शनिवार, 4 अप्रैल 2015

(अ) सुभषित श्लोक​

1.
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ -वाल्मीकि रामायण
हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती। मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है।
2.
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्य मेतत पशुभिर्नराणाम्। 
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं, अर्थात यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं, केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।
3.
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्। 
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥
तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।
4.
आत्मनो मुखदोषेण वध्यन्ते शुक सारिकाः । 
बकास्तत्र न वध्यन्ते मौनं सर्वाऽर्थसाधनम ॥ लब्धप्रणाशम्, पञ्चतन्त्र ४८
अपने मुख दोष (ज्यादा एवं मीठा) बोलने से ही तोता मैना पकडे़ एवं पिंजड़े में डाले जाते हैं । चुप रहने के कारण ही बगुलों को न कोई पकड़ता है और न कोई पालता है । [वाणी संयम हमेशा ही कार्य सिद्ध करने वाला होता है ।]
5.
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। 
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥
"ये मेरा है", "वह उसका है" जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है।
6.
असूयैकपदं मॄत्यु: अतिवाद: श्रियो वध: । 
अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्याया: शत्रवस्त्रय: ॥
विद्यार्थी के संबंध में द्वेश यह मॄत्यु के समान है। अनावश्यक बाते करने से धन का नाश होता है। सेवा करने की मनोवॄत्ती का आभाव, जल्दबाजी तथा स्वयं की प्राशंसा स्वयं करना यह तीन बाते विद्या ग्रहण करने के शत्रू है।
7.
अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजन शलाकया । 
चक्षुरुन्मिलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम: ॥
अज्ञान के अंध:कार से अन्धे हुए मनुष्य की आंखे ज्ञान रुप अंजन से खोलने वाले गुरु को मेरा प्रणाम।
8.
अधीत्य चतुरो वेदान सर्वशास्त्राण्यनेकश: । 
ब्रम्ह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा ॥
सिर्फ वेद तथा शास्त्रों का बार बार अध्ययन करनेसे किसी को ब्राह्मतत्व का अर्थ नहीं होता । जैसे जिस चम्मच से खाद्य पदार्थ परोसा जाता है उसे उस खाद्य पदार्थ का गुण तथा सुगंध प्राप्त नहीं होता ।
9.
अप्यब्धिपानान्महत: सुमेरून्मूलनादपि । 
अपि वहन्यशनात साधो विषमश्चित्तनिग्रह: ॥
अपने स्वयं के मन का स्वामी होना यह संपूर्ण सागर के जल को पिना, मेरू पर्वत को उखाडना या फिर अग्नी को खाना ऐसे असंभव बातों से भी कठिन है ।
10.
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा: ग्रन्थिभ्यो धारिणो वरा: । 
धारिभ्यो ज्ञानिन: श्रेष्ठा: ज्ञानिभ्यो व्यसायिन: ॥
निरक्षर लोगों से ग्रंथ पढने वाले श्रेष्ठ, उनसे भी अधिक ग्रंथ समझने वाले श्रेष्ठ । ग्रंथ समझने वालों से भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्राप्त ज्ञान को उपयोग में लाने वाले श्रेष्ठ ।
11.
अप्रकटीकृतशक्ति: शक्तोऽपि जनस्तिरस्क्रियां। 
लभते निवसन्नन्तर्दारूणि लंघ्यो वहिनर्न तु ज्वलित: ॥
भावार्थ- बल जब तक वह नही दिखाता है, उसके बलकी उपेक्षा होती है। लकडी से कोई नही डरता, मगर वही लकडी जब जलने लगती है, तब लोग उससे डरते है।
12.
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्राणत्यागेऽपि संस्थिते । 
न च कॄत्यं परित्याज्यम एष धर्म: सनातन: ॥
भावार्थ- जो कार्य करने योग्य नहीं है इच्छा न होने के कारण वह प्राण देकर भी नहीं करना चाहिए । तथा जो काम करना अपना कर्तव्य होने के कारण वह काम प्राण देना पडे तो भी करना नहीं छोडना चाहिए ।
13.
आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत । 
तद्वत कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ गीता २।७०
भावार्थ- जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आशाओं से अविचलित रहता है, जैसे- अनेक नदीयाँ सागर में मिलने पर भी सागर का जल नहीं बढता, वह शांत ही रहता है। ऐसे ही व्यक्ती सुखी हो सकते है ।
14.
अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं । 
अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु ॥
भावार्थ- दूसरों को दु:ख दिये बिना, विकॄती के साथ अपना संबन्ध बनाए बिना, अच्छों के साथ अपने संबन्ध तोडे बिना, जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है ।
15.
आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला । 
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत ॥
भावार्थ- आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है । इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही जगह पर खडे रहते है ।
16.
अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुन: । 
पुन: कदापि नायाति गतं तु नव यौवनम ॥
भावार्थ- धन मिलता है, नष्ट होता है। (नष्ट होने के बाद) फिरसे मिलता है। परन्तु जवानी एक बार निकल जाए तो कभी वापस नहीं आती ।
17.
आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते । 
नीयते तद वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो ॥
भावार्थ- सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापस नहीं मिलता । ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे हैं वे कितनी बडी गलती कर रहे है ।
18.
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म । 
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ॥
भावार्थ- आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है ।
19.
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम । 
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ॥
भावार्थ- (श्री भगवान बोले) हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है ।
20.
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम । 
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम ॥
भावार्थ- महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं। पहली- परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी- पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना।
21.
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम । 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम ॥
भावार्थ- यह मेरा है, यह उसका है, ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है, इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है ।
22.
अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना । 
यत सारभूतं तदुपासितव्यं हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात ॥
भावार्थ- पढ़ने के लिए बहुत से शास्त्र हैं और ज्ञान अपरिमित है। अपने पास समय की कमी है और बाधाएं बहुत हैं। ऐसे में जैसे हंस पानी में से दूध निकाल लेता है उसी तरह हमें उन शास्त्रों का सार समझ लेना चाहिए।
23.
अल्पानामपि वस्तूनां संहति: कार्यसाधिका । 
तॄणैर्गुणत्वमापन्नैर बध्यन्ते मत्तदन्तिन: ॥
भावार्थ- छोटी-छोटी वस्तूएँ एकत्र करने से बडे़ काम भी हो सकते हैं। जिस प्रकार घास से बनाई हुई डोरी से मत्त हाथी बांधा जा सकता है।
24.
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम । 
अधनस्य कुतो मित्रम अमित्रस्य कुतो सुखम ॥
भावार्थ- आलसी मनुष्य को ज्ञान कैसे प्राप्त होगा ? यदि ज्ञान नहीं तो धन नहीं मिलेगा । यदि धन नहीं है तो अपना मित्र कौन बनेगा ? और मित्र नहीं तो सुख का अनुभव कैसे मिलेगा ।
25.
आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम । 
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ॥
भावार्थ- जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदीयों के माध्यम से अंतिमत: सागर से जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है ।
26.
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्य मेतत पशुभिर्नराणाम्। 
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥१८॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं, अर्थात यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं, केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।
27.
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ -वाल्मीकि रामायण
हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती। मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है।
28.
अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुन:। 
पुन: कदापि नायाति गतं तु नवयौवनम्॥
घन मिलता है, नष्ट होता है। (नष्ट होने के बाद) फिरसे मिलता है। परन्तु जवानी एक बार निकल जाए तो कभी वापस नही आती।
29.
आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला ।
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत ॥
आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है । इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही जगह पर खडे रहते है ।
30.
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म । 
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ॥
आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है ।
31.
आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते । 
नीयते तद वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो ॥
सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापास नहीं मिलता । ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे है वे कितनी बडी गलती कर रहे है
32.
"अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं। 
अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु॥
दूसरोंको दु:ख दिये बिना ; विकॄती के साथ अपाना संबंध बनाए बिना; अच्छों के साथ अपने सम्बंध तोडे बिना ; जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है ।
33.
अमित्रो न विमोक्तव्य: कॄपणं वणपि ब्रुवन। 
कॄपा न तस्मिन कर्तव्या हन्यादेवापकारिणाम्॥
शत्रु अगर क्षमायाचना करे, तो भी उसे क्षमा नही करनी चाहिये। वह अपने जीवित को हानि पहुचा सकता है यह सोचके उसको समाप्त करना चाहिये। 
३४
आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत । तद्वत कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ गीता २।७०
जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आशाओं से अविचलित रहता हैर जैसे अनेक नदीयां सागर में मिलने पर भी सागर का जल नही बढता, वह शांत ही रहता हैर ऐसे ही व्यक्ती सुखी हो सकते है ।
३५
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्राणत्यागेऽपि संस्थिते । न च कॄत्यं परित्याज्यम एष धर्म: सनातन: ॥
जो कार्य करने योग्य नही है इअच्छा न होने के कारणउ वह प्राण देकर भी नही करना चाहिए । तथा जो काम करना है अपना कर्तव्य होने के कारणउ वह काम प्राण देना पडे तो भी करना नही छोडना चाहिए ।
३६
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा: ग्रन्थिभ्यो धारिणो वरा: । धारिभ्यो ज्ञानिन: श्रेष्ठा: ज्ञानिभ्यो व्यसायिन: ॥

निरक्षर लोगों से ग्रंथ पढने वाले श्रेष्ठ । उनसे भी अधिक ग्रंथ समझनेवाले श्रेष्ठ । ग्रंथ समझनेवालोंसे भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्राप्त ज्ञान को उपयोग में लानेवाले श्रेष्ठ ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. मान्यवर श्री राकेश तिवारी जो सादर प्रणाम मैंने शुभषित श्लोक का आध्यान किया । बहुत ही सुंदर और मन मस्तिक को खोल देने वाले श्लोक हैं । ईश्वर आपको इस कार्य का उत्तम वरदान प्रदान करें । अंत में विनम्र निवेदन है की हो सके तो इतनी कृपा अवश्य करें कि जो भी श्लोक और मंत्र आप ने उद्धृत किया है उसके प्रमाण अवश्य ही लिखें ताकि किसी वक्तव्य या लेख में उसका प्रमाण देना आसान हो । धन्यवाद तथा ऐसी अनोखी भेंट हेतु हार्दिक बधाई ।

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  2. यत यत परवशम् कर्म तत् तत् यत्नेंन वर्जयेत

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