा की आराधना करें बहते पानी में बादाम, तेल, नारियल प्रवाहित करें माथे पर केसर का तिलक लगायें सोने की अंगूठी में सवा पांच रत्ती का पुखराज गुरूवार को दाएं हाथ की तर्जनी अंगुली में धारण करें पूजा स्थल की नियमित रूप से सफाई करें पीपल के पेड़ पर 7 बार पीला धागा लेपटकर जल दें 600 ग्राम पीले चने मंदिर में दान दें जुए-सट्टे की लत न पालें, मांसाहार-मद्यपान से परहेज करें कारोबार में भाई का साथ लाभकारी संबंध मधुर बनायें रखें.  

शुक्र दोष के लक्षण:- बिना किसी बीमारी के अंगूठे, त्वचा संबंधी रोगों से परेशानी, राजनीति के क्षेत्र में हानि, प्रेम व दापंत्य संबंधों में अलगाव जीवनसाथी के स्वास्थ्य को लेकर तनाव. 

उपाय: मां लक्ष्मी की आराधना करें. [ ऊं श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसिद प्रसिद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मयै नम: ] रोज रात में मंत्र का 1 माला जाप करें मां लक्ष्मी को कमल के पुष्पों की माला चढ़ायें मंदिर में आरती पूजा के लिए गाय का घी दान करें 2 किलो आलू में हल्दी या केसर लगाकर गाय को खिलायें चांदी या मिटटी के बर्तन में शहद भरकर घर की छत पर दबा दें आडू की गुटली में सूरमा भरकर घास वाले स्थान पर दबा दें शुक्रवार के दिन मंदिर में कांसे के बर्तन का दान करें लाल रंग के गाय की सेवा करें, 800 ग्राम जिमीकंद मंदिर में दान करें.  

शनि दोष के लक्षण: पैतृक संपत्ति की हानि, हमेशा बीमारी से परेशानी मुकदमे के कारण परेशानी बनते हुए काम का बिगड़ जाना. 

उपाय: भगवान भैरव की आराधना करें [ ऊं प्रां प्रीं प्रौं शं शनिश्चराय नम: ] मंत्र का 1 माला जाप करें शनिदेव का 1 किलो सरसों के तेल से अभिषेक करें सिर पर काला तेल लगाने से परहेज करें 43 दिन तक लगातार. शनि मंदिर में जाकर नीले पुष्प चढ़ायें कौवे या सांप को दूध, चावल खिलायें किसी बर्तन में तेल भरकर अपना चेहरा देखें, बर्तन को जमीन में दबा दें शनिवार 800 ग्राम दूध, उड़द जल में प्रवाहित करें जल में दूध मिलाकर लकड़ी या पत्थर पर बैठकर स्नान करें घर की छत पर साफ-सफाई का ध्यान रखें 12 नेत्रहीन लोगों को भोजन करायें. 

राहु दोष के लक्षण: मोटापेके कारण परेशानी अचानक दुर्घटना, लड़ाई-झगड़े की आशंका हर तरह के व्यापार में घाटा. 

उपाय: मां सरस्वती की आराधना करें [ ऊं ऐं सरस्वत्यै नम: ] मंत्र का 1 माला जाप करें तांबेके बर्तन में गुड़, गेहूं भरकर बहते जल में प्रवाहित करें माता से संबंध मधुर रखें 400 ग्राम धनिया, बादाम जल में प्रवाहित करें घर की दहलीज के नीचे चांदी का पत्ता लगायें सीढ़ियों के नीचे रसोईघर का निर्माण न करवायें रात में पत्नी के सिर के नीचे 5 मूली रखें, सुबह मंदिर में दान कर दें मां सरस्वती के चरणों में लगातार 6 दिन तक नीले पुष्प की माला चढ़ायें चांदी की गोली हमेशा जेब में रखें लहसुन, प्याज, मसूर के सेवन से परहेज करें.  

केतु दोष के लक्षण: बुरी संगत के कारण धन का हानि जोड़ों के दर्द से परेशानी संतान का भाग्योदय न होना, स्वास्थ्य के कारण तनाव. 

उपाय: भगवान गणेश की आराधना करें [ ऊं गं गणपतये नम:] मंत्र का 1 माला जाप करें गणेश अथर्व शीर्ष का पाठ करें कुंवारी कन्याओं का पूजन करें, पत्नी का अपमान न करें घर के मुख्य द्वार पर दोनों तरफ तांबे की कील लगायें पीले कपड़े में सोना, गेहूं बांधकर कुल पुरोहित को दान करें दूध, चावल, मसूर की दाल का दान करें बाएं हाथ की अंगुली में सोना पहनने से लाभ 43 दिन तक मंदिर में लगातार केला दान करें काले व सफेद तिल बहते जल में प्रवाहित करें.आजतक ब्यूरो.

राहु की महादशा में नवग्रहों की अंतर्दशाओं का फल एवं उपाय अशोक शर्मा राहु मूलतः छाया ग्रह है, फिर भी उसे एक पूर्ण ग्रह के समान ही माना जाता है। यह आद्र्रा, स्वाति एवं शतभिषा नक्षत्र का स्वामी है। राहु की दृष्टि कुंडली के पंचम, सप्तम और नवम भाव पर पड़ती है। जिन भावों पर राहु की दृष्टि का प्रभाव पड़ता है, वे राहु की महादशा में अवश्य प्रभावित होते हैं। राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है। 

  • राहु में राहु की अंतर्दशा का काल 2 वर्ष 8 माह और 12 दिन का होता है। इस अवधि में राहु से प्रभावित जातक को अपमान और बदनामी का सामना करना पड़ सकता है। विष और जल के कारण पीड़ा हो सकती है। विषाक्त भोजन, से स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। इसके अतिरिक्त अपच, सर्पदंश, परस्त्री या पर पुरुष गमन की आशंका भी इस अवधि में बनी रहती है। अशुभ राहु की इस अवधि में जातक के किसी प्रिय से वियोग, समाज में अपयश, निंदा आदि की संभावना भी रहती है। किसी दुष्ट व्यक्ति के कारण उस परेशानियों का भी सामना करना पड़ सकता है। 


उपाय: भगवान शिव के रौद्र अवतार भगवान भैरव के मंदिर में रविवार को शराब चढ़ाएं और तेल का दीपक जलाएं। शराब का सेवन कतई न करें। लावारिस शव के दाह-संस्कार के लिए शमशान में लकड़िया दान करें। अप्रिय वचनों का प्रयोग न करें। 

  • राहु में बृहस्पति: राहु की महादशा में गुरु की अंतर्दशा की यह अवधि दो वर्ष चार माह और 24 दिन की होती है। राक्षस प्रवृत्ति के ग्रह राहु और देवताओं के गुरु बृहस्पति का यह संयोग सुखदायी होता है। जातक के मन में श्रेष्ठ विचारों का संचार होता है और उसका शरीर स्वस्थ रहता है। धार्मिक कार्यों में उसका मन लगता है। यदि कुंडली में गुरु अशुभ प्रभाव में हो, राहु के साथ या उसकी दृष्टि में हो तो उक्त फल का अभाव रहता है। ऐसी स्थिति में निम्नांकित 
उपाय : किसी अपंग छात्र की पढ़ाई या इलाज में सहायता करें। शैक्षणिक संस्था के शौचालयों की सफाई की व्यवस्था कराएं। शिव मंदिर में नित्य झाड़ू लगाएं। पीले रंग के फूलों से शिव पूजन करें। राहु में 

  • शनि: राहु में शनि की अंतदर्शा का काल 2 वर्ष 10 माह और 6 दिन का होता है। इस अवधि में परिवार में कलह की स्थिति बनती है। तलाक भाई, बहन और संतान से अनबन, नौकरी में या अधीनस्थ नौकर से संकट की संभावना रहती है। शरीर में अचानक चोट या दुर्घटना के दुर्योग, कुसंगति आदि की संभावना भी रहती है। साथ ही वात और पित्त जनित रोग भी हो सकता है। दो अशुभ ग्रहों की दशा-अंतर्दशा कष्ट कारक हो सकती है।  

उपाय : भगवान शिव की शमी के पत्रों से पूजा और शिव सहस्रनाम का पाठ करना चाहिए। महामृत्युंजय मंत्र के जप स्वयं, अथवा किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण से कराएं। जप के पश्चात् दशांश हवन कराएं जिसमें जायफल की आहुतियां अवश्य दें। नवचंडी का पूर्ण अनुष्ठान करते हुए पाठ एवं हवन कराएं। काले तिल से शिव का पूजन करें। 
  • राहु में बुध: राहु की महादशा में बुध की अंतर्दशा की अवधि 2 वर्ष 3 माह और 6 दिन की होती है। इस समय धन और पुत्र की प्राप्ति के योग बनते हैं। राहु और बुध की मित्रता के कारण मित्रों का सहयोग प्राप्त होता है। साथ ही कार्य कौशल और चतुराई में वृद्धि होती है। व्यापार का विस्तार होता है और मान, सम्मान यश और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। 
उपाय: भगवान गणेश को शतनाम सहित दूर्वाकुंर चढ़ाते रहें। हाथी को हरे पत्ते, नारियल गोले या गुड़ खिलाएं। कोढ़ी, रोगी और अपंग को खाना खिलाएं। पक्षी को हरी मूंग खिलाएं। 

  • राहु में केतु: राहु की महादशा में केतु की यह अवधि शुभ फल नहीं देती है। एक वर्ष और 18 दिन की इस अवधि के दौरान जातक को सिर में रोग, ज्वर, शत्रुओं से परेशानी, शस्त्रों से घात, अग्नि से हानि, शारीरिक पीड़ा आदि का सामना करना पड़ता है। रिश्तेदारों और मित्रों से परेशानियां व परिवार में क्लेश भी हो सकता है। 

उपाय: भैरवजी के मंदिर में ध्वजा चढ़ाएं। कुत्तों को रोटी, ब्रेड या बिस्कुट खिलाएं। कौओं को खीर-पूरी खिलाएं। घर या मंदिर में गुग्गुल का धूप करें। 
  • राहु में शुक्र: राहु की महादशा में शुक्र की प्रत्यंतर दशा पूरे तीन वर्ष चलती है। इस अवधि में शुभ स्थिति में दाम्पत्य जीवन में सुख मिलता है। वाहन और भूमि की प्राप्ति तथा भोग-विलास के योग बनते हैं। यदि शुक्र और राहु शुभ नहीं हों तो शीत संबंधित रोग, बदनामी और विरोध का सामना करना पड़ सकता है। इस अवधि में अनुकूलता और शुभत्व की प्राप्ति के लिए निम्न 

उपाय करें- सांड को गुड़ या घास खिलाएं। शिव मंदिर में स्थित नंदी की पूजा करें और वस्त्र आदि दें। एकाक्षी श्रीफल की स्थापना कर पूजा करें। स्फटिक की माला धारण करें। 
  • राहु में सूर्य: राहु की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा की अवधि 10 माह और 24 दिन की होती है, जो अन्य ग्रहों की तुलना में सर्वाधिक कम है। इस अवधि में शत्रुओं से संकट, शस्त्र से घात, अग्नि और विष से हानि, आंखों में रोग, राज्य या शासन से भय, परिवार में कलह आदि हो सकते हैं। सामान्यतः यह समय अशुभ प्रभाव देने वाला ही होता है।
उपाय: इस अवधि में सूर्य को अघ्र्य दें। उनका पूजन एवं उनके मंत्र का नित्य जप करें। हरिवंश पुराण का पाठ या श्रवण करते रहें। चाक्षुषोपनिषद् का पाठ करें। सूअर को मसूर की दाल खिलाएं। 
  • राहु में चंद्र: एक वर्ष 6 माह की इस अवधि में जातक को असीम मानसिक कष्ट होता है। इस अवधि में जीवन साथी से अनबन, तलाक या मृत्यु भी हो सकती है। लोगों से मतांतर, आकस्मिक संकट एवं जल जनित पीड़ा की संभावना भी रहती है। इसके अतिरिक्त पशु या कृषि की हानि, धन का नाश, संतान को कष्ट और मृत्युतुल्य पीड़ा भी हो सकती है। 
उपाय: राहु और चंद्र की दशा में उत्पन्न होने वाली विषम परिस्थितियों से बचने के लिए माता की सेवा करें। माता की उम्र वाली महिलाओं का सम्मान और सेवा करें। प्रत्येक सोमवार को भगवान शिव का शुद्ध दूध से अभिषेक करें। चांदी की प्रतिमा या कोई अन्य वस्तु मौसी, बुआ या बड़ी बहन को भेंट करें। राहु में मंगल: राहु की महादशा में मंगल की अंतर्दशा का यह समय एक वर्ष 18 दिन का होता है। इस काल में शासन व अग्नि से भय, चोरी, अस्त्र शस्त्र से चोट, शारीरिक पीड़ा, गंभीर रोग, नेत्रों को पीड़ा आदि हो सकते हंै। इस अवधि में पद एवं स्थान परिवर्तन तथा भाई को या भाई से पीड़ा की संभावना भी रहती है।