मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

(द) सुभषित श्लोक​

1
दुर्लभं त्रयमेवैतत देवानुग्रहहेतुकम । 
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसश्रय: ॥

भावार्थ- मनुष्य जन्म, मुक्ती की इच्छा तथा महापुरूषोंका सहवास यह तीन चीजें परमेश्वर की कॄपा पर निर्भर रहते है । 
2
दिवसेनैव तत कुर्याद येन रात्रौ सुखं वसेत । 
यावज्जीवं च तत्कुर्याद येन प्रेत्य सुखं वसेत ॥
भावार्थ- दिनभर ऐसा काम करो जिससे रात में चैन की नींद आ सके । वैसे ही जीवन भर ऐसा काम करो जिससे मॄत्यू पश्चात सुख मिले । अर्थात सद्गती प्राप्त हो।
3
दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । 
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तॄतीया गतिर्भवति ॥
भावार्थ- धन खर्च होने के तीन मार्ग है- दान, उपभोग तथा नाश जो व्यक्ति दान नही करता तथा उसका उपभोगभी नहीं लेता उसका धन नाश पाता है ।
04
दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम । 
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम अविजानताम ॥
भावार्थ- रातभर जागनेवाले को रात बहुत लंबी मालूम होती है । जो चलकर थका है, उसे एक योजन चार मील) अंतर भी दूर लगता है । सद्धर्म का जिन्हे ज्ञान नही है उन्हे जिन्दगी दीर्घ लगती है ।
05
देहीति वचनद्वारा देहस्था पञ्च देवता: । 
तत्क्षणादेव लीयन्ते धर्ही श्री: कान्र्ति कीर्तय: ॥
भावार्थ-देह” इस शब्द के साथ, याचना करने से देह में स्थित पांच देवता बुद्धी, लज्जा, लक्ष्मी, कान्ति, और कीर्ति उसी क्षण देह छोडकर जाती है । 
06
द्वयक्षरस तु भवेत मृत्युर, त्रयक्षरमं ब्राह्म शाश्वतम । 
मम इति च भवेत मृत्युर, न मम इति च शाश्वतम ॥
भावार्थ- मृत्यु यह दो अक्षरों का शब्द है तथा ब्राह्म जो शाश्वत है वह तीन अक्षरों का है । मम यह भी मृत्यु के समान ही दो अक्षरों का शब्द है तथा नमम यह शाश्वत ब्राह्म की तरह तीन अक्षरों का शब्द है ।
07
दूर्जन: परिहर्तव्यो विद्यया लङ्कॄतोऽपि सन । 
मणिना भूषित: सर्प: किमसौ न भयङ्कर: ॥
दूर्जन! चाहे वह विद्या से विभूषित क्यूँ न हो, उसे दूर रखना चाहिए । मणि से आभूषित “साँप” क्या भयानक नहीं होता।
08
दातव्यं भोक्तव्यं धन विषये संचयो न कर्तव्य:। 
पश्येह मधु करीणां संचितार्थ हरन्त्यन्ये॥
भावार्थ- दान कीजिए या उपभोग लीजिए, धन का संचय न करें देखिए, मधुमक्खी का संचय कोई और ले जाता है ।
09
दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्। 
उष्णो दहति चांगारः शीतः कृष्णायते करम्॥
दुर्जन, जो कि कोयले के समान होते हैं, से प्रीति कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि कोयला यदि गरम हो तो जला देता है और शीतल होने पर भी अंग को काला कर देता है।
10
दुर्लभं त्रयमेवैतत देवानुग्रह हेतुकम । 
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसश्रय: ॥
मनुष्य जन्म, मुक्ती की इच्छा तथा महापुरूषों का संग​ यह तीन चीजें परमेश्वर की कॄपा पर निर्भर रहते है ।
11
दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । 
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तॄतीया गतिर्भवति ॥
धन खर्च होने के तीन मार्ग है । दान, उपभोग तथा नाश । जो व्यक्ति दान नही करता तथा उसका उपभोगभी नही लेता उसका धन नाश पाता है ।
12
दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम । 
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम अविजानताम ॥
रातभर जागनेवाले को रात बहुत लंबी मालूम होती है । जो चलकर थका है, उसे एक योजन चार मील अंतर भी दूर लगता है । सद्धर्म का जिन्हे ज्ञान नही है उन्हे जिन्दगी दीर्घ लगती है ।
13
देहीति वचनद्वारा देहस्था पञ्च देवता: । 
तत्क्षणादेव लीयन्ते र्धीह्र्रीश्र्रीकान्र्तिकीर्तय: ॥
‘देऽ इस शब्द के साथ, याचना करने से देहमें स्थित पांच देवता बुद्धी, लज्जा, लक्ष्मी, कान्ति, और कीर्ति उसी क्षण देह छोडकर जाती है । 
14
दूर्जन: परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङ्कॄतोऽपि सन । 
मणिना भूषित: सर्प: किमसौ न भयङ्कर: ॥
दूर्जन, चाहे वह विद्यासे विभूषित क्यू न हो, उसे दूर रखना चाहिए । मणि से आभूषित साँप, क्या भयानक नहीं होता  

(ग) सुभषित श्लोक​

1
गुणवान वा परजन: स्वजनो निर्गुणोपि वा । 
निर्गुण: स्वजन: श्रेयान य: पर: पर एव च ॥

भावार्थ- गुणवान शत्रु से भी गुणहीन मित्र अच्छा, शत्रु तो आखिर शत्रु है ।
2
गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो, बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल: ।  
पिको वसन्तस्य गुणं न वायस: करी च सिंहस्य बलं न मूषक: ॥
भावार्थ- गुणी पुरुष ही दुसरे के गुण पहचानता है, गुणहीन पुरुष नहीं । बलवान पुरुष ही दुसरे का बल जानता है, बलहीन नहीं । वसन्त ऋतु आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नहीं । शेर के बल को हाथी पहचानता है, चुहा नहीं ।
3
गौरवं प्राप्यते दानात न तु वित्तस्य संचयात । 
स्थिति: उच्चै: पयोदानां पयोधीनां अध: स्थिति: ॥
भावार्थ- दान से गौरव प्राप्त होता है, वित्त के संचय से नहीं । जल देने वाले बादलों का स्थान उच्च है, बल्कि जल का समुच्चय करने वाले सागर का स्थान नीचे है ।
4
गतेर्भंग: स्वरो हीनो गात्रे स्वेदो महद्भयम । 
मरणे यानि चिन्तनानि तानि चिन्तनानि याचके ॥
भावार्थ- चलते समय संतुलन खोना, बोलते समय आवाज न निकलना, पसीना छूटना और बहुत भयभीत होना यह मरने वाले आदमी के लक्षण याचक के पास भी दिखते है ।
5
ग्रन्थानभ्यस्य मेघावी ज्ञान विज्ञानतत्पर: । 
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत सर्वमशेषत: ॥
बुद्धीमान मनुष्य जिसे ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र इच्छा है वह ग्रन्थो में जो महत्वपूर्ण विषय है उसे पढकर उस ग्रन्थका सार जान लेता है तथा उस ग्रन्थ के अनावष्यक बातों को छोड देता है उसी तरह जैसे किसान केवल धान्य उठाता है ।
6
गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल: । 
पिको वसन्तस्य गुणं न वायस: करी च सिंहस्य बलं न मूषक: ॥
गुणी पुरुष ही दुसरे के गुण पहचानता है, गुणहीन पुरुष नहीं। बलवान पुरुष ही दुसरे का बल जानता है, बलहीन नहीं। वसन्त ऋतु आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नहीं। शेर के बल को हाथी पहचानता है, चुहा नहीं।
7
गुणवान वा परजन: स्वजनो निर्गुणोपि वा  
निर्गुण: स्वजन: श्रेयान य: पर: पर एव च
गुणवान शत्रु से भी गुणहीन मित्र अच्छा। शत्रु तो आखिर शत्रु है।

धर्म क्या है ?

मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम ॥
(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरङ्ग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना), ये दस धर्म के लक्षण हैं।)

जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ न करना चाहिये - यह धर्म की कसौटी है।

श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत ॥
(धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।)

धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) विश्व के सभी बड़े धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए है। ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, पर इसके ज़्यादातर उपासक भारत में हैं और विश्व का सबसे ज्यादा हिन्दुओं का प्रतिशत नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन असल में ये एकेश्वरवादी धर्म है। इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नही है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है " हिन्सायाम दूयते या सा हिन्दु " अर्थात जो अपने मन वचन कर्म से हिंसा से दूर रहे वह हिन्दु है और जो कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे वह हिंसा है। 

यह वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए है। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है।

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

(क) सुभाषित श्लोक​

1.
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम। 
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥
भावार्थ​- बुद्धिमान व्यक्ति काव्य, शास्त्र आदि का पठन करके अपना मनोविनोद करते हुए समय को व्यतीत करता है और मूर्ख सोकर या कलह करके समय बिताता है।
2.
कुलस्यार्थे त्यजेदेकम ग्राम्स्यार्थे कुलंज्येत्। 
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥
भावार्थ​- कुटुम्ब के लिए स्वयं के स्वार्थ का त्याग करना चाहिए, गाँव के लिए कुटुम्ब का त्याग करना चाहिए, देश के लिए गाँव का त्याग करना चाहिए और आत्मा के लिए समस्त वस्तुओं का त्याग करना चाहिए।
3.
किम कुलेन विशालेन विद्याहीनस्य देहिन:। 
अकुलीनोऽपि विद्यावान देवैरपि सुपूज्यते॥
भावार्थ​- अच्छे कुल मे जन्मा हुआ व्यक्ति अगर ज्ञानी न हो, तो उसके अच्छे कुल का क्या फायदा। ज्ञानी व्यक्ति अगर कुलीन न हो, तो भी इश्वर भी उसकी पूजा करते है।
4.
कस्यचित किमपि नो हरणीयं मर्मवाक्यमपि नोच्चरणीयम। 
श्रीपते: पद्युगं स्मरणीयं लीलया भवजलं तरणीयम्॥
भावार्थ​- दूसरों की कोई वस्तु कभी चुरानी नहीं चाहिए। दूसरे के मर्म स्थान पे आघात हो ऐसा कभी बोलना नहीं चाहिए। श्री विष्णु के चरण का स्मरण करना चाहिए। ऐसा करने से भवसागर पार करना सरल हो जाता है।
5.
क्वचिद्भूमौ शय्या क्वचिदपि पर्यङ्कशयनं, 
क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचि:। 
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो, 
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दु:खं न च सुखम ॥
भावार्थ- कभी धरती पे सोना कभी पलंग पे। कभी सब्जी खाना कभी रोटी–चावल। कभी फटे हुए कपडे पहनना कभी बहुत कीमती कपडे पहनना। जो व्यक्ति अपने कार्य में सर्वथा मग्न हो, उन्हें ऐसी बाहरी सुख दु:खो से कोई मतलब नहीं होता।
6.
कर्पूरधूलिरचितालवाल: कस्तूरिकापंकनिमग्ननाल:। 
गंगाजलै: सिक्तसमूलवाल: स्वीयं गुणं मुञ्चति किं पलाण्डु:॥
भावार्थ- प्याज के पौधे के लिए आप कपूर की क्यारी बनाओे, कस्तूरी का उपयोग मिट्टी की जगह करो, अथवा उसके जड़ पे गंगा जल डालो वह अपनी दुर्गंध नहीं छोडेगा । उसी प्रकार दुश्ट मनुष्य का स्वभाव बदलना बहुत कठिन है ।
7.
कलहान्तनि हम्र्याणि कुवाक्यानां च सौदम । 
कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मांन्तम यशो नॄणाम ॥
भावार्थ- झगडों से परिवार टूट जाते हैं। गलत शब्द प्रयोग करने से दोस्त टूटते हैं। बुरे शासकों के कारण राष्ट्र का नाश होता है। बुरे काम करने से यश दूर भागता है।
8.
कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम । 
इति ते संशयो मा भूत राजा कालस्य कारणं ॥ 
भावार्थ- काल राजा का कारण है, कि राजा काल का इसमें थोडी भी दुविधा नहीं कि राजा ही काल का कारण है ।
9.
कन्या वरयते रुपं माता वित्तं पिता श्रुतम । 
बान्धवा: कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरेजना: ॥ 
भावार्थ- विवाह के समय कन्या सुन्दर पती चाहती है । उसकी माता सधन जमाइ चाहती है । उसके पिता ज्ञानी जमाइ चाहते है । तथा उसके बन्धु अच्छे परिवार से नाता जोड़ना चाहते हैं। परन्तु बाकी सभी लोग केवल अच्छा खाना चाहते हैं।

(अ) सुभषित श्लोक​

1.
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ -वाल्मीकि रामायण
हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती। मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है।
2.
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्य मेतत पशुभिर्नराणाम्। 
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं, अर्थात यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं, केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।
3.
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्। 
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥
तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।
4.
आत्मनो मुखदोषेण वध्यन्ते शुक सारिकाः । 
बकास्तत्र न वध्यन्ते मौनं सर्वाऽर्थसाधनम ॥ लब्धप्रणाशम्, पञ्चतन्त्र ४८
अपने मुख दोष (ज्यादा एवं मीठा) बोलने से ही तोता मैना पकडे़ एवं पिंजड़े में डाले जाते हैं । चुप रहने के कारण ही बगुलों को न कोई पकड़ता है और न कोई पालता है । [वाणी संयम हमेशा ही कार्य सिद्ध करने वाला होता है ।]
5.
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। 
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥
"ये मेरा है", "वह उसका है" जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है।
6.
असूयैकपदं मॄत्यु: अतिवाद: श्रियो वध: । 
अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्याया: शत्रवस्त्रय: ॥
विद्यार्थी के संबंध में द्वेश यह मॄत्यु के समान है। अनावश्यक बाते करने से धन का नाश होता है। सेवा करने की मनोवॄत्ती का आभाव, जल्दबाजी तथा स्वयं की प्राशंसा स्वयं करना यह तीन बाते विद्या ग्रहण करने के शत्रू है।
7.
अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजन शलाकया । 
चक्षुरुन्मिलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम: ॥
अज्ञान के अंध:कार से अन्धे हुए मनुष्य की आंखे ज्ञान रुप अंजन से खोलने वाले गुरु को मेरा प्रणाम।
8.
अधीत्य चतुरो वेदान सर्वशास्त्राण्यनेकश: । 
ब्रम्ह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा ॥
सिर्फ वेद तथा शास्त्रों का बार बार अध्ययन करनेसे किसी को ब्राह्मतत्व का अर्थ नहीं होता । जैसे जिस चम्मच से खाद्य पदार्थ परोसा जाता है उसे उस खाद्य पदार्थ का गुण तथा सुगंध प्राप्त नहीं होता ।
9.
अप्यब्धिपानान्महत: सुमेरून्मूलनादपि । 
अपि वहन्यशनात साधो विषमश्चित्तनिग्रह: ॥
अपने स्वयं के मन का स्वामी होना यह संपूर्ण सागर के जल को पिना, मेरू पर्वत को उखाडना या फिर अग्नी को खाना ऐसे असंभव बातों से भी कठिन है ।
10.
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा: ग्रन्थिभ्यो धारिणो वरा: । 
धारिभ्यो ज्ञानिन: श्रेष्ठा: ज्ञानिभ्यो व्यसायिन: ॥
निरक्षर लोगों से ग्रंथ पढने वाले श्रेष्ठ, उनसे भी अधिक ग्रंथ समझने वाले श्रेष्ठ । ग्रंथ समझने वालों से भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्राप्त ज्ञान को उपयोग में लाने वाले श्रेष्ठ ।
11.
अप्रकटीकृतशक्ति: शक्तोऽपि जनस्तिरस्क्रियां। 
लभते निवसन्नन्तर्दारूणि लंघ्यो वहिनर्न तु ज्वलित: ॥
भावार्थ- बल जब तक वह नही दिखाता है, उसके बलकी उपेक्षा होती है। लकडी से कोई नही डरता, मगर वही लकडी जब जलने लगती है, तब लोग उससे डरते है।
12.
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्राणत्यागेऽपि संस्थिते । 
न च कॄत्यं परित्याज्यम एष धर्म: सनातन: ॥
भावार्थ- जो कार्य करने योग्य नहीं है इच्छा न होने के कारण वह प्राण देकर भी नहीं करना चाहिए । तथा जो काम करना अपना कर्तव्य होने के कारण वह काम प्राण देना पडे तो भी करना नहीं छोडना चाहिए ।
13.
आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत । 
तद्वत कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ गीता २।७०
भावार्थ- जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आशाओं से अविचलित रहता है, जैसे- अनेक नदीयाँ सागर में मिलने पर भी सागर का जल नहीं बढता, वह शांत ही रहता है। ऐसे ही व्यक्ती सुखी हो सकते है ।
14.
अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं । 
अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु ॥
भावार्थ- दूसरों को दु:ख दिये बिना, विकॄती के साथ अपना संबन्ध बनाए बिना, अच्छों के साथ अपने संबन्ध तोडे बिना, जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है ।
15.
आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला । 
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत ॥
भावार्थ- आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है । इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही जगह पर खडे रहते है ।
16.
अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुन: । 
पुन: कदापि नायाति गतं तु नव यौवनम ॥
भावार्थ- धन मिलता है, नष्ट होता है। (नष्ट होने के बाद) फिरसे मिलता है। परन्तु जवानी एक बार निकल जाए तो कभी वापस नहीं आती ।
17.
आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते । 
नीयते तद वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो ॥
भावार्थ- सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापस नहीं मिलता । ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे हैं वे कितनी बडी गलती कर रहे है ।
18.
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म । 
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ॥
भावार्थ- आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है ।
19.
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम । 
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ॥
भावार्थ- (श्री भगवान बोले) हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है ।
20.
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम । 
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम ॥
भावार्थ- महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं। पहली- परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी- पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना।
21.
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम । 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम ॥
भावार्थ- यह मेरा है, यह उसका है, ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है, इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है ।
22.
अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना । 
यत सारभूतं तदुपासितव्यं हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात ॥
भावार्थ- पढ़ने के लिए बहुत से शास्त्र हैं और ज्ञान अपरिमित है। अपने पास समय की कमी है और बाधाएं बहुत हैं। ऐसे में जैसे हंस पानी में से दूध निकाल लेता है उसी तरह हमें उन शास्त्रों का सार समझ लेना चाहिए।
23.
अल्पानामपि वस्तूनां संहति: कार्यसाधिका । 
तॄणैर्गुणत्वमापन्नैर बध्यन्ते मत्तदन्तिन: ॥
भावार्थ- छोटी-छोटी वस्तूएँ एकत्र करने से बडे़ काम भी हो सकते हैं। जिस प्रकार घास से बनाई हुई डोरी से मत्त हाथी बांधा जा सकता है।
24.
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम । 
अधनस्य कुतो मित्रम अमित्रस्य कुतो सुखम ॥
भावार्थ- आलसी मनुष्य को ज्ञान कैसे प्राप्त होगा ? यदि ज्ञान नहीं तो धन नहीं मिलेगा । यदि धन नहीं है तो अपना मित्र कौन बनेगा ? और मित्र नहीं तो सुख का अनुभव कैसे मिलेगा ।
25.
आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम । 
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ॥
भावार्थ- जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदीयों के माध्यम से अंतिमत: सागर से जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है ।
26.
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्य मेतत पशुभिर्नराणाम्। 
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥१८॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं, अर्थात यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं, केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।
27.
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ -वाल्मीकि रामायण
हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती। मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है।
28.
अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुन:। 
पुन: कदापि नायाति गतं तु नवयौवनम्॥
घन मिलता है, नष्ट होता है। (नष्ट होने के बाद) फिरसे मिलता है। परन्तु जवानी एक बार निकल जाए तो कभी वापस नही आती।
29.
आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला ।
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत ॥
आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है । इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही जगह पर खडे रहते है ।
30.
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म । 
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ॥
आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है ।
31.
आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते । 
नीयते तद वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो ॥
सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापास नहीं मिलता । ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे है वे कितनी बडी गलती कर रहे है
32.
"अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं। 
अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु॥
दूसरोंको दु:ख दिये बिना ; विकॄती के साथ अपाना संबंध बनाए बिना; अच्छों के साथ अपने सम्बंध तोडे बिना ; जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है ।
33.
अमित्रो न विमोक्तव्य: कॄपणं वणपि ब्रुवन। 
कॄपा न तस्मिन कर्तव्या हन्यादेवापकारिणाम्॥
शत्रु अगर क्षमायाचना करे, तो भी उसे क्षमा नही करनी चाहिये। वह अपने जीवित को हानि पहुचा सकता है यह सोचके उसको समाप्त करना चाहिये। 
३४
आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत । तद्वत कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ गीता २।७०
जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आशाओं से अविचलित रहता हैर जैसे अनेक नदीयां सागर में मिलने पर भी सागर का जल नही बढता, वह शांत ही रहता हैर ऐसे ही व्यक्ती सुखी हो सकते है ।
३५
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्राणत्यागेऽपि संस्थिते । न च कॄत्यं परित्याज्यम एष धर्म: सनातन: ॥
जो कार्य करने योग्य नही है इअच्छा न होने के कारणउ वह प्राण देकर भी नही करना चाहिए । तथा जो काम करना है अपना कर्तव्य होने के कारणउ वह काम प्राण देना पडे तो भी करना नही छोडना चाहिए ।
३६
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा: ग्रन्थिभ्यो धारिणो वरा: । धारिभ्यो ज्ञानिन: श्रेष्ठा: ज्ञानिभ्यो व्यसायिन: ॥

निरक्षर लोगों से ग्रंथ पढने वाले श्रेष्ठ । उनसे भी अधिक ग्रंथ समझनेवाले श्रेष्ठ । ग्रंथ समझनेवालोंसे भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्राप्त ज्ञान को उपयोग में लानेवाले श्रेष्ठ ।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

फ्रीज में रखे गूंथा हुआ आटा भूत और पितर को आमंत्रित करता है!

गूंथे हुए आटे को उसी तरह पिण्ड के बराबर माना जाता है जो पिण्ड मृत्यु के बाद जीवात्मा के लिए समर्पित किए जाते हैं। किसी भी घर में जब गूंथा हुआ आटा फ्रीज में रखने की परम्परा बन जाती है तब वे भूत और पितर इस पिण्ड का भक्षण करने के लिए घर में आने शुरू हो जाते हैं जो पिण्ड पाने से वंचित रह जाते हैं। ऐसे भूत और पितर फ्रीज में रखे इस पिण्ड से तृप्ति पाने का उपक्रम करते रहते हैं। जिन परिवारों में भी इस प्रकार की परम्परा बनी हुई है वहां किसी न किसी प्रकार के अनिष्ट, रोग-शोक और क्रोध तथा आलस्य का डेरा पसर जाता है। इस बासी और भूत भोजन का सेवन करने वाले लोगों को अनेक समस्याओं से घिरना पडता है।

आप अपने इष्ट मित्रों, परिजनों व पडोसियों के घरों में इस प्रकार की स्थितियां देखें उनकी जीवनचर्या का तुलनात्मक अध्ययन करें तो पाएंगे कि वे किसी न किसी उलझन से घिरे रहते हैं।

आटा गूंथने में लगने वाले सिर्फ दो-चार मिनट बचाने के लिए की जाने वाली यह क्रिया किसी भी दृष्टि से सही नहीं मानी जा सकती। पुराने जमाने से बुजुर्ग यही राय देते रहे हैं कि गूंथा हुआ आटा रात को नहीं रहना चाहिए। उस जमाने में फ्रीज का कोई अस्तित्व नहीं था फिर भी बुजुर्गों को इसके पीछे रहस्यों की पूरी जानकारी थी। यों भी बासी भोजन का सेवन शरीर के लिए हानिकारक है ही। 

भोजन केवल शरीर को ही नहीं,अपितु मन-मस्तिष्क को भी गहरे तक प्रभावित करता है। दूषित अन्न-जल का सेवन न सिर्फ आफ शरीर-मन को बल्कि आपकी संतति तक में असर डालता है। ऋषि-मुनियों ने दीर्घ जीवन के जो सूत्र बताये हैं उनमें ताजे भोजन पर विशेष जोर दिया है। ताजे भोजन से शरीर निरोगी होने के साथ-साथ तरोताजा रहता है और बीमारियों को पनपने से रोकता है। लेकिन जब से फ्रीज का चलन बढा है तब से घर-घर में बासी भोजन का प्रयोग भी तेजी से बढा है। यही कारण 
है कि परिवार और समाज में तामसिकता का बोलबाला है।

ताजा भोजन ताजे विचारों और स्फूर्ति का आवाहन करता है जबकि बासी भोजन से क्रोध, आलस्य और उन्माद का ग्राफ तेजी से बढने लगा है। शास्त्रों में कहा गया है कि बासी भोजन भूत भोजन होता है और इसे ग्रहण करने वाला व्यक्ति जीवन में नैराश्य,रोगों और उद्विग्नताओं से घिरा रहता है। हम देखते हैं कि प्रायःतर गृहिणियां मात्र दो से पांच मिनट का समय बचाने के लिए रात को गूंथा हुआ आटा लोई बनाकर फ्रीज में रख देती हैं और अगले दो से पांच दिनों तक इसका प्रयोग होता है। आइये आज से ही संकल्प लें कि आयन्दा यह स्थिति सामने नहीं आए। तभी आप और आपकी संतति स्वस्थ और प्रसन्न रह सकती है और औरों को भी खुश रखने लायक व्यक्तित्व का निर्माण कर सकती है।

शुभम भवतु..