सोमवार, 20 जुलाई 2015

इतिहास के दस महान गुरु


प्राचीनकाल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। देवताओं के गुरु थे बृहस्पति और असुरों के गुरु थे शुक्राचार्य। भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक महान गुरु-शिक्षक रहे हैं। ऐसे गुरु हुए हैं जिनके आशीर्वाद और शिक्षा के कारण इस देश को महान युग नायक मिले।

कण्व, भारद्वाज, वेदव्यास, अत्रि से लेकर वल्लभाचार्य, गोविंदाचार्य, गजानन महाराज, तुकाराम, ज्ञानेश्वर आदि सभी अपने काल के महान गुरु थे  आइए जानते हैं दस महान गुरुओं का संक्षिप्त परिचय…


१. गुरु वशिष्ठ
राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरुण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया। सप्त‍ ऋषियों में गुरु वशिष्ठ की गणना की जाती है।

२. विश्वामित्र ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था, लेकिन स्वर्ग में उन्हें जगह नहीं मिली तो विश्वामित्र ने एक नए स्वर्ग की रचना कर डाली थी। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।

…जब विश्वामित्र ने पाया ब्रह्मर्षि-पद
भगवान राम को परम योद्धा बनाने का श्रेय विश्वामित्र ऋषि को जाता है। एक क्षत्रिय राजा से ऋषि बने विश्वामित्र भृगु ऋषि के वंशज थे। भगवान राम के पास जितने भी दिव्यास्त्र थे, वे सब विश्वामित्र ऋषि के दिए हुए थे। विश्वामित्र को अपने जमाने का सबसे बड़ा आयुध आविष्कारक माना जाता है। उन्होंने ब्रह्मा के समकक्ष एक और सृष्टि की रचना कर डाली थी।

माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ट होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मंत्र की रचना की, जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

३. परशुराम जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया तो रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार कर दिया जिससे गणेशजी का एक दाँत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया। कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया। असत्य वाचन करने के दंडस्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। इस तरह परशुराम के अनेक किस्से हैं।

४. शौनक —शौनक ने १० हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे। फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।

इसके अलावा मान्यता है कि अगस्त्य, कश्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।

५. द्रोणाचार्य—-द्वापर युग में कौरवों और पांडवों के गुरु रहे द्रोणाचार्य भी श्रेष्ठ शिक्षकों की श्रेणी में काफी सम्मान से गिने जाते हैं। द्रोणाचार्य अपने युग के श्रेष्ठतम शिक्षक थे। द्रोणाचार्य भारद्वाज मुनि के पुत्र थे। ये संसार के श्रेष्ठ धनुर्धर थे। माना जाता है कि द्रोण का जन्म उत्तरांचल की राजधानी देहरादून में बताया जाता है, जिसे हम देहराद्रोण (मिट्टी का सकोरा) भी कहते थे। द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपि से हुआ जिनसे उन्हें अश्वत्थामा नामक पुत्र मिला। गुरु द्रोण ने पांडु पुत्रों और कौरवों को धनुर्धर की शिक्षा दी। द्रोण के हजारों शिष्य थे जिनमें अर्जुन को उन्होंने विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान दिया। इस वरदान की रक्षा करने के लिए ही द्रोण ने जब देखा कि अर्जुन से भी श्रेष्ठ एकलव्य श्रेष्ठ धनुर्धर है तो उन्होंने एकलव्य से उसका अंगूठा मांग लिया।

महाभारत युद्ध में द्रोण कौरवों की ओर से लड़े थे। द्रोणाचार्य और उनके पुत्र अश्वथामा जब पांडवों की सेना पर भारी पड़ने लगे तब एक छल से धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट दिया। द्रोण एक महान गुरु थे। इतिहास में उनका नाम अजर-अमर रहेगा।

६. महर्षि सांदीपनि —-भगवान कृष्ण, बलराम और सुदामा के गुरु थे महर्षि सांदीपनि। इनका आश्रम आज भी मध्यप्रदेश के उज्जैन में है। सांदीपनि के गुरुकुल में कई महान राजाओं के पुत्र पढ़ते थे। श्रीकृष्णजी की आयु उस समय १८ वर्ष की थी और वे उज्जयिनी के सांदीपनि ऋषि के आश्रम में रहकर उनसे शिक्षा प्राप्त कर चुके थे।-सांदीपनि ने भगवान श्रीकृष्ण को ६४ कलाओं की शिक्षा दी थी। भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार श्रीकृष्ण ने सर्वज्ञानी होने के बाद भी सांदीपनि ऋषि से शिक्षा ग्रहण की और ये साबित किया कि कोई इंसान कितना भी प्रतिभाशाली या गुणी क्यों न हो, उसे जीवन में फिर भी एक गुरु की आवश्यकता होती ही है।

७. चाणक्य —आचार्य विष्णु गुप्त यानी चाणक्य यानी चणक। चाणक्य को कौन नहीं जानता कलिकाल के सबसे श्रेष्ठ गुरु जिन्होंने भारत को एकसूत्र में बांध दिया था। दुनिया के सबसे पहले राजनीतिक षड्‍यंत्र के रचयिता आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य जैसे साधारण भारतीय युवक को सिकंदर और धनानंद जैसे महान सम्राटों के सामने खड़ाकर कूटनीतिक युद्ध कराए। -चंद्रगुप्त मौर्य को अखंड भारत का सम्राट बनाया। पहली बार छोटे-छोटे जनपदों और राज्यों में बंटे भारत को एकसूत्र में बांधने का कार्य आचार्य चाणक्य ने किया था। वे मूलत: अर्थशास्त्र के शिक्षक थे लेकिन उनकी असाधारण राजनीतिक समझ के कारण वे बहुत बड़े रणनीतिकार माने गए।

८. आद्य शंकराचार्य — स्वामी शंकराचार्य ने भारत की बिखरी हुई संत परंपरा को एकजुट कर दसनामी संप्रदाय का गठन किया और भारत के चारों कोने में ४ मठों की स्थापना की। उन्होंने ही हिंदुओं के चार धामों का पुन: निर्माण कराया और सभी तीर्थों को पुनर्जीवित किया। शंकराचार्य हिंदुओं के महान गुरु हैं। उनके हजारों शिष्य थे और उन्होंने देश-विदेश में भ्रमण करके हिंदू धर्म और संस्कृति का प्रचार प्रसार किया।

९. स्वामी समर्थ रामदास ——आस्वामी समर्थ रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरु थे। उन्होंने ही देशभर में अखाड़ों का निर्माण किया था। महाराष्ट्र में उन्होंने रामभक्ति के साथ हनुमान भक्ति का भी प्रचार किया। हनुमान मंदिरों के साथ उन्होंने अखाड़े बनाकर महाराष्ट्र के सैनिकीकरण की नींव रखी, जो राज्य स्थापना में बदली। संत तुकाराम ने स्वयं की मृत्युपूर्व शिवाजी को कहा कि अब उनका भरोसा नहीं अतः आप समर्थ में मन लगाएँ। तुकाराम की मृत्यु बाद शिवाजी ने समर्थ का शिष्यत्व ग्रहण किया।

१०. रामकृष्ण परमहंस —स्वामी विवेकानंद के गुरु आचार्य रामकृष्ण परमहंस भक्तों की श्रेणी में श्रेष्ठ माने गए हैं। मां काली के भक्त श्री परमहंस प्रेममार्गी भक्ति के समर्थक थे। ऐसा माना जाता है कि समाधि की अवस्था में वे मां काली से साक्षात वार्तालाप किया करते थे। उन्हीं की शिक्षा और ज्ञान से स्वामी विवेकानंद ने दुनिया में हिंदू धर्म की पताका फहराई।आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।

शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरुऽ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।

गुरु पूर्णिमा का महत्व—— व्यास जयन्ती ही गुरुपूर्णिमा है। गुरु को गोविंद से भी ऊंचा कहा गया है। गुरुपरंपरा को ग्रहण लगाया तो सद्गुरु का लेबिल लगाकर धर्मभीरुता की आड़ में धंधा चलाने वाले ‘‘कालिनेमियों ने। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरुऽ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। ‘व्यासऽ का शाब्दिक संपादक, वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, १८पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद ‘महाभारतऽ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। ‘‘तमसो मा ज्योतिगर्मयऽऽ अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुत्व है। आगम-निगम-पुराण का निरंतर संपादन ही व्यास रूपी सद्गुरु शिष्य को परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार का माध्यम है। जिससे मिलती है सारूप्य मुक्ति। तभी कहा गया- ‘‘सा विद्या या विमुक्तये।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

जानें भोजन करने के गुण​

आज कल लोग पश्चिमी सभ्यता को अपनाकर अपनी सभ्यता को धूमिल करते जा रहे हैं । मैं आज भोजन से जुड़ी बातें करने जा रहा हूँ । मुझे अभी भी याद है यह कुछ ज्यादा समय की बात नहीं है । जब भोजन के लिए मैं अपने पिता जी के साथ बैठता था तो मेरे पिता जी मुझे भोजन करते देख मेरी बुराईयों पर नाराज हो जाया करते थे ।

जब मैं चम्मच से भोजन करता तो कहते "हाथ टूट गया है क्या" ? पर मैं उनकी इस बात को समझ न पाता इसलिए मैं उनके साथ भोजन करने में कतराता था। परन्तु आज वह स्थिती नहीं है । आज मैं उनकी उन तानेपूर्ण बातों को समझपाया।

मित्रो.. हमारे माता-पिता हमें हमेसा अच्छी शिक्षा देते हैं पर हम उनकी बातों को ध्यन नहीं देते । हाथ से भोजन करना भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है। यही कारण है भारत में आज भी अधिकांश लोग हाथ से खाना पसंद करते हैं। आपने महसूस भी किया होगा, जब आप चम्मच से भोजन करते है तो लगता भोजन में अभी कुछ बाकी है, क उछ कमी सा महसूस होता है जैसे पेट भरा ही न हो । लेकिन पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में कई लोगों ने छुरी, कांटे या चम्मच से खाना शुरू कर दिया है, क्योंकि वो ये नहीं जानते कि अपने हाथों से खाना खाने के कई फायदे हैं ।
ध्यान से पढिये..

आयुर्वेद के अनुसार हमारे हाथों प्राणाधार एनर्जी होती है। इसका कारण है कि हम सब पांच तत्वों से बने हैं, जिन्हे जीवन ऊर्जा भी कहते हैं। ये पांचों तत्व हमारे हाथ में मौजूद हैं। हमारे हाथों का अंगूठा अग्नि का प्रतीक है। तर्जनी उंगली हवा की प्रतीक है। मध्यमा उंगली आकाश की प्रतीक है। अनामिका उंगली पृथ्वी की प्रतीक है और सबसे छोटी उंगली जल की प्रतीक है। इनमे से किसी भी एक तत्व का असंतुलन बीमारी का कारण बन सकता है।

आपको याद होगा जब हम अग्नी में होम करते है तब पण्डित जी मंत्र कहते हैं- ॐ प्राणाय स्वाहा। ॐ अपानाय स्वाहा। ॐ उदानाय स्वाहा। ॐ समानाय स्वाहा। ॐ व्यानाय स्वाहा। ये वही पांच वायु शक्ती है, जिससे हमारे शरीर का जीवन चक्र चलता है । वृन्दाबन में जब मैं शिक्षा ग्रहण कर रहा था तब मेरे (शिवकरण) गुरुजी ने यह बात हम सभी बच्चों को बताया था कि जब हम स्वास लेते हैं तब उस प्राण वायु (आक्सीजन​) शरीर में प्रवेश कर अन्य चार वायु उत्पन्न करता है । ये ही पांच वायु से हमारा भोजन का पचना, रक्त का दौड़ना, बमन(उल्टी) होना मल-मूत्र को बेग देना आदि का कार्य करता है ।

जब हम हाथ से भोजन खाते हैं तो हम अंगलियों और अंगूठे को मिलाकर भोजन खाते हैं और इससे जो हस्त मुद्रा बनती है। उसमें शरीर को निरोग रखने की क्षमता होती है। इसलिए जब हम भोजन खाते हैं तो इन सारे तत्वों को एक जुट करते हैं जिससे भोजन ज्यादा ऊर्जादायक बन जाता है और यह स्वास्थ्यप्रद बनकर हमारे प्राणाधार की एनर्जी को संतुलित रखता है, पाचन क्रिया में सुधार होता है।

टच हमारे शरीर का सबसे मजबूत अक्सर इस्तेमाल होने वाला अनुभव है। जब हम हाथों से खाना खाते हैं तो हमारा मस्तिष्क हमारे पेट को यह संकेत देता है कि हम भोजन खाने वाले हैं। इससे हमारा पेट इस भोजन को पचाने के लिए तैयार हो जाता है, अौर पाचन तंत्र से भोजन पचाने वाले रासायन स्त्रावित होने लगते हैं। जिससे पाचन क्रिया सुधरती है। आपके हाथ अच्छे तापमान संवेदक का काम भी करते हैं। जब आप भोजन को छूते हैं तो आपको अंदाजा लग जाता है कि यह कितना गर्म है और आप इसे अपने शरीर की आवश्यकता के अनुसार तापमान पर ही ग्रहण करते हैं और यही शरीर के लिए फायदेमंद भी होता है।

हाथ से खाना खाने में आपको खाने पर ध्यान देना पड़ता है। इसमें आपको खाने को देखना पड़ता है और जो आपके मुह में जा रहा है उस पर ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। इसे माइंडफुल ईटिंग भी कहते है। इसलिए यह मशीन कि भांति चम्मच और कांटे से भोजन खाने से ज्यादा स्वास्थयप्रद है। माइंडफुल ईटिंग के कई फायदे हैं इनमे से सबसे महत्वपूर्ण फायदा यह है कि इससे खाने के पोषक तत्व बढ़ जाते हैं। जिससे पाचन क्रिया सुधरती है और यह आपको स्वस्थ रखता है।

तो कैसी लगी यह जानकारी आपको अब आप इसे जानकारी समझकर भूलिए नहीं आचरण में लाकर स्वस्थ्य रहिये । 
___आचार्य राकेश तिवारी
9833218792

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

(द) सुभषित श्लोक​

1
दुर्लभं त्रयमेवैतत देवानुग्रहहेतुकम । 
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसश्रय: ॥

भावार्थ- मनुष्य जन्म, मुक्ती की इच्छा तथा महापुरूषोंका सहवास यह तीन चीजें परमेश्वर की कॄपा पर निर्भर रहते है । 
2
दिवसेनैव तत कुर्याद येन रात्रौ सुखं वसेत । 
यावज्जीवं च तत्कुर्याद येन प्रेत्य सुखं वसेत ॥
भावार्थ- दिनभर ऐसा काम करो जिससे रात में चैन की नींद आ सके । वैसे ही जीवन भर ऐसा काम करो जिससे मॄत्यू पश्चात सुख मिले । अर्थात सद्गती प्राप्त हो।
3
दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । 
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तॄतीया गतिर्भवति ॥
भावार्थ- धन खर्च होने के तीन मार्ग है- दान, उपभोग तथा नाश जो व्यक्ति दान नही करता तथा उसका उपभोगभी नहीं लेता उसका धन नाश पाता है ।
04
दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम । 
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम अविजानताम ॥
भावार्थ- रातभर जागनेवाले को रात बहुत लंबी मालूम होती है । जो चलकर थका है, उसे एक योजन चार मील) अंतर भी दूर लगता है । सद्धर्म का जिन्हे ज्ञान नही है उन्हे जिन्दगी दीर्घ लगती है ।
05
देहीति वचनद्वारा देहस्था पञ्च देवता: । 
तत्क्षणादेव लीयन्ते धर्ही श्री: कान्र्ति कीर्तय: ॥
भावार्थ-देह” इस शब्द के साथ, याचना करने से देह में स्थित पांच देवता बुद्धी, लज्जा, लक्ष्मी, कान्ति, और कीर्ति उसी क्षण देह छोडकर जाती है । 
06
द्वयक्षरस तु भवेत मृत्युर, त्रयक्षरमं ब्राह्म शाश्वतम । 
मम इति च भवेत मृत्युर, न मम इति च शाश्वतम ॥
भावार्थ- मृत्यु यह दो अक्षरों का शब्द है तथा ब्राह्म जो शाश्वत है वह तीन अक्षरों का है । मम यह भी मृत्यु के समान ही दो अक्षरों का शब्द है तथा नमम यह शाश्वत ब्राह्म की तरह तीन अक्षरों का शब्द है ।
07
दूर्जन: परिहर्तव्यो विद्यया लङ्कॄतोऽपि सन । 
मणिना भूषित: सर्प: किमसौ न भयङ्कर: ॥
दूर्जन! चाहे वह विद्या से विभूषित क्यूँ न हो, उसे दूर रखना चाहिए । मणि से आभूषित “साँप” क्या भयानक नहीं होता।
08
दातव्यं भोक्तव्यं धन विषये संचयो न कर्तव्य:। 
पश्येह मधु करीणां संचितार्थ हरन्त्यन्ये॥
भावार्थ- दान कीजिए या उपभोग लीजिए, धन का संचय न करें देखिए, मधुमक्खी का संचय कोई और ले जाता है ।
09
दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्। 
उष्णो दहति चांगारः शीतः कृष्णायते करम्॥
दुर्जन, जो कि कोयले के समान होते हैं, से प्रीति कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि कोयला यदि गरम हो तो जला देता है और शीतल होने पर भी अंग को काला कर देता है।
10
दुर्लभं त्रयमेवैतत देवानुग्रह हेतुकम । 
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसश्रय: ॥
मनुष्य जन्म, मुक्ती की इच्छा तथा महापुरूषों का संग​ यह तीन चीजें परमेश्वर की कॄपा पर निर्भर रहते है ।
11
दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । 
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तॄतीया गतिर्भवति ॥
धन खर्च होने के तीन मार्ग है । दान, उपभोग तथा नाश । जो व्यक्ति दान नही करता तथा उसका उपभोगभी नही लेता उसका धन नाश पाता है ।
12
दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम । 
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम अविजानताम ॥
रातभर जागनेवाले को रात बहुत लंबी मालूम होती है । जो चलकर थका है, उसे एक योजन चार मील अंतर भी दूर लगता है । सद्धर्म का जिन्हे ज्ञान नही है उन्हे जिन्दगी दीर्घ लगती है ।
13
देहीति वचनद्वारा देहस्था पञ्च देवता: । 
तत्क्षणादेव लीयन्ते र्धीह्र्रीश्र्रीकान्र्तिकीर्तय: ॥
‘देऽ इस शब्द के साथ, याचना करने से देहमें स्थित पांच देवता बुद्धी, लज्जा, लक्ष्मी, कान्ति, और कीर्ति उसी क्षण देह छोडकर जाती है । 
14
दूर्जन: परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङ्कॄतोऽपि सन । 
मणिना भूषित: सर्प: किमसौ न भयङ्कर: ॥
दूर्जन, चाहे वह विद्यासे विभूषित क्यू न हो, उसे दूर रखना चाहिए । मणि से आभूषित साँप, क्या भयानक नहीं होता  

(ग) सुभषित श्लोक​

1
गुणवान वा परजन: स्वजनो निर्गुणोपि वा । 
निर्गुण: स्वजन: श्रेयान य: पर: पर एव च ॥

भावार्थ- गुणवान शत्रु से भी गुणहीन मित्र अच्छा, शत्रु तो आखिर शत्रु है ।
2
गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो, बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल: ।  
पिको वसन्तस्य गुणं न वायस: करी च सिंहस्य बलं न मूषक: ॥
भावार्थ- गुणी पुरुष ही दुसरे के गुण पहचानता है, गुणहीन पुरुष नहीं । बलवान पुरुष ही दुसरे का बल जानता है, बलहीन नहीं । वसन्त ऋतु आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नहीं । शेर के बल को हाथी पहचानता है, चुहा नहीं ।
3
गौरवं प्राप्यते दानात न तु वित्तस्य संचयात । 
स्थिति: उच्चै: पयोदानां पयोधीनां अध: स्थिति: ॥
भावार्थ- दान से गौरव प्राप्त होता है, वित्त के संचय से नहीं । जल देने वाले बादलों का स्थान उच्च है, बल्कि जल का समुच्चय करने वाले सागर का स्थान नीचे है ।
4
गतेर्भंग: स्वरो हीनो गात्रे स्वेदो महद्भयम । 
मरणे यानि चिन्तनानि तानि चिन्तनानि याचके ॥
भावार्थ- चलते समय संतुलन खोना, बोलते समय आवाज न निकलना, पसीना छूटना और बहुत भयभीत होना यह मरने वाले आदमी के लक्षण याचक के पास भी दिखते है ।
5
ग्रन्थानभ्यस्य मेघावी ज्ञान विज्ञानतत्पर: । 
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत सर्वमशेषत: ॥
बुद्धीमान मनुष्य जिसे ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र इच्छा है वह ग्रन्थो में जो महत्वपूर्ण विषय है उसे पढकर उस ग्रन्थका सार जान लेता है तथा उस ग्रन्थ के अनावष्यक बातों को छोड देता है उसी तरह जैसे किसान केवल धान्य उठाता है ।
6
गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल: । 
पिको वसन्तस्य गुणं न वायस: करी च सिंहस्य बलं न मूषक: ॥
गुणी पुरुष ही दुसरे के गुण पहचानता है, गुणहीन पुरुष नहीं। बलवान पुरुष ही दुसरे का बल जानता है, बलहीन नहीं। वसन्त ऋतु आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नहीं। शेर के बल को हाथी पहचानता है, चुहा नहीं।
7
गुणवान वा परजन: स्वजनो निर्गुणोपि वा  
निर्गुण: स्वजन: श्रेयान य: पर: पर एव च
गुणवान शत्रु से भी गुणहीन मित्र अच्छा। शत्रु तो आखिर शत्रु है।

धर्म क्या है ?

मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम ॥
(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरङ्ग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना), ये दस धर्म के लक्षण हैं।)

जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ न करना चाहिये - यह धर्म की कसौटी है।

श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत ॥
(धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।)

धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) विश्व के सभी बड़े धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए है। ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, पर इसके ज़्यादातर उपासक भारत में हैं और विश्व का सबसे ज्यादा हिन्दुओं का प्रतिशत नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन असल में ये एकेश्वरवादी धर्म है। इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नही है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है " हिन्सायाम दूयते या सा हिन्दु " अर्थात जो अपने मन वचन कर्म से हिंसा से दूर रहे वह हिन्दु है और जो कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे वह हिंसा है। 

यह वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए है। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है।

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

(क) सुभाषित श्लोक​

1.
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम। 
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥
भावार्थ​- बुद्धिमान व्यक्ति काव्य, शास्त्र आदि का पठन करके अपना मनोविनोद करते हुए समय को व्यतीत करता है और मूर्ख सोकर या कलह करके समय बिताता है।
2.
कुलस्यार्थे त्यजेदेकम ग्राम्स्यार्थे कुलंज्येत्। 
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥
भावार्थ​- कुटुम्ब के लिए स्वयं के स्वार्थ का त्याग करना चाहिए, गाँव के लिए कुटुम्ब का त्याग करना चाहिए, देश के लिए गाँव का त्याग करना चाहिए और आत्मा के लिए समस्त वस्तुओं का त्याग करना चाहिए।
3.
किम कुलेन विशालेन विद्याहीनस्य देहिन:। 
अकुलीनोऽपि विद्यावान देवैरपि सुपूज्यते॥
भावार्थ​- अच्छे कुल मे जन्मा हुआ व्यक्ति अगर ज्ञानी न हो, तो उसके अच्छे कुल का क्या फायदा। ज्ञानी व्यक्ति अगर कुलीन न हो, तो भी इश्वर भी उसकी पूजा करते है।
4.
कस्यचित किमपि नो हरणीयं मर्मवाक्यमपि नोच्चरणीयम। 
श्रीपते: पद्युगं स्मरणीयं लीलया भवजलं तरणीयम्॥
भावार्थ​- दूसरों की कोई वस्तु कभी चुरानी नहीं चाहिए। दूसरे के मर्म स्थान पे आघात हो ऐसा कभी बोलना नहीं चाहिए। श्री विष्णु के चरण का स्मरण करना चाहिए। ऐसा करने से भवसागर पार करना सरल हो जाता है।
5.
क्वचिद्भूमौ शय्या क्वचिदपि पर्यङ्कशयनं, 
क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचि:। 
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो, 
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दु:खं न च सुखम ॥
भावार्थ- कभी धरती पे सोना कभी पलंग पे। कभी सब्जी खाना कभी रोटी–चावल। कभी फटे हुए कपडे पहनना कभी बहुत कीमती कपडे पहनना। जो व्यक्ति अपने कार्य में सर्वथा मग्न हो, उन्हें ऐसी बाहरी सुख दु:खो से कोई मतलब नहीं होता।
6.
कर्पूरधूलिरचितालवाल: कस्तूरिकापंकनिमग्ननाल:। 
गंगाजलै: सिक्तसमूलवाल: स्वीयं गुणं मुञ्चति किं पलाण्डु:॥
भावार्थ- प्याज के पौधे के लिए आप कपूर की क्यारी बनाओे, कस्तूरी का उपयोग मिट्टी की जगह करो, अथवा उसके जड़ पे गंगा जल डालो वह अपनी दुर्गंध नहीं छोडेगा । उसी प्रकार दुश्ट मनुष्य का स्वभाव बदलना बहुत कठिन है ।
7.
कलहान्तनि हम्र्याणि कुवाक्यानां च सौदम । 
कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मांन्तम यशो नॄणाम ॥
भावार्थ- झगडों से परिवार टूट जाते हैं। गलत शब्द प्रयोग करने से दोस्त टूटते हैं। बुरे शासकों के कारण राष्ट्र का नाश होता है। बुरे काम करने से यश दूर भागता है।
8.
कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम । 
इति ते संशयो मा भूत राजा कालस्य कारणं ॥ 
भावार्थ- काल राजा का कारण है, कि राजा काल का इसमें थोडी भी दुविधा नहीं कि राजा ही काल का कारण है ।
9.
कन्या वरयते रुपं माता वित्तं पिता श्रुतम । 
बान्धवा: कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरेजना: ॥ 
भावार्थ- विवाह के समय कन्या सुन्दर पती चाहती है । उसकी माता सधन जमाइ चाहती है । उसके पिता ज्ञानी जमाइ चाहते है । तथा उसके बन्धु अच्छे परिवार से नाता जोड़ना चाहते हैं। परन्तु बाकी सभी लोग केवल अच्छा खाना चाहते हैं।

(अ) सुभषित श्लोक​

1.
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ -वाल्मीकि रामायण
हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती। मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है।
2.
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्य मेतत पशुभिर्नराणाम्। 
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं, अर्थात यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं, केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।
3.
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्। 
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥
तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।
4.
आत्मनो मुखदोषेण वध्यन्ते शुक सारिकाः । 
बकास्तत्र न वध्यन्ते मौनं सर्वाऽर्थसाधनम ॥ लब्धप्रणाशम्, पञ्चतन्त्र ४८
अपने मुख दोष (ज्यादा एवं मीठा) बोलने से ही तोता मैना पकडे़ एवं पिंजड़े में डाले जाते हैं । चुप रहने के कारण ही बगुलों को न कोई पकड़ता है और न कोई पालता है । [वाणी संयम हमेशा ही कार्य सिद्ध करने वाला होता है ।]
5.
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। 
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥
"ये मेरा है", "वह उसका है" जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है।
6.
असूयैकपदं मॄत्यु: अतिवाद: श्रियो वध: । 
अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्याया: शत्रवस्त्रय: ॥
विद्यार्थी के संबंध में द्वेश यह मॄत्यु के समान है। अनावश्यक बाते करने से धन का नाश होता है। सेवा करने की मनोवॄत्ती का आभाव, जल्दबाजी तथा स्वयं की प्राशंसा स्वयं करना यह तीन बाते विद्या ग्रहण करने के शत्रू है।
7.
अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजन शलाकया । 
चक्षुरुन्मिलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम: ॥
अज्ञान के अंध:कार से अन्धे हुए मनुष्य की आंखे ज्ञान रुप अंजन से खोलने वाले गुरु को मेरा प्रणाम।
8.
अधीत्य चतुरो वेदान सर्वशास्त्राण्यनेकश: । 
ब्रम्ह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा ॥
सिर्फ वेद तथा शास्त्रों का बार बार अध्ययन करनेसे किसी को ब्राह्मतत्व का अर्थ नहीं होता । जैसे जिस चम्मच से खाद्य पदार्थ परोसा जाता है उसे उस खाद्य पदार्थ का गुण तथा सुगंध प्राप्त नहीं होता ।
9.
अप्यब्धिपानान्महत: सुमेरून्मूलनादपि । 
अपि वहन्यशनात साधो विषमश्चित्तनिग्रह: ॥
अपने स्वयं के मन का स्वामी होना यह संपूर्ण सागर के जल को पिना, मेरू पर्वत को उखाडना या फिर अग्नी को खाना ऐसे असंभव बातों से भी कठिन है ।
10.
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा: ग्रन्थिभ्यो धारिणो वरा: । 
धारिभ्यो ज्ञानिन: श्रेष्ठा: ज्ञानिभ्यो व्यसायिन: ॥
निरक्षर लोगों से ग्रंथ पढने वाले श्रेष्ठ, उनसे भी अधिक ग्रंथ समझने वाले श्रेष्ठ । ग्रंथ समझने वालों से भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्राप्त ज्ञान को उपयोग में लाने वाले श्रेष्ठ ।
11.
अप्रकटीकृतशक्ति: शक्तोऽपि जनस्तिरस्क्रियां। 
लभते निवसन्नन्तर्दारूणि लंघ्यो वहिनर्न तु ज्वलित: ॥
भावार्थ- बल जब तक वह नही दिखाता है, उसके बलकी उपेक्षा होती है। लकडी से कोई नही डरता, मगर वही लकडी जब जलने लगती है, तब लोग उससे डरते है।
12.
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्राणत्यागेऽपि संस्थिते । 
न च कॄत्यं परित्याज्यम एष धर्म: सनातन: ॥
भावार्थ- जो कार्य करने योग्य नहीं है इच्छा न होने के कारण वह प्राण देकर भी नहीं करना चाहिए । तथा जो काम करना अपना कर्तव्य होने के कारण वह काम प्राण देना पडे तो भी करना नहीं छोडना चाहिए ।
13.
आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत । 
तद्वत कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ गीता २।७०
भावार्थ- जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आशाओं से अविचलित रहता है, जैसे- अनेक नदीयाँ सागर में मिलने पर भी सागर का जल नहीं बढता, वह शांत ही रहता है। ऐसे ही व्यक्ती सुखी हो सकते है ।
14.
अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं । 
अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु ॥
भावार्थ- दूसरों को दु:ख दिये बिना, विकॄती के साथ अपना संबन्ध बनाए बिना, अच्छों के साथ अपने संबन्ध तोडे बिना, जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है ।
15.
आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला । 
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत ॥
भावार्थ- आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है । इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही जगह पर खडे रहते है ।
16.
अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुन: । 
पुन: कदापि नायाति गतं तु नव यौवनम ॥
भावार्थ- धन मिलता है, नष्ट होता है। (नष्ट होने के बाद) फिरसे मिलता है। परन्तु जवानी एक बार निकल जाए तो कभी वापस नहीं आती ।
17.
आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते । 
नीयते तद वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो ॥
भावार्थ- सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापस नहीं मिलता । ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे हैं वे कितनी बडी गलती कर रहे है ।
18.
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म । 
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ॥
भावार्थ- आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है ।
19.
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम । 
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ॥
भावार्थ- (श्री भगवान बोले) हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है ।
20.
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम । 
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम ॥
भावार्थ- महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं। पहली- परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी- पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना।
21.
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम । 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम ॥
भावार्थ- यह मेरा है, यह उसका है, ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है, इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है ।
22.
अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना । 
यत सारभूतं तदुपासितव्यं हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात ॥
भावार्थ- पढ़ने के लिए बहुत से शास्त्र हैं और ज्ञान अपरिमित है। अपने पास समय की कमी है और बाधाएं बहुत हैं। ऐसे में जैसे हंस पानी में से दूध निकाल लेता है उसी तरह हमें उन शास्त्रों का सार समझ लेना चाहिए।
23.
अल्पानामपि वस्तूनां संहति: कार्यसाधिका । 
तॄणैर्गुणत्वमापन्नैर बध्यन्ते मत्तदन्तिन: ॥
भावार्थ- छोटी-छोटी वस्तूएँ एकत्र करने से बडे़ काम भी हो सकते हैं। जिस प्रकार घास से बनाई हुई डोरी से मत्त हाथी बांधा जा सकता है।
24.
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम । 
अधनस्य कुतो मित्रम अमित्रस्य कुतो सुखम ॥
भावार्थ- आलसी मनुष्य को ज्ञान कैसे प्राप्त होगा ? यदि ज्ञान नहीं तो धन नहीं मिलेगा । यदि धन नहीं है तो अपना मित्र कौन बनेगा ? और मित्र नहीं तो सुख का अनुभव कैसे मिलेगा ।
25.
आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम । 
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ॥
भावार्थ- जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदीयों के माध्यम से अंतिमत: सागर से जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है ।
26.
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्य मेतत पशुभिर्नराणाम्। 
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥१८॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं, अर्थात यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं, केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।
27.
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ -वाल्मीकि रामायण
हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती। मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है।
28.
अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुन:। 
पुन: कदापि नायाति गतं तु नवयौवनम्॥
घन मिलता है, नष्ट होता है। (नष्ट होने के बाद) फिरसे मिलता है। परन्तु जवानी एक बार निकल जाए तो कभी वापस नही आती।
29.
आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला ।
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत ॥
आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है । इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही जगह पर खडे रहते है ।
30.
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म । 
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ॥
आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है ।
31.
आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते । 
नीयते तद वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो ॥
सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापास नहीं मिलता । ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे है वे कितनी बडी गलती कर रहे है
32.
"अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं। 
अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु॥
दूसरोंको दु:ख दिये बिना ; विकॄती के साथ अपाना संबंध बनाए बिना; अच्छों के साथ अपने सम्बंध तोडे बिना ; जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है ।
33.
अमित्रो न विमोक्तव्य: कॄपणं वणपि ब्रुवन। 
कॄपा न तस्मिन कर्तव्या हन्यादेवापकारिणाम्॥
शत्रु अगर क्षमायाचना करे, तो भी उसे क्षमा नही करनी चाहिये। वह अपने जीवित को हानि पहुचा सकता है यह सोचके उसको समाप्त करना चाहिये। 
३४
आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत । तद्वत कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ गीता २।७०
जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आशाओं से अविचलित रहता हैर जैसे अनेक नदीयां सागर में मिलने पर भी सागर का जल नही बढता, वह शांत ही रहता हैर ऐसे ही व्यक्ती सुखी हो सकते है ।
३५
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्राणत्यागेऽपि संस्थिते । न च कॄत्यं परित्याज्यम एष धर्म: सनातन: ॥
जो कार्य करने योग्य नही है इअच्छा न होने के कारणउ वह प्राण देकर भी नही करना चाहिए । तथा जो काम करना है अपना कर्तव्य होने के कारणउ वह काम प्राण देना पडे तो भी करना नही छोडना चाहिए ।
३६
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा: ग्रन्थिभ्यो धारिणो वरा: । धारिभ्यो ज्ञानिन: श्रेष्ठा: ज्ञानिभ्यो व्यसायिन: ॥

निरक्षर लोगों से ग्रंथ पढने वाले श्रेष्ठ । उनसे भी अधिक ग्रंथ समझनेवाले श्रेष्ठ । ग्रंथ समझनेवालोंसे भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्राप्त ज्ञान को उपयोग में लानेवाले श्रेष्ठ ।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

फ्रीज में रखे गूंथा हुआ आटा भूत और पितर को आमंत्रित करता है!

गूंथे हुए आटे को उसी तरह पिण्ड के बराबर माना जाता है जो पिण्ड मृत्यु के बाद जीवात्मा के लिए समर्पित किए जाते हैं। किसी भी घर में जब गूंथा हुआ आटा फ्रीज में रखने की परम्परा बन जाती है तब वे भूत और पितर इस पिण्ड का भक्षण करने के लिए घर में आने शुरू हो जाते हैं जो पिण्ड पाने से वंचित रह जाते हैं। ऐसे भूत और पितर फ्रीज में रखे इस पिण्ड से तृप्ति पाने का उपक्रम करते रहते हैं। जिन परिवारों में भी इस प्रकार की परम्परा बनी हुई है वहां किसी न किसी प्रकार के अनिष्ट, रोग-शोक और क्रोध तथा आलस्य का डेरा पसर जाता है। इस बासी और भूत भोजन का सेवन करने वाले लोगों को अनेक समस्याओं से घिरना पडता है।

आप अपने इष्ट मित्रों, परिजनों व पडोसियों के घरों में इस प्रकार की स्थितियां देखें उनकी जीवनचर्या का तुलनात्मक अध्ययन करें तो पाएंगे कि वे किसी न किसी उलझन से घिरे रहते हैं।

आटा गूंथने में लगने वाले सिर्फ दो-चार मिनट बचाने के लिए की जाने वाली यह क्रिया किसी भी दृष्टि से सही नहीं मानी जा सकती। पुराने जमाने से बुजुर्ग यही राय देते रहे हैं कि गूंथा हुआ आटा रात को नहीं रहना चाहिए। उस जमाने में फ्रीज का कोई अस्तित्व नहीं था फिर भी बुजुर्गों को इसके पीछे रहस्यों की पूरी जानकारी थी। यों भी बासी भोजन का सेवन शरीर के लिए हानिकारक है ही। 

भोजन केवल शरीर को ही नहीं,अपितु मन-मस्तिष्क को भी गहरे तक प्रभावित करता है। दूषित अन्न-जल का सेवन न सिर्फ आफ शरीर-मन को बल्कि आपकी संतति तक में असर डालता है। ऋषि-मुनियों ने दीर्घ जीवन के जो सूत्र बताये हैं उनमें ताजे भोजन पर विशेष जोर दिया है। ताजे भोजन से शरीर निरोगी होने के साथ-साथ तरोताजा रहता है और बीमारियों को पनपने से रोकता है। लेकिन जब से फ्रीज का चलन बढा है तब से घर-घर में बासी भोजन का प्रयोग भी तेजी से बढा है। यही कारण 
है कि परिवार और समाज में तामसिकता का बोलबाला है।

ताजा भोजन ताजे विचारों और स्फूर्ति का आवाहन करता है जबकि बासी भोजन से क्रोध, आलस्य और उन्माद का ग्राफ तेजी से बढने लगा है। शास्त्रों में कहा गया है कि बासी भोजन भूत भोजन होता है और इसे ग्रहण करने वाला व्यक्ति जीवन में नैराश्य,रोगों और उद्विग्नताओं से घिरा रहता है। हम देखते हैं कि प्रायःतर गृहिणियां मात्र दो से पांच मिनट का समय बचाने के लिए रात को गूंथा हुआ आटा लोई बनाकर फ्रीज में रख देती हैं और अगले दो से पांच दिनों तक इसका प्रयोग होता है। आइये आज से ही संकल्प लें कि आयन्दा यह स्थिति सामने नहीं आए। तभी आप और आपकी संतति स्वस्थ और प्रसन्न रह सकती है और औरों को भी खुश रखने लायक व्यक्तित्व का निर्माण कर सकती है।

शुभम भवतु..

सोमवार, 30 मार्च 2015

33 कोटि देवताओं का रहस्य

हिन्दू धर्म में ३३ कोटि देवी-देवता हैं । ऐसे में किस देवता के जप से शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति संभव है, आज इस बिन्दु पर हम विचार करेंगे । यदि हमने किसी संत या गुरु से गुरु मंत्र लिया है तो उसका जप करना चाहिए और यदि नहीं लिया है तो गुरु ढूँढने का प्रयत्न नहीं चाहिए, क्योंकि कलियुग में ९८ प्रतिशत गुरु ढोंगी होते हैं और कोई अध्यात्मविद संत हैं या नहीं, यह हमें ज्ञात हो जाय, इसके लिए या तो हमारे पास सूक्ष्मका ज्ञान हो या साधनाका ठोस आधार हो, जो साधना की आरंभिक अवस्था में हमें नहीं होता है।
  • कुल देवता

अतः गुरु बनाने के फेर में पड़ने के स्थान पर, अध्यात्म शास्त्र अनुसार साधना करने का प्रयास करना चाहिए, और सनातन धर्म में इसका अत्यंत सुन्दर विधान है। सभी को अपने कुलदेवता का जप करना चाहिए । कुल देवता की व्युत्पत्ति और अर्थ देख लेते हैं । कुल, अर्थात मूल और मूलका संबंध मूलाधार चक्र, या कुण्डलिनी शक्ति से होता है । कुल + देवता, अर्थात जिस देवता की उपासना से मूलाधार चक्र जागृत होता है, अर्थात कुंडलिनी शक्ति जागृत हो जाती है, अर्थात आध्यात्मिक उन्नति आरम्भ होती है, उन्हें कुलदेवता कहते हैं। कुलदेवताके तत्त्व में सभी 33 कोटि देवता के तत्त्व समाहित होते हैं । अतः कुलदेवता के जप से उन तत्त्व की 30% तक वृद्धि हो जाती है और यह जप पूर्ण होने पर, गुरु का हमारे जीवन में स्वतः ही प्रवेश हो जाता है । यदि कुलदेवता का नाम पता हो, तो कुलदेवता के नाम के आगे ‘श्रीऽ लगाएँ और तत्पश्चात देवता के नाम के साथ चतुर्थी का प्रत्यय लगाएँ और अंत में “नमः” लगाएँ । इस प्रकार कुलदेवता का जप करें, जैसे यदि कुलदेवता ‘गणेशऽ हों, तो ‘श्री गणेशाय नमःऽ और यदि कुलदेवी ‘भवानीऽ हों, तो ‘श्री भवानी देव्यै नमःऽ, इस प्रकार जप करें । यदि कुलदेवता का नाम नहीं पता हो, तो ‘श्री कुलदेवतायै नमःऽ जपें और अपने इष्ट का स्वरूप अपने मन में रखें ।

जिनके लिए जीवन में साधना प्रधान हो और सांसारिक जीवन गौण हो, अर्थात जिनका आध्यात्मिक स्तर 50% से अधिक हो, ऐसे साधक को उच्च कोटि के देवता जैसे राम, कृष्ण, दुर्गा, शिव, हनुमान, दत्त, गणपति में से जो उनके आराध्य हों, उनका जप करना चाहिए ।

वर्तमान काल में 50% साधारण व्यक्तियों को और 70% अच्छे साधकों को अनिष्ट शक्ति का तीव्र कष्ट है । ऐसे में सर्वप्रथम अनिष्ट शक्ति के कष्ट के निवारणार्थ जप करें ।

  • अनिष्ट शक्ति क्या होती है ?

ईश्वर ने सृष्टि की रचना के साथ ही दो शक्तियों देव और असुर का निर्माण किया जिसमें एक है इष्टकारी शक्ति, कल्याणकारी शक्ति और दूसरा अनिष्ट शक्ति अर्थात विनाशकारी शक्ति । जब किसी दुर्जन की मृत्यु हो जाए और उसका क्रिया-कर्म वैदिक रीतिसे न हुआ हो, या उसके कर्मानुसार उसे गति न मिले, तो वे भी अनिष्ट शक्ति के गुट में चले जाते हैं । उसी प्रकार हमारे पूर्वजों ने पाप कर्म किए हों, या उनकी कोई इच्छा अतृप्त रह गई हो और हम अतृप्त पितरों की सद्गति के लिए योग्य साधना नहीं करते हों, तो वे भी अनिष्ट शक्ति के गुट में चले जाते हैं और साधनाके अभावमें बलाढ्य आनिष्ट शक्तियां उन्हें सूक्ष्म जगतमें बंधक बना, उनसे बुरे कर्म करवाती हैं अतः उनसे भी कष्ट होता है ।

वर्तमान समय में धर्माचरण के अभाव में व्यष्टि (वैयक्तिक) एवं समष्टि (सामाजिक) जीवनमें अनिष्ट शक्ति का कष्ट बढ़ गया है और चारों ओर ‘त्राहिमांऽ की स्थिति बन गयी है । अनिष्ट शक्तिके कारण किस प्रकारके कष्ट हो सकते हैं? अवसाद (डिप्रेशन), आत्म-हत्याके विचार आना, अत्यधिक क्रोध आना और उस आवेशमें अपना आपा पूर्ण रूप से खो देना, मनमें सदैव वासना के विचार आना, नींद न आना, अत्यधिक नींद आना, शरीरके किसी भागमें वेदना होना और औषधि द्वारा उस वेदना का ठीक न हो पाना, मनका अत्यधिक अशांत रहना, व्यवसाय में सदैव हानि होना, परीक्षा के समय सदैव कुछ न कुछ अड़चन आना, घरमें सदैव कलह-क्लेश रहना, लगातार गर्भपात होना, बिना कारण आर्थिक हानि होना, रोग का वंशानुगत होना, व्यसनी होना, लगातार अपघात या दुर्घटना होते रहना, नौकरी या जीविकोपार्जन में सदैव अड़चन आना, सामूहिक बलात्कार, समलैंगिकता, भयावह यौन रोग, यह सब अनिष्ट शक्तियों के कारण होते हैं।

यदि किसीको अनिष्ट शक्तिका कष्ट हो तो आरम्भमें एक वर्षके लिए ‘श्रीगुरुदेव दत्तऽ का जप अधिकसे अधिक करना चाहिए और उसके पश्चात ‘सात नामजपका प्रयोगऽ कर, जिस नामजपसे कष्ट हो, उनका अखंड जप करना चाहिए। एक महीनेके पश्चात पुनः प्रयोग कर नए नामजपको ढूंढ कर निकालना चाहिए। ऐसे करनेसे उनके जीवनमें सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियोंद्वारा दिये जानेवाले कष्ट अति शीघ्र कम हो जाते हैं अन्यथा साधनाका व्यय, अनिष्ट शक्तिद्वारा दिए जा रहे कष्टपर मात करने हेतु हो जाता है और आध्यात्मिक प्रगति नहीं होती ।

‘सप्त देवताका नामजप प्रयोगऽ कैसे कर सकते हैं, यह संक्षेपमें देख लेते हैं । स्नानकर या हाथ मुंह धोकर, स्वच्छ और पवित्र स्थानपर बैठ जाएँ और राम, कृष्ण, दुर्गा, शिव, हनुमान, दत्त, गणपति, इनके क्रमशः ‘श्री राम जय राम जय जय रामऽ, ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवायऽ, ‘ ॐ श्री दुर्गा देव्यै नमःऽ , ‘ॐ नमः शिवायऽ, ‘ॐ हं हनुमते नमःऽ, ‘ॐ श्री गुरुदेव दत्तऽ, ‘ॐ गं गणपतये नमःऽ जपके समय किस जपसे सर्वाधिक कष्ट हो रहा है यह देखें । जिस जपसे सबसे अधिक कष्ट हो रहा हो, वह जप अगले एक महीनेके लिए करना चाहिए ।

यदि जप करते समय तनिक भी कष्ट न हो तो जिस जपमें सबसे कम विचार आयें, वह जप करें । जप करते समय नींद आना, बुरे विचार आना, जप करनेका मन न करना, जी मितलाना, उबासियाँ आना, शरीर में वेदना होना जैसे कष्ट हों तो समझें कि अनिष्ट शक्ति का कष्ट है । इन्हीं सभी सात जप को पांच-पांच मिनट करें और एक जप पांच मिनट करने के पश्चात उस दौरान क्या हुआ, यह एक कॉपी में लिख कर पुनः जप आरम्भ करने से पहले अगले उपास्य देवता को प्रार्थना करें । “हे भगवन, मेरे जीवन में जो भी अनिष्ट शक्ति मेरे व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जीवन में अड़चनें निर्माण कर रही हैं, उनपर मात पाने हेतु नाम जप का प्रयोग कर रही/रहा हूँ । नामजप के प्रयोग में सहायता करें और इससे पहले जो हमने जप किया, उसका प्रभाव इस जपके समय न हो ऐसी आप कृपा करेंऽऽ। प्रत्येक महीने जप का प्रयोग क्यों करना चाहिए ? एक महीने में या तो वह अनिष्ट शक्ति उस जपका कोई तोड़ ढूंढ लेती है, या उसे मुक्ति मिलने पर, कोई दूसरी अनिष्ट शक्ति हमें कष्ट देने लगती है । अतः जब तक अनिष्ट शक्ति के कष्ट कम न हो जाएँ, तब तक यह सात नाम जप का प्रयोग करते रहना चाहिए ।

इस ब्रह्माण्ड में 33 कोटी देव है नही सिर्फ एक ही देव हैं जो निरंजन निराकार हैं। लोगों को इस बात की बहुत बड़ी गलतफहमी है कि हिन्दू सनातन धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता हैं । लेकिन ऐसा है नहीं और, सच्चाई इसके बिलकुल ही विपरीत है । दरअसल हमारे वेदों में उल्लेख है 33 “कोटि” देवी-देवता। अब “कोटि” का अर्थ “प्रकार” भी होता है और “करोड़” भी । तो लोगोँ ने उसे हिंदी में करोड़ पढना शुरू कर दिया जबकि वेदों का तात्पर्य 33 कोटि अर्थात 33 प्रकार के देवी-देवताओं से है (उच्च कोटि.. निम्न कोटि इत्यादि शब्द तो आपने सुना ही होगा जिसका अर्थ भी करोड़ ना होकर प्रकार होता है) ये एक ऐसी भूल है जिसने वेदों में लिखे पूरे अर्थ को ही परिवर्तित कर दिया। इसे आप इस निम्नलिखित उदाहरण से और अच्छी तरह समझ सकते हैं । अगर कोई कहता है कि बच्चों को “कमरे में बंद रखा” गया है । और दूसरा इसी वाक्य की मात्रा को बदल कर बोले कि बच्चों को कमरे में ” बंदर खा गया ” है। (बंद रखा़ बंदर खा) सिर्फ इतना ही नहीं हमारे धार्मिक ग्रंथों में साफ-साफ उल्लेख है कि “निरंजनो निराकारो एको देवो महेश्वरः” अर्थात इस ब्रह्माण्ड में सिर्फ एक ही देव हैं जो निरंजन निराकार महादेव हैं । साथ ही यहाँ एक बात ध्यान में रखने योग्य बात है कि हिन्दू सनातन धर्म मानव की उत्पत्ति के साथ ही बना है और प्राकृतिक है इसीलिए हमारे धर्म में प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर जीना बताया गया है और प्रकृति को भी भगवान की उपाधि दी गयी है ताकि लोगप्रकृति के साथ खिलवाड़ ना करें।

जैसे कि :
1 गंगा को देवी माना जाता है क्योंकि गंगाजल में सैकड़ों प्रकार की हिमालय की औषधियां घुली होती हैं । 
2 गाय को माता कहा जाता है क्योंकि गाय का दूध अमृत तुल्य और, उनका गोबर एवं गौ मूत्र में विभिन्न प्रकार की औषधीय गुण पाए जाते हैं । 
3 तुलसी के पौधे को भगवान इसीलिए माना जाता है कि तुलसी के पौधे के हर भाग में विभिन्न औषधीय गुण हैं । 
4 इसी तरह वट और बरगद के वृक्ष घने होने के कारण ज्यादा ऑक्सीजन देते हैं और, थके हुए राहगीर को छाया भी प्रदान करते हैं। 

यही कारण है कि हमारे हिन्दू धर्म ग्रंथों में प्रकृति पूजा को प्राथमिकता दी गयी है क्योंकि, प्रकृति से ही मनुष्य जाति है ना कि मनुष्य जाति से प्रकृति है । अतः प्रकृति को धर्म से जोड़ा जाना और उनकी पूजा करना सर्वथा उपर्युक्त है । यही कारण है कि हमारे धर्म ग्रंथों में सूर्य, चन्द्र, वरुण, वायु, अग्नि को भी देवता माना गया है और इसी प्रकार कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैं । इसीलिए, आप लोग बिलकुल भी भ्रम में ना रहें क्योंकि ब्रह्माण्ड में सिर्फ एक ही देव हैं जो निरंजन निराकार महादेव हैं।
  • अतः कुल 33 प्रकार के देवता हैं : 

12 आदित्य है : धाता, मित्, अर्यमा, शक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान, पूषा, सविता, त्वष्टा, एवं विष्णु। 8 वसु हैं : धर, ध्रुव,सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष एवं प्रभाष 11 रूद्र हैं : हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजिता, वृषाकपि, शम्भू, कपर्दी, रेवत, म्रग्व्यध, शर्व तथा कपाली। 2 अश्विनी कुमार हैं। कुल : 12 +8 +11 +2=33