1
गुणवान वा परजन: स्वजनो निर्गुणोपि वा ।
निर्गुण: स्वजन: श्रेयान य:
पर: पर एव च ॥
भावार्थ- गुणवान शत्रु से
भी गुणहीन मित्र अच्छा, शत्रु तो आखिर शत्रु है ।
2
गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो, बली बलं वेत्ति न वेत्ति
निर्बल: ।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायस: करी
च सिंहस्य बलं न मूषक: ॥
भावार्थ- गुणी पुरुष ही
दुसरे के गुण पहचानता है, गुणहीन पुरुष नहीं । बलवान पुरुष ही दुसरे का बल जानता है,
बलहीन नहीं । वसन्त ऋतु आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नहीं । शेर के बल को हाथी पहचानता
है, चुहा नहीं ।
3
गौरवं प्राप्यते दानात न तु वित्तस्य संचयात ।
स्थिति: उच्चै:
पयोदानां पयोधीनां अध: स्थिति: ॥
भावार्थ- दान से गौरव
प्राप्त होता है, वित्त के संचय से नहीं । जल देने वाले बादलों का स्थान उच्च है,
बल्कि जल का समुच्चय करने वाले सागर का स्थान नीचे है ।
4
गतेर्भंग: स्वरो हीनो गात्रे स्वेदो महद्भयम ।
मरणे यानि चिन्तनानि
तानि चिन्तनानि याचके ॥
भावार्थ- चलते समय
संतुलन खोना, बोलते समय आवाज न निकलना, पसीना छूटना और बहुत भयभीत होना यह मरने वाले
आदमी के लक्षण याचक के पास भी दिखते है ।
5
ग्रन्थानभ्यस्य मेघावी ज्ञान विज्ञानतत्पर: ।
पलालमिव धान्यार्थी
त्यजेत सर्वमशेषत: ॥
बुद्धीमान मनुष्य जिसे ज्ञान
प्राप्त करने की तीव्र इच्छा है वह ग्रन्थो में जो महत्वपूर्ण विषय है उसे पढकर उस
ग्रन्थका सार जान लेता है तथा उस ग्रन्थ के अनावष्यक बातों को छोड देता है उसी तरह
जैसे किसान केवल धान्य उठाता है ।
6
गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो बली बलं वेत्ति न वेत्ति
निर्बल: ।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायस: करी च सिंहस्य बलं न मूषक: ॥
गुणी पुरुष ही दुसरे के गुण पहचानता
है, गुणहीन पुरुष नहीं। बलवान पुरुष ही दुसरे का बल जानता है, बलहीन नहीं। वसन्त ऋतु
आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नहीं। शेर के बल को हाथी पहचानता है, चुहा नहीं।
7
गुणवान वा परजन:
स्वजनो निर्गुणोपि वा ।
निर्गुण: स्वजन: श्रेयान य: पर: पर एव च ॥
गुणवान शत्रु से भी गुणहीन
मित्र अच्छा। शत्रु तो आखिर शत्रु है।
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