सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

सप्तसती विधान

नवरात्र में दुर्गा सप्तशती के पाठ से हर इच्छा पूरी हो सकती है। बशर्ते आप कुछ बातों का ध्यान रखें।4 वेद की तरह ''सप्तशती'' भी अनादि ग्रंथ है। श्रीवेद व्यास के मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा सप्तशती का अध्याय है। 700 श्लोक वाली दुर्गा सप्तशती के 3 भाग में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती नाम से 3 चरित्र हैं। प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा और चौथा अध्याय और बाकी सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं।

दुर्गा सप्तशती के 3 चरित्र के मंत्र
प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' और तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना के लिये ज़रूरी हैं। सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ और वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग हैं।

दुर्गा सप्तशती पाठ में रखें 20 बातों का ध्यान

-पहले, गणेश पूजन, कलश पूजन,,नवग्रह पूजन और ज्योति पूजन करें।

-श्रीदुर्गा सप्तशती की पुस्तक शुद्ध आसन पर लाल कपड़ा बिछाकर रखें।

-माथे पर भस्म, चंदन या रोली लगाकर पूर्वाभिमुख होकर तत्व शुद्धि के लिये 4 बार आचमन करें।

-श्री दुर्गा सप्तशति के पाठ में कवच, अर्गला और कीलक के पाठ से पहले शापोद्धार करना ज़रूरी है।

-दुर्गा सप्तशति का हर मंत्र, ब्रह्मा,वशिष्ठ,विश्वामित्र ने शापित किया है।

-शापोद्धार के बिना, पाठ का फल नहीं मिलता।

-एक दिन में पूरा पाठ न कर सकें, तो एक दिन केवल मध्यम चरित्र का और दूसरे दिन शेष 2 चरित्र का पाठ करे।

-दूसरा विकल्प यह है कि एक दिन में अगर पाठ न हो सके, तो एक, दो, एक चार, दो एक और दो अध्यायों को क्रम से  सात दिन में पूरा करें।

-श्रीदुर्गा सप्तशती में श्रीदेव्यथर्वशीर्षम स्रोत का नित्य पाठ करने से वाक सिद्धि और मृत्यु पर विजय।

-श्रीदुर्गा सप्तशती के पाठ से पहले और बाद में नवारण मंत्र ओं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाये विच्चे का पाठ करना अनिवार्य है।

-संस्कृत में श्रीदुर्गा सप्तशती न पढ़ पायें तो हिंदी में करें पाठ।

-श्रीदुर्गा सप्तशती का पाठ स्पष्ट उच्चारण में करें लेकिन जो़र से न पढ़ें और उतावले न हों।

-पाठ नित्य के बाद कन्या पूजन करना अनिवार्य है।

-श्रीदुर्गा सप्तशति का पाठ में कवच, अर्गला, कीलक और तीन रहस्यों को भी सम्मिलत करना चाहिये। दुर्गा सप्तशति के -  पाठ के बाद क्षमा प्रार्थना ज़रुर करना चाहिये

-श्रीदुर्गा सप्तशती के प्रथम,मध्यम और उत्तर चरित्र का क्रम से पाठ करने से, सभी मनोकामना पूरी होती है। इसे महाविद्या  क्रम कहते हैं।

-दुर्गा सप्तशती के उत्तर,प्रथम और मध्य चरित्र के क्रमानुसार पाठ करने से, शत्रुनाश और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इसे  महातंत्री क्रम कहते हैं।

-देवी पुराण में प्रातकाल पूजन और प्रात में विसर्जन करने को कहा गया है। रात्रि में घट स्थापना वर्जित है।

चाक्षुषी विद्या प्रयोग

नेत्ररोग होने पर भगवान सूर्यदेव की रामबाण उपासना है। इस अदभुत मंत्र से सभी नेत्ररोग आश्चर्यजनक रीति से अत्यंत शीघ्रता से ठीक होते हैं। सैंकड़ों साधकों ने इसका प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त किया है।
सभी नेत्र रोगियों के लिए चाक्षुषोपनिषद् प्राचीन ऋषि मुनियों का अमूल्य उपहार है। इस गुप्त धन का स्वतंत्र रूप से उपयोग करके अपना कल्याण करें।

शुभ तिथि के शुभ नक्षत्रवाले रविवार को इस उपनिषद् का पठन करना प्रारंभ करें। पुष्य नक्षत्र सहित रविवार हो तो वह रविवार कामनापूर्ति हेतु पठन करने के लिए सर्वोत्तम समझें। प्रत्येक दिन चाक्षुषोपनिषद् का कम से कम बारह बार पाठ करें। बारह रविवार (लगभग तीन महीने) पूर्ण होने तक यह पाठ करना होता है। रविवार के दिन भोजन में नमक नहीं लेना चाहिए।

प्रातःकाल उठें। स्नान आदि करके शुद्ध होवें। आँखें बन्द करके सूर्यदेव के सामने खड़े होकर भावना करें कि ‘मेरे सभी प्रकार के नेत्ररोग भी सूर्यदेव की कृपा से ठीक हो रहे हैं।’ लाल चन्दनमिश्रित जल ताँबे के पात्र में भरकर सूर्यदेव को अर्घ्य दें। संभव हो तो षोडशोपचार विधि से पूजा करें। श्रद्धा-भक्तियुक्त अन्तःकरण से नमस्कार करके ‘चाक्षुषोपनिषद्’ का पठन प्रारंभ करें।

ॐ अस्याश्चाक्क्षुषी विद्यायाः अहिर्बुधन्य ऋषिः। गायत्री छंद। सूर्यो देवता। चक्षुरोगनिवृत्तये जपे विनियोगः।

ॐ इस चाक्षुषी विद्या के ऋषि अहिर्बुधन्य हैं। गायत्री छंद है। सूर्यनारायण देवता है। नेत्ररोग की निवृत्ति के लिए इसका जप किया जाता है। यही इसका विनियोग है।

मंत्र इस प्रकार से है
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ॐ चक्षुः चक्षुः तेज स्थिरो भव। मां पाहि पाहि। त्वरित चक्षुरोगान् शमय शमय। मम जातरूपं तेजो दर्शय दर्शय। यथा अहं अन्धो न स्यां तथा कल्पय कल्पय। कल्याणं कुरु करु।
याति मम पूर्वजन्मोपार्जितानि चक्षुः प्रतिरोधकदुष्कृतानि सर्वाणि निर्मूल्य निर्मूलय। ॐ नम: चक्षुस्तेजोरत्रे दिव्व्याय भास्कराय। ॐ नमः करुणाकराय अमृताय। ॐ नमः सूर्याय। ॐ नमः भगवते सूर्यायाक्षि तेजसे नमः।खेचराय नमः। महते नमः। रजसे नमः। तमसे नमः। असतो मा सद गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय। उष्णो भगवांछुचिरूपः। हंसो भगवान शुचिरप्रति-प्रतिरूप:।ये इमां चाक्षुष्मती विद्यां ब्राह्मणो नित्यमधीते न तस्याक्षिरोगो भवति। न तस्य कुले अन्धो भवति।
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग् ग्राहयित्वा विद्या-सिद्धिर्भवति। ॐ नमो भगवते आदित्याय अहोवाहिनी अहोवाहिनी स्वाहा।
ॐ हे सूर्यदेव ! आप मेरे नेत्रों में नेत्रतेज के रूप में स्थिर हों। आप मेरा रक्षण करो, रक्षण करो। शीघ्र मेरे नेत्ररोग का नाश करो, नाश करो। मुझे आपका स्वर्ण जैसा तेज दिखा दो, दिखा दो। मैं अन्धा न होऊँ, इस प्रकार का उपाय करो, उपाय करो। मेरा कल्याण करो, कल्याण करो। मेरी नेत्र-दृष्टि के आड़े आने वाले मेरे पूर्वजन्मों के सर्व पापों को नष्ट करो, नष्ट करो। ॐ (सच्चिदानन्दस्वरूप) नेत्रों को तेज प्रदान करने वाले, दिव्यस्वरूप भगवान भास्कर को नमस्कार है। ॐ करुणा करने वाले अमृतस्वरूप को नमस्कार है। ॐ भगवान सूर्य को नमस्कार है। ॐ नेत्रों का प्रकाश होने वाले भगवान सूर्यदेव को नमस्कार है। ॐ आकाश में विहार करने वाले भगवान सूर्यदेव को नमस्कार है। ॐ रजोगुणरूप सूर्यदेव को नमस्कार है। अन्धकार को अपने अन्दर समा लेने वाले तमोगुण के आश्रयभूत सूर्यदेव को मेरा नमस्कार है।

हे भगवान ! आप मुझे असत्य की ओर से सत्य की ओर ले चलो। अन्धकार की ओर से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु की ओर से अमृत की ओर ले चलो। उष्णस्वरूप भगवान सूर्य शुचिस्वरूप हैं। हंस स्वरूप भगवान सूर्य शुचि तथा अप्रतिरूप हैं। उनके तेजोमय रूप की समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं है।

जो कोई इस चाक्षुष्मती विद्या का नित्य पाठ करता है उसको नेत्ररोग नहीं होते हैं, उसके कुल में कोई अन्धा नहीं होता है। आठ ब्राह्मणों को इस विद्या का दान करने पर यह विद्या सिद्ध हो जाती है।
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सोमवार, 17 सितंबर 2018

सामाजिक उथल पुथल

एक समय था जब मनुष्य के पास न तो मोबाइल था और न ही देश दुनिया की कोई खबर ही थी। कौन क्या कर रहा है, कौन किसके हित-अहित की सोच रहा है इसकी झनक तब के लोगों में नहीं थी। उस दौर में मनुष्य का जीवन व्यवहारिक व संगठित था, एक व्यक्ति दूसरे की मदद करता था दुंखों के समय कंधे से कंधा मिलाकर चलता था। एक सबल दूसरे निर्बल का सहारा बनता था।

परन्तु मैं यही भी नहीं कह रहा की तब के समय में द्वेष, बैर, पाखंड, मिथ्या भाषण, ऊंच-नीच, छुआ-छूत जैसा असामाजिक कर्म नहीं था। ये सारी चीजें तब निम्न स्तर में था पर आज इसकी Categorie बढ़ गई है। पहले जातियों में भेद भाव था अब पंथों में भेद दिख रहा है। अब कुछ लोग स्वजातीय को भारत का मूलनिवासी सिद्ध करने में लगा है। मूलनिवासी क्या है, कौन है? इसपर किसने जुर्म किये, कितनी यातनाएं दी गई। यह सब अब नाटकों, आलेखों और जनसभाओं के द्वारा स्वजातीय को समझाया जा रहा है।

यह भी बताया जा रहा है कि यूरेशिया से आकर आर्यों ने मूलनिवासियों को अपना गुलाम बना लिया और स्वयं वे भगवान बनकर पूजे जाने लगे। पौराणिक कथाओं में इन उपद्रवी आर्यों ने हम मूलनिवासियों को राक्षस, असुर, दैत्य नाम से संबोधित किया है। वे स्वयं को ऊंचा और भारत के मूलनिवासियों को नीची जाति का बनाकर अपमानित किया। मूलनिवासी अपने ही भूमि पर थूक नहीं सकता था, थूकने के लिए वह अपने गले में हंडी लटकाकर और अपने पैरों के निशान मिटाने के लिए अपने कमर के पीछे झाड़ू बांधकर चलते थे।

इसप्रकार के कई अपवाद स्वरूप कहानियों को गढ़कर कुछ राजनीतिक दलों ने स्वजनों को बहकाने में सफल भी रहे हैं। इस कार्य के लिए आज के आधुनिक तकनीक का उपयोग कर, जिसे हम social media के नाम से भी जानते हैं का उपयोग भी धड़ल्ले से किया जा रहा है साथ ही रंगमंच में नाटकीय ढंग से रचकर यह अपवादित सूचनाओं को जन-जन तक पहुंचाया जा रहा है।

हमारे भारत की संस्कृति अनादि तथा वैद्यकीय है इसी कारण इसे सनातनीय कहा गया। परमात्मा ने प्रकृति और पुरूष के रूप में स्वयं अवतार धारण किया मनुष्य सहित अनेक जीवों के लिए उत्तम से उत्तम व्यवस्थाएं की हैं। रही बात जाति निर्माण की तो प्रत्येक जीवों में यहां तक कि वृक्षों में भी जातियां बनाई हैं। यदि उन्होंने आम का वृक्ष बनाया तो वे एक ही बनाते जिसका फल मीठा और बड़ा होता पर नहीं आम के सहित अनेक वृक्षों में अलग अलग जातियां बनाई हैं। कोई आम बड़ा है तो कोई छोटा, कोई आम मीठा है तो कोई खट्टा, कोई आम पीले रंग का तो कोई लाल या हरे रंग का होता है।

इसी प्रकार पक्षियों में भी देखिए हम तोते को अपने घर में पालते हैं इनमें भी कई जातियां हैं। बंदरों में भी अनेक जातियां हैं, गायों में भी अनेक जातियां हैं और इनमें सम्मान या प्यार उन्हें ही मिलता है जिसमे कोई अच्छा गुण हो, जो सुंदर हो और इसी आधार पर उनका नाम

शनिवार, 15 सितंबर 2018

कलियुग के गुण और दोष

कलेर्दोषेनिवेश्चैव शृणु चैकं महागुणं |
यदल्पेन तु कालेन सिद्धि गच्छति मानवाः || (1)
त्रेतायां वार्षिको धर्मो द्वापरे मासिकः स्मृतः |
यथा क्लेशं वरन प्राश्स्तहा प्राप्यते कलौ ||  (2)
दुगत्रयेण तावन्तः सिद्धि गच्छन्ति पार्थिव |
यावन्तः सिद्धिमाद्यन्ति कलौ हरिहर्व्रताः || (3)

अब कलियुग की प्रवृत्ति सुनो | कलियुग में तमोगुण से व्याकुल इन्द्रियों वाले मनुष्य माया, असूया (दोष दृष्टी) तथा तपस्वी महात्माओं की हत्या भी करते हैं | कलि में मन और इन्द्रियों को मथ डालने वाला राग प्रकट होता है | सदा भुखमरी का भय सताता रहता है, भयंकर अनावृष्टि का भय भी प्राप्त होता है | सब देशों में नाना प्रकार के उलट फेर होते रहते हैं | सदा अधर्म सेवन करने के कारण मनुष्यों के लिए वेद का प्रमाण मान्य नहीं रह जाता |

प्रायः लोग अधार्मिक, अनाचारी, अत्यंत क्रोधी और तेजहीन होते हैं | लोभ के वशीभूत हो कर झूठ बोलते हैं, उनमें अधिकांश नारियों का सा स्वभाव आ जाता है, उनकी संतान दुष्ट होती हैं | ब्राह्मणों के दूषित यज्ञ, दोषयुक्त स्वाध्याय, दूषित आचरण तथा असत शास्त्रों के सेवन रूप कर्म दोष  से समस्त प्रजा का विनाश होता है | क्षत्रिय और ब्राह्मण नाश को प्राप्त होते हैं और वैश्य तथा शूद्रों की वृद्धि होती है | शूद्र लोग ब्राह्मणों के साथ एक  आसन पर सोते, बैठते और भोजन भी करते हैं | शूद्र ब्राह्मणों के आचरण अपनाते हैं और ब्राह्मण शूद्र के सामान आचरण करते हैं | चोर राजाओं की वृत्ति में स्थित होते हैं और राजा लोग चोर के सामान वर्ताव करते हैं |

पतिव्रता स्त्रियाँ कम होने लगती हैं और कुलटाओं की संख्या बढती है | कलियुग में भूमि प्रायः थोडा फल देने वाली होती है, कही कहीं वह अधिक उपजाऊ होती है | राजा लोग निडर होकर पाप करते हैं, वे रक्षक नहीं वरन प्रजा की संपत्ति हड़प लेने वाले होते हैं | कलियुग में प्रायः क्षत्रियेत्तर जाति के लोग राजा होते हैं | ब्राह्मण शूद्र की वृत्ति से जीविका चलने वाले होंगे | शूद्र ब्राह्मणों से अभिवन्दित हो कर स्वयं वाद-विवाद करने वाले होंगे | वे द्विजों को देख कर भी अपने आसन से उठ कर खड़े न होंगे |

द्विजों के सामने भी शूद्र ऊँचे आसन पर बैठे रहेंगे; यह बात जानकार भी राजा उन्हें दंड नहीं देगा | देखो, काल का कैसा प्रभाव है | अल्प विद्या और अल्प भाग्य वाले ब्राह्मण सुन्दर सुन्दर फूलों तथा अन्य प्रकार के अलंकारों से शूद्रों की अर्चना किया करेंगे | कलियुग के ब्राह्मण पाखंडियों के न लेने योग्य दूषित दान को भी ग्रहण करते हैं और उसके कारण दुस्तर रौरव नरक में पड़ते हैं | करोड़ों द्विज कलिकाल में तप और यज्ञ का फल बेचने वाले तथा अन्यायी होते हैं |  मनुष्यों के संतानों में पुत्र थोड़े और कन्यायें अधिक होती हैं |

कलियुग में मनुष्य वेद वाक्यों तथा वेदार्थों की निंदा करते हैं | शूद्रों ने जिसे स्वयं रच लिया हो, वही शास्त्र एवं प्रमाण माना जायेगा | हिंसक जीव प्रबल होंगे और गौवंश का क्षय होगा | दान आदि कोई भी धर्म अपने शुद्ध रूप में नहीं पालित होगा | साधू पुरुषों का अनेक प्रकार से विनाश होगा  | राजा लोग प्रजा के रक्षक न होंगे | कलियुग का अंतिम भाग उपस्थित होने पर प्रत्येक जनपद के लोग अन्न का व्यापार करेंगे, ब्राह्मण वेद बेचने वाले होंगे, स्त्रियाँ व्यभिचार से अर्थोपार्जन करेंगी | घरों में स्त्रियों की प्रधानता होगी |

वे अपवित्र कपडे पहनने वाली तथा कर्कशा होंगी | बहुत अधिक भोजन में लिप्त हो कर कृत्या की भाँती प्रतीत होंगी | कलियुग में प्रायः सब लोग वाणिज्य वृत्ति करने वाले होंगे | इंद्र छिट-पुट वर्षा करने वाले होंगे | मनुष्य दुराचार सेवन आदि व्यर्थ के पाखंडों से घिरे होंगे और सब लोग एक दूसरे से याचना करेंगे | उस समय लोगों को पाप करने में तनिक भी शंका नहीं होगी | जब कलियुग के संहार का समय आएगा उस समय मनुष्य पराया धन हडपने वाले, परस्त्रियों का सतीत्व नष्ट करने वाले तथा पंद्रह वर्ष की आयु वाले होंगे | चोर के घर भी चोरी करने वाले तथा लुटेरे के घर में भी लूट मार करने वाले होंगे |

ज्ञान और कर्म दोनों का अभाव हो जाने से सब लोग उद्यम करना छोड़ देंगे | उस समय कीड़े, चूहे और सर्प मनुष्य को डसेंगे |  वर्ण और आश्रम धर्म के विरोधी जो अन्य पाखण्ड सुने जाते हैं, वे सब उस समय प्रकट होंगे और उनकी वृद्धि होगी | कलियुग में स्त्री और पुत्र से दुःख, शरीर का संहार, सदा रोगी रहना तथा पाप करने में आग्रह रखना आदि दोष क्रमशः बढ़ते ही जायेंगे |

राजन ! यद्यपि कलियुग समस्त दोषों का भण्डार है, तथापि उसमें एक महान गुण भी है, उसे सुनो – कलिकाल में थोड़े ही समय साधन करने से मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं |

(1) सतयुग, त्रेता और द्वापर – इन तीनों युगों के लोग ऐसा कहते हैं कि जो मनुष्य कलियुग में श्रद्धा परायण होकर वेदों, स्मृतियों और पुराणों में बताये गए धर्म का अनुष्ठान करते हैं, वे धन्य हैं | त्रेता में एक वर्ष तक तथा द्वापर में एक मास तक क्लेशसहनपूर्वक धर्मानुष्ठान करने वाले बुद्दिमान पुरुष को जो फल प्राप्त होता है वह  कलियुग में एक दिन के अनुष्ठान  से मिल जाता है | राजन ! कलियुग में भगवान् विष्णु और शिव की नियमपूर्वक उपासना करने से जितने मनुष्य  सिद्धि को प्राप्त होते हैं, उतने अन्य युगों में तीन युगों में उपासना करने से प्राप्त होते हैं।

यह मिट्टी किसी को नही छोडेगी

ऋषिवर - हॆ वत्स एक राजा बहुत ही महत्वाकांक्षी था और उसे महल बनाने की बड़ी महत्वकांक्षा रहती थी..
उसने अनेक महलों का निर्माण करवाया..

रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित रहती थी की पता नही क्या करेंगे इतने महल बनवाकर..
एक दिन राजा नदी के उस पार एक महात्मा जी के आश्रम के वहाँ से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधि थी और सैनिकों से राजा को सुचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सुचना उन्होंने किसी को नदी पर अंतिम समय मे उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ ज़मीन मे गढ़वा दिया और कहा की जिसे भी वो खजाना चाहिये..

उसे अपने स्वयं के हाथों से अकेले ही इस समाधि से चौरासी (84) हाथ नीचे सूचना पड़ी है..

निकाल ले और अनमोल खजाना प्राप्त कर लेंवे और ध्यान रखे उसे बिना कुछ खाये पिये खोदना है और बिना किसी की सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी..

राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वो शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई..

शिष्य - क्षमा हॆ देव ! पर ऐसा क्या लिखा था ?
ऋषिवर - उस पर लिखा था हॆ राहगीर संसार के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही है तुम कितने भी धन-दौलत, महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हे इसी मिट्टी मे मिलना है..

सावधान राहगीर,जब तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना की जैसै ये चौरासी हाथ का कुआं तुमने अकेले खोदा है..

बस वैसे ही आगे की चौरासी लाख योनियों मे तुम्हे अकेले ही भटकना है और हॆ राहगीर ये कभी न भुलना की "तुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग-अलग हो सकता है..

फिर राजा जैसै तैसे कर के उस कुएँ से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर के रख दिया और सारे महल जनता को दे दिये और " अंतिम घर " की तैयारियों मे जुट गया..

हॆ वत्स एक बात हमेशा याद रखना की इस मिट्टी ने जब रावण जैसै सत्ताधारियों को नही बख्शा तो फिर साधारण मानव क्या चीज है इसलिये ये हमेशा याद रखना की मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है क्योंकि ये मिट्टी किसी को नही छोड़ने वाली है.........!!

सोमवार, 10 सितंबर 2018

विप्र गीत

तिलक जनेऊ शिखा धार लो।
ब्राह्मण हित में प्राण वार लो।।

भ्रात भ्रात की  यही रीत हो।
विप्र प्रथम हो विप्र मीत हो।।

ब्राह्मण हो ब्राह्मण की आशा।
अपनापन हो  मिटे  निराशा।।

भ्राता  भगिनी  एक  राग दो।
दर्द समझ लो अहम् त्याग दो।।

ब्राह्मण हो ब्राह्मण को पा लो।
जग छोड़ो परिवार बचा लो।।

शक्ति स्वयं की पहचानो ।
एक-दूजे का कहना मानो।।

पहले मात-पिता की सेवा।
यदि  पाना हो  तुमको मेवा।।

फिर भ्राता को भ्राता कहना।
प्रेम  समर्पित  करते रहना।।

हर ब्राह्मण को मानो भ्राता।
कहते हैं अब यही विधाता।।

हो जाओ  सब  ब्राह्मणवादी।
ब्राह्मण की ब्राह्मण से शादी।।

यदि थोड़ा भी हित का मन है।
यथाशक्ति  दो  जो निर्धन है।।

श्री परशुराम को मन में रख लो।
निज उन्नति के फल को चख लो।।

जय ब्राह्मण एकता !!!
(विप्र समाज हित में समर्पित)

अपराध

मन्दिर में पैसे फेंकना बहुत-बड़ा अपराध है ।

अक्सर हमने बहुत बार देखा है कि लोग मन्दिर मे अपनी जेब से
1,
2,
5 का सिक्का या कोई-भी नोट निकाल कर भगवान के सामने फेंकते है । फिर हाथ जोडकर प्रणाम करते है एवं मनोकामना भगवान से माँगते है ।

कैसी मूर्खता है ❗
यह लोगो की:-
कोई आपके सामने पैसे फेंककर चला जाये तो क्या आपको अच्छा लगेगा ❓
नही लगेगा ❗

आप उस व्यक्ति को बुलाकर कहोगे__""भिखारी समझा है क्या""

तो सोचिये भगवान को कैसी-फीलिंग आती होगी, जब कोई उनके सामने पैसे
फेंकता है ?

अब जो यह कहे कि भैया 【पत्थर की मूर्ति】 मे कैसी फीलिंग, तो उनका मन्दिर जाना बेकार है ।

10 रूपये चढ़ाकर 10 करोड़ कि कामना करते है ।

भगवान के सामने शर्त रखते है कि है भगवान मेरे बेटे कि नौकरी लगने के बाद मंदिर मे भंडारा करवाऊंगा ।

मेरा ये संकट टाल दो,तो इतने रूपये दान करूंगा ।

पहले कुछ नही करेंगे, काम होने के बाद ही करेंगे ।

हे भगवान, मेरा ये काम हो जाये मै आपको मानना शुरू कर दूँगा ।

क्यो भाई, भगवान को क्या जरूरत पड़ी है कि, वो तुम्हे अपने होने का प्रमाण दें ❓

ऐसे, लोभी-लालची व्यक्तियों को समझना चाहिए कि उन्हें तुम क्या दे दोगे ?
जो सम्पूर्ण-विश्व को
पाल रहा है ⁉

दाता ! एक-राम, भिखारी सारी दुनिया ‼
""भगवान को आपका पैसा नही चाहिये,
उन्हें तो सिर्फ आपकी सच्ची-भावना और प्रेम चाहिये ।""

उनके सामने जब भी जाये तो अपने 【पद, पैसे, ज्ञान का अहंकार】 त्याग कर [दीन-हीन】 बनकर जाये ।
क्योंकि आपके पास जो कुछ भी है,यह {सब उन्ही-का}तो है ।

एक बार इस बात पर विचार अवश्य करिए ⁉

तेरा दर ढूँढते-ढूँढते जिन्दगी की शाम हो गयी ❗
और
तेरा दर मिला तो जिन्दगी ही तेरे नाम हो गई ‼

बुधवार, 8 अगस्त 2018

सनातन संस्कृति

आखिर कितना पुराना है हिन्दू धर्म, क्या है इसका वास्तविक इतिहास जरुर जानिए:-

कुछ लोग हिन्दू संस्कृति की शुरुआत को सिंधु घाटी की सभ्यता से जोड़कर देखते हैं। जो गलत है। वास्तव में संस्कृत और कई प्राचीन भाषाओं के इतिहास के तथ्यों के अनुसार प्राचीन भारत में सनातन धर्म के इतिहास की शुरुआत ईसा से लगभग 13 हजार पूर्व हुई थीअर्थात आज से 15 हजार वर्ष पूर्व। इस पर विज्ञान ने भी शोध किया और वह भी इसे सच मानता है।

जीवन का विकास भी सर्वप्रथम भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप में नर्मदा नदी के तट पर हुआ, जो विश्व की सर्वप्रथम नदी है। यहां पूरे विश्व में डायनासोरों के सबसे प्राचीन अंडे एवं जीवाश्म प्राप्त हुए हैं।

संस्कृत भाषा :- संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। ‘संस्कृत’ का शाब्दिक अर्थ है ‘परिपूर्ण भाषा’। संस्कृत से पहले दुनिया छोटी-छोटी, टूटी-फूटी बोलियों में बंटी थी जिनका कोई व्याकरण नहीं था और जिनका कोई भाषा कोष भी नहीं था। भाषा को लिपियों में लिखने का प्रचलन भारत में ही शुरू हुआ।
 
भारत से इसे सुमेरियन, बेबीलोनीयन और यूनानी लोगों ने सीखा। ब्राह्मी और देवनागरी लिपियों से ही दुनियाभर की अन्य लिपियों का जन्म हुआ। ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिसे देवनागरी लिपि से भी प्राचीन माना जाता है। हड़प्पा संस्कृति के लोग इस लिपि का इस्तेमाल करते थे, तब संस्कृत भाषा को भी इसी लिपि में लिखा जाता था।

जानें भाषाओं की मां “संस्कृत” से जुड़े हैरान कर देने वाले तथ्य

दुनिया का पहला धर्मग्रंथ :- जैन पौराणिक कथाओं में वर्णन है कि सभ्यता कोमानवता तक लाने वाले पहले तीर्थंकर ऋषभदेव की एक बेटी थी जिसका नाम ब्राह्मी था। उसी ने इस लेखन की खोज की। प्राचीन दुनिया में सिंधु और सरस्वती नदी के किनारे बसी सभ्यता सबसे समृद्ध, सभ्य और बुद्धिमान थी। इसके कई प्रमाण मौजूद हैं। यह वर्तमान में अफगानिस्तान से भारत तक फैली थी। प्राचीनकाल में जितनी विशाल नदी सिंधु थी उससे कहीं ज्यादा विशाल नदी सरस्वती थी। दुनिया का पहला धर्मग्रंथ सरस्वती नदी के किनारे बैठकर ही लिखा गया था।

पुरातत्त्वविदों के अनुसार यह सभ्यता लगभग 9,000 ईसा पूर्व अस्तित्व में आई थी, 3,000 ईसापूर्व उसने स्वर्ण युग देखा और लगभग 1800 ईसा पूर्व आते-आते किसी भयानक प्राकृतिक आपदा के कारण यह लुप्त हो गया। एक ओर जहां सरस्वती नदी लुप्त हो गई वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र के लोगों ने पश्चिम की ओर पलायन कर दिया।

जानिए सनातन हिन्दू धर्म में कुल कितने ग्रंथ हैं:-

हजारों वर्ष पहले के हिन्दू लोग :- सैकड़ों हजार वर्ष पूर्व पूरी दुनियाँ के लोग कबीले, समुदाय, घुमंतू वनवासी आदि में रहकर जीवन-यापन करते थे। उनके पास न तो कोई स्पष्ट शासन व्यवस्था थी और न ही कोई सामाजिक व्यवस्था। परिवार, संस्कार और धर्म की समझ तो बिलकुल नहीं थी। ऐसे में केवल भारतीय हिमालयन क्षेत्र में कुछ मुट्ठीभर लोग थे, जो इस संबंध में सोचते थे। उन्होंने ही वेद को सुना और उसे मानव समाज को सुनाया। उल्लेखनीय है कि प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज कबीले में नहीं रहा। वह एक वृहत्तर और विशेष समुदाय में ही रहा।

सम्पूर्ण धरती पर हिन्दू वैदिक धर्म ने ही लोगों को सभ्य बनाने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में धार्मिक विचारधारा की नए-नए रूप में स्थापना की थी? आज दुनियाभर की धार्मिक संस्कृति और समाज में हिन्दू धर्म की झलक देखी जा सकती है चाहे वह यहूदी धर्म हो, पारसी धर्म हो या ईसाई-इस्लाम धर्म हो। क्योंकि ईसा से 2300-2150 वर्ष पूर्व सुमेरिया, 2000-400 वर्ष पूर्व बेबिलोनिया, 2000-250 ईसा पूर्व ईरान, 2000-150 ईसा पूर्व मिस्र (इजिप्ट), 1450-500 ईसा पूर्व असीरिया, 1450-150 ईसा पूर्व ग्रीस (यूनान), 800-500 ईसा पूर्व रोम की सभ्यताएं विद्यमान थीं।

परन्तु इन सभी से भी पूर्व अर्थात आज से 5000 वर्ष पहले महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। महाभारत से भी पहले 7300 ईसापूर्व अर्थात आज से 7300+2000=9300 साल पहले रामायण का रचनाकाल प्रमाणित हो चुका है।

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मनुस्मृति :- अब चूँकि महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में उससे भी पहले लिखी गई मनुस्मृति का उल्लेख आया है तो आइये अब जानते हैं रामायण से भी प्राचीन मनुस्मृति कब लिखी गई………!!!

किष्किन्धा काण्ड में श्री राम अत्याचारी बाली को घायल कर उन्हें दंड देने के लिए मनुस्मृति के श्लोकों का उल्लेख करते हुए उसे अनुजभार्याभिमर्श का दोषी बताते हुए कहते हैं- मैं तुझे यथोचित दंड कैसे ना देता ?
श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्र वत्सलौ ।।
गृहीतौ धर्म कुशलैः तथा तत् चरितम् मयाअ ।।
वाल्मीकि ४-१८-३०
राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः ।
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा ।।
वाल्मीकि ४-१८-३१
शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते ।
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् ।
वाल्मीकि ४-१८-३२
उपरोक्त श्लोक ३० में मनु का नाम आया है और श्लोक
३१ , ३२ भी मनुस्मृति के ही हैं एवं उपरोक्त सभी श्लोक मनु अध्याय ८ के है ! जिनकी संख्या कुल्लूकभट्ट कि टीकावली में ३१८ व ३१९ है।
अतः यह सिद्ध हुआ कि श्लोकबद्ध मनुस्मृति जो महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में अनेकों स्थान पर आयी है….वो मनुस्मृति रामायणकाल (9300 साल) के भी पहले विधमान थी ।

मनुस्मृति के विदेशी प्रमाण :- अब आईये विदेशी प्रमाणों के आधार पर जानते हैं कि रामायण से भी पहले की मनुस्मृति कितनी प्राचीन है..??

सन १९३२ में जापान ने बम विस्फोट द्वारा चीन की ऐतिहासिक दीवार को तोड़ा तो उसमे से एक लोहे का ट्रंक मिला जिसमे चीनी भाषा की प्राचीन पांडुलिपियां भरी थी । वे हस्तलेख Sir Augustus Fritz George के हाथ लग गयीं। वो उन्हें लंदन ले गये और ब्रिटिश म्युजियम में रख दिया । उन हस्तलेखों को Prof. Anthony Graeme ने चीनी विद्वानो से पढ़वाया।

चीनी भाषा के उन हस्तलेखों में से एक में लिखा है –
‘मनु का धर्मशास्त्र भारत में सर्वाधिक मान्य है जो वैदिक संस्कृत में लिखा है और दस हजार वर्ष से अधिक पुराना है’ तथा इसमें मनु के श्लोकों कि संख्या 630 भी बताई गई है। यही विवरण मोटवानी कि पुस्तक ‘मनु धर्मशास्त्र : ए सोशियोलॉजिकल एंड हिस्टोरिकल स्टडीज’ पेज २३२ पर भी दिया है । इसके अतिरिक्त R.P. Pathak कि Education in the Emerging India में भी पेज १४८ पर है।

अब देखें चीन की दीवार के बनने का समय लगभग 220–206 BC है अर्थात लिखने वाले ने कम से कम 220BC से पूर्व ही मनु के बारे में अपने हस्तलेख में लिखा 220+10000 =10220 ईसा पूर्व यानी आज से कम से कम 12,220 वर्ष पूर्व तक भारत में मनुस्मृति पढ़ने के लिए उपलब्ध थी ।

मनुस्मृति में सैकड़ों स्थानों पर वेदों का उल्लेख आया है। अर्थात वेद मनुस्मृति से भी पहले लिखे गये। अब हिन्दू धर्म के आधार वेदों की प्राचीनता जानते हैं-

वेदों की उत्पत्ति कब हुई ?

वेदों का रचनाकाल इतना प्राचीन है कि इसके बारे में सही-सही किसी को ज्ञात नहीं है। पाश्चात्य विद्वान वेदों के सबसे प्राचीन मिले पांडुलिपियों के हिसाब से वेदों के रचनाकाल के बारे में अनुमान लगाते हैं। जो अत्यंत हास्यास्पद है। क्योंकि वेद लिखे जाने से पहले हजारों सालों तक पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाए जाते थे। इसीलिए वेदों को “श्रुति” भी कहा जाता है। उस काल में भोजपत्रों पर लिखा जाता था अत: यदि उस कालखण्ड में वेदों को हस्तलिखित भी किया गया होगा तब भी आज हजारों साल बाद उन भोजपत्रों का मिलना असम्भव है।

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फिर भी वेदों पर सबसे अधिक शोध करने वाले स्वामी दयानंद जी ने अपने ग्रंथों में ईश्वर द्वारा वेदों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन किया हैं. ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के पुरुष सूक्त (ऋक १०.९०, यजु ३१ , अथर्व १९.६) में सृष्टी उत्पत्ति का वर्णन है कि परम पुरुष परमात्मा ने भूमि उत्पन्न की, चंद्रमा और सूर्य उत्पन्न किये, भूमि पर भांति भांति के अन्न उत्पन्न किये,पशु पक्षी आदि उत्पन्न किये। उन्ही अनंत शक्तिशाली परम पुरुष ने मनुष्यों को उत्पन्न किया और उनके कल्याण के लिए वेदों का उपदेश दिया।

उन्होंने शतपथ ब्राह्मण से एक उद्धरण दिया और बताया-
‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः शत.।।
प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन तीनों ऋषियों की आत्मा में एक एक वेद का प्रकाश किया। (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम समुल्लास, पृष्ठ 135 इसलिए वेदों की उत्पत्ति का काल मनुष्य जाति की उत्पत्ति के साथ ही माना जाता है।

स्वामी दयानंद की इस मान्यता का समर्थन ऋषि मनु और ऋषि वेदव्यास भी करते हैं। परमात्मा ने सृष्टी के आरंभ में वेदों के शब्दों से ही सब वस्तुओं और प्राणियों के नाम और कर्म तथा लौकिक व्यवस्थाओं की रचना की हैं. (मनुस्मृति १.२१)

स्वयंभू परमात्मा ने सृष्टी के आरंभ में वेद रूप नित्य दिव्यवाणी का प्रकाश किया जिससे मनुष्यों के सब व्यवहार सिद्ध होते हैं (वेद व्यास,महाभारत शांति पर्व २३२/२४)

कुल मिलाकर वेदों, सनातन धर्म एवं सनातनी परम्परा की शुरूआत कब हुई। ये अभी भी एक शोध का विषय है। इसका मतलब कि हजारों वर्ष ईसा पूर्व भारत में एक पूर्ण विकसित सभ्यता थी। और यहाँ के लोग पढ़ना-लिखना भी जानते थे। इसके बाद भारतीय संस्कृति का प्रकाश धीरे-धीरे पूरे विश्व में फैलने लगा। तब भारत का ‘धर्म’ ‍दुनियाभर में अलग-अलग नामों से प्रचलित था।

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अरब और अफ्रीका में जहां सामी, सबाईन, ‍मुशरिक, यजीदी, अश्शूर, तुर्क, हित्ती, कुर्द, पैगन आदि इस धर्म के मानने वाले समाज थे तो रोम, रूस, चीन व यूनान के प्राचीन समाज के लोग सभी किसी न किसी रूप में हिन्दू धर्म का पालन करते थे। फिर ईसाई और बाद में दुनियाँ की कई सभ्यताओं एवं संस्कृतियों को नष्ट करने वाले धर्म इस्लाम ने इन्हें विलुप्त सा कर दिया।

मैक्सिको में ऐसे हजारों प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है। जीसस क्राइस्ट्स से बहुत पहले वहां पर हिन्दू धर्म प्रचलित था। अफ्रीका में 6,000 वर्ष पुराना एक शिव मंदिर पाया गया और चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, लाओस, जापान में हजारों वर्ष पुरानी विष्णु, राम और हनुमान की प्रतिमाएं मिलना इस बात का सबूत है कि हिन्दू धर्म संपूर्ण धरती पर था।