सोमवार, 30 जून 2014

वास्तु विशेष भाग​-१ पेज-१


दिशा ज्ञान​:-   आचार्य राकेश तिवारी         
विभिन्न अकारों के भूखंडों का महत्व​:-

भवन का निर्माण वर्गाकार या आयताकार करना चाहिए। आयताकार भवनों के लिए यह आवश्यक है कि चौड़ाई और लंबाई का अनुपात वास्तु नियमों के अंतर्गत होना चाहिए। 
1:1/4, 1:1/2, 1:1/3, 1/2 । 


  1. वर्गाकार​- इस आका के भूखंड सर्वोत्तम होते हैं एवं इनमें रहने वाले लोगों को संपन्नता तथा प्रसन्नता प्राप्त होती है।
  2. आयताकार- ऐसे भूखंडों में लोगों को स्वास्थ्य​, धनलाभ तथा संपन्नता मिलती है। 
  3. त्रिकोणाकार​- ये बिलकुल भी अच्छे नहीं होते, इस तरह के भूखंडों में निवास से मुकदमें जैसी क​ई समस्याएँ आ सकती हैं।
  4. गोलाकार या वृृत्ताकार- ऐसे भूखंड निवास के लिए अच्छे नहीं होते, ये निरंतर न​ई समस्याओं के जन्मदाता होते हैं।
  5. कोण विचार​- पाँच कोण्, षट्कोण, अष्टकोण, बहुभुजाओं या अन्य आकार वाले भूखंड कत​ई अच्छे नहीं होते। ऐसे भूखंड जीवन में मानसिक उद्वेग और विभिन्न क्षेत्रों में अस्थिरता लाते हैं। 
भूमि स्तर (Level) या ढाल का प्रभाव:- 

  • ​पूर्व​, उत्तईशार और न दिशा में नीची भूमि सब मनुष्यों के लिए अत्यंत वृृद्धि कारक है। अन्य दिशाओं में नीची भूमि सबके लिए हानिकारक होती है।
ऊँँची भूमि के लिए:-

  1. पूर्व में पुत्र और धन का नाश होता है।
  2. आग्नेय में धन देने वाली होती है।
  3. दक्षिण में सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली तथा निरोग करने वाली है।
  4. नैऋत्य में धनदायक है।
  5. पश्चिम में पुत्रप्रद तथा धन​-धान्य की वृद्धि करने वाली है।
  6. वायव्य में धनदायक है।
  7. उत्तर में पुत्र और धन का नाश करने वाली है।
  8. ईशान में महाक्लेश कारक है।

 नीची भूमि के लिए:-

  1. पूर्व में पुत्र दायक तथा धन की वृृद्धि करने वाली है।
  2. आग्नेय में धन का नाश करने वाली, मृत्यु तथा शोक देने वाली और अग्निभय करने वाली है।
  3. दक्षिण में मृृृत्युदायक, रोगदायक​, पुत्र​- पौत्रविनाशक, क्षयकारक और अनेक दोष करने वाली है।
  4. नैऋत्य में धन की हानि करने वाली, महान भयदायक, रोगदायक और चोरभय करने वाली है।
  5. पश्चिम में धननाशक, धान्यनाशक, कीर्तिनाशक​, शोकदायक​, पुत्रक्षयकारक तथा कलहकारक है।
  6. वायव्य में परदेश वास क अराने वाली, उद्वेगकारक, मृत्युकारक, कलहकारक, रोगदायक तथा धान्य नाश्क है।
  7. उत्तर में धन- धान्यप्रद और वंशवृद्धि करने वाली अर्थात पुत्रदायक है।
  8. ईशान में विद्या देने वाली, धनदायक, रत्नसंचय करने वाली और सुखदायक है।
  9. मध्य में नीची भूमि रोगप्रद, तथा सर्वनाश करने वाली है।
द्विदिशा भूमि के लिए:-

  1. पूर्व व अग्नेय के मध्य ऊँँची और पश्चिम व  वायव्य के मध्य नीची भूमि पितामह वास्तु कहलाती है। यह सुख​ देने वाली है।
  2. दक्षिण व अग्नेय के मध्य ऊँँची और उत्तर व वायव्य के मध्य नीची भूमि सुपथ वास्तु कहलाती है। यह सब कार्यों में शुभ है।
  3. पूर्व व ईशान में नीची और पश्चिम व नैऋत्य में ऊँची भूमि पुण्यक वास्तु कह लाती है। यह शुभ है।
  4. पूर्व व आग्नेय के मध्य नीची और वायव्य व पश्चिम के मध्य ऊँँची भूमि अपथ वास्तु कहलाती है। यह बैर तथा कलह कराने वाली है।
  5. दक्षिण व आग्नेय के मध्य नीची और उत्तर व वायव्य के मध्य ऊँची भूमि रोगकर वास्तु कहलाती है। यह रोग​ पैदा करने वाली है।
  6. पूर्व व ईशान के मध्य ऊँची और पश्चिम व नैऋत्य के मध्य नीची भूमि श्मशान वास्तु कहलाती है। यह कुल का नाश करती है।
  7. आग्नेय में नीची और नैऋत्य, ईशान तथा वायव्य में ऊँची भूमि शोक वास्तु कहलाती है। यह मृत्युदायक है।
  8. ईशान​,आग्नेय व पश्चिम में ऊँची और नैऋत्य में नीची भूमि श्वमुख वास्तु कहलाती है। यह दरिद्र करने वाली है।
  9. नैऋत्य,आग्नेय व ईशान में ऊँची तथा पूर्व व वायव्य मेम नीची भूमि ब्रह्मघ्न वास्तु कहलाती है। यह निवाश करने योग्य नहीं है।
  10. आग्नेय में ऊँँची, ईशान तथा वायव्य में नीची भूमि स्थावर वास्तु कहलाती है। यह शुभ है। यह शुभ है।
  11. नैऋत्य में ऊँची और आग्नेय, वायव्य व ईशान में नीची भूमि स्थंडित वास्तु कहलाती है। यह शुभ है
  12. ईशान में ऊँची और वायव्य​, आग्नेय व नैऋत्य में नीची भूमि शांडुल वास्तु कहलाती है। यह अशुभ है।
त्रिदिशा भूमि के लिए:-

  1. दक्षिण, पश्चिम​, नैऋत्य और वायव्य की ओर ऊँची भूमि गजपृष्ठ भूमि कहलाती है। यह धन, आय और वंश की वृद्धि करने वाली है। 
  2. मध्य में ऊँची तथा चारों ओर नीची भूमि कूर्मपृष्ठ भूमि कहलाती है। यह उत्साह​, धन-धान्य तथा सुख देने वाली है।
  3. पूर्व, आग्नेय तथा ईशान में ऊँची भूमि और पश्चिम में नीची भूमि दैत्यपृष्ठ भूमि है। यह धन, पुत्र, पशु आदि की हानि करने वाली तथा प्रेत​-उपद्रव करने वाली है।
  4. पूर्व-पश्चिम की ओर लंबी तथा उत्तर-दक्षिण में ऊँची भूमि नागपृष्ठ भूमि कहलाती है। यह उच्चाटन​, मृत्युभय, स्त्री-पुत्रादि की हानि, शत्रुवृद्धि, मानहानि तथा धनहानि करने वाली है।

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